सत्ता की चाभी बनता आदिवासी मुख्यमंत्री का वादा

मध्यप्रदेश का चुनावी रण नित नए समीकरणों और संभावनाओं का साक्षी बनने लगा है। हर दिन वोट की घेरेबंदी नई नई कहानियों को जन्म दे रही है और सत्ता का परचम फहराने वाले योद्धा अपनी लामबंदी करने में जुट गए हैं। सियासी घोड़े दौड़ाने वाले सत्ताधीशों की राह में इस बार फिर आदिवासी मुख्यमंत्री का दावा नई चुनौती के रूप में उभर रहा है। आदिवासियों के संगठन जायस और मांझियों की पार्टी राष्ट्रीय महान गणतंत्र पार्टी के गठजोड़ ने सत्तारूढ़ भाजपा और प्रतिपक्ष में बैठी कांग्रेस दोनों की ही नींदें उड़ा दीं हैं। सत्ता के लिए वोटों की मारकाट के बीच जायस के राष्ट्रीय संरक्षक डाक्टर हीरालाल अलावा और मछुआरों के नेता आनंद निषाद एक चुनौती के रूप में उभर रहे हैं। सरकार से मान्यता प्राप्त आदिवासी वर्ग और पिछड़ों के बीच धकेल दिए गए मांझियों के बीच पनपी केमिस्ट्री ने सत्ता का खेल बिगाड़ने की तैयारी कर ली है। इन्हें लगता है कि वे अपने विशाल जनाधार को समेटकर कर्नाटक की तरह तीसरी शक्ति के रूप में उभरेंगे जो अंततः सत्ता में भागीदारी के लिए आदिवासी मुख्यमंत्री की अभिलाषा को पूरा करेगी।

दरअसल आदिवासी वोट बैंक की कल्पना उस वादे के कारण उपजी थी जिसके अनुसार देश के बजट का साढ़े सात प्रतिशत हिस्सा मूल निवासी आदिवासियों पर खर्च किए जाने का प्रावधान किया गया था। आजादी के बाद से आदिवासी विकास के नाम पर अंधाधुंध बजट खर्च किया जाता रहा। कांग्रेस की सरकारों ने इस बजट का दोहन भी किया और आदिवासियों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल भी किया। संविधान की अनुसूची 29 में दर्ज आदिवासियों को विशेष दर्जा दिया गया है जिसके चलते इस वर्ग को आरक्षण का लाभ दिया जाता है। मांझी उपजाति भी इसी कोटे से आरक्षण का लाभ लेती रही है। पूर्ववर्ती दिग्विजय सिंह की कांग्रेसी सरकार ने पहली बार आदिवासी वोट बैंक को कमजोर करने के लिए कीर, भोई, निषाद, मल्लाह, उपजातियों को इस सूची से हटाकर पिछड़ा वर्ग की अनुसूची 12 में निकाल बाहर किया था। इसके लिए बाकायदा प्यारेलाल कंवर समिति बनाई गई। उसकी सिफारिशों को कैबिनेट से पारित करवाया गया। इसे विधानसभा में भी भेजा गया और 147 विधायकों की सहमति से पारित करवाया गया। बाद में जब उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तब इसे अनुसूचित जन जाति की पात्रता से बाहर करने का आदेश जारी भी हो गया। दरअसल दिग्विजय सिंह के करीबी तनवंत सिंह कीर खुद पंधाना की रिजर्व सीट से चुनकर आते थे। उनका मानना था कि फूट डालने की इस नीति से आदिवासी मुख्यमंत्री का दबाव हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। इसके लिए प्यारेलाल कंवर समिति ने पूजन विधि को आधार बनाया। उसका कहना था कि मांझी समाज हिंदू देवी देवताओं को पूजते हैं इसलिए इन्हें आदिवासी होने का लाभ नहीं दिया जा सकता। यही वजह है कि आरक्षण और बेरोजगारी के मुद्दे पर इस बार आदिवासी मुख्यमंत्री का वादा परवान चढ़ रहा है। हाल ही में हुई आदिवासियों की रैलियों ने भी जनता के स्वरों को अभिव्यक्ति दी है।

राष्ट्रीय महान गणतंत्र पार्टी ने पिछले कुछ उपचुनावों में अपने मह्त्व को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया था। मुंगावली में चुनाव प्रभारी अरविंद भदौरिया को मांझी वोट के बिफरने की सूचना थी। इसके बावजूद उन्होंने अपने क्षत्रिय नेटवर्क पर भरोसा किया। नतीजतन भाजपा का प्रत्याशी वहां मात्र दो हजार मतों के अंतर से पराजित हो गया। जबकि राष्ट्रीय महान गणतंत्र पार्टी को 5400 मत प्राप्त हुए थे जो निश्चित रूप से भाजपा के मतों में सेंध थी। कोलारस में महान गणतंत्र पार्टी की चुनौती को कांग्रेस के रणनीतिकारों ने समय रहते पहचान लिया और खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने प्रयास करके मांझियों के टिकिट पर चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी को अपने पक्ष में चुनाव से बाहर करवा लिया। चित्रकूट में कांग्रेस के नीलांशु चतुर्वेदी ने राष्ट्रीय महान गणतंत्र पार्टी के प्रत्याशी प्रमोद कुशवाहा का पर्चा रद्द करवा लिया और अपनी जीत सुनिश्चित कर ली। इस बार आदिवासियों के नेता बनकर उभरे डाक्टर हीरालाल अलावा ने दिग्गी के षड़यंत्र को विफल करने के लिए निषादों से हाथ मिला लिया है। वे उन्हें अनुसूचित जन जाति में शामिल कराने का वादा कर रहे हैं। इसके एवज में वे उन तीस सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने की तैयारी कर रहे हैं जिन पर आदिवासी वोट निर्णायक रहते हैं। अभी उनमें से चौबीस सीटें भाजपा ने जीत रखीं हैं। आठ कांग्रेस और एक निर्दलीय के पास में है।

आदिवासी सीटों को कांग्रेस से छीनने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े वनवासी परिषद और उसके अनुषांगिक संगठनों ने बड़ी भूमिका निभाई थी। उन्होंने बरसों तक वनवासियों के कल्याण की गतिविधियां चलाईं।नतीजतन पूरा आदिवासी इलाका भगवा हो गया था। भाजपा के आदिवासी नेता नेतृत्व की अभिलाषाओं पर खरे नहीं उतरे और भाजपा ने आदिवासियों के लिए चलते आ रहे विशेष दर्जे को लगभग सामान्य में बदल दिया। इसके चलते आदिवासियों के बीच नेतृत्व को लेकर खालीपन सा महसूस किया जाने लगा था। इस बीच उन्हें डाक्टर हीरालाल अलावा के रूप में एक युवा नेतृत्व मिल गया जिसने दोनों बड़े राजनीतिक समीकरणों के बीच सेंध लगाने की तैयारी कर ली है। उनके संगठन जायस के आव्हान पर मंदसौर, मनावर, बड़वाह, बड़वानी, राजपुर, कसरावद, खरगोन, खलगांव जैसे आदिवासी बहुल इलाकों में दर्जन भर सभाएं आयोजित की गईं जिसमें आदिवासियों ने बढ़ चढ़कर भागीदारी दर्ज कराई है।

आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग इस कदर सिर चढ़कर बोल रही है कि भाजपा की रंजना बघेल ने भी बयान जारी करके अपने संगठन को चेताया कि लगभग बीस सीटों का गणित बिगड़ सकता है। वे मनावर से विधायक हैं और उन्हें ये मुद्दा सत्ता में आगे बढ़ने की सीढ़ी नजर आ रहा है। कांग्रेस के बाला बच्चन ने भी आदिवासियों के लामबंद होते जाने को खतरे की घंटी बताया है। कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ विभिन्न राजनैतिक दलों को भाजपा के विरुद्ध लामबंद करने की रणनीति पर चल रहे हैं इसलिए उन्हें ये हलचल गंभीर नजर नहीं आ रही है। जबकि उनके सहयोगी के रूप में उभर रहे दलित नेताओं की जमीन खिसक चुकी है और वे कांग्रेस के लिए अधिक उपयोगी साबित नहीं हो पा रहे हैं। उनमें बसपा की मायावती के साथ फूल सिंह बरैया जैसे नेता भी शामिल हैं।

आदिवासियों के बीच नाराजगी की वजह कई ऐतिहासिक घटनाओं के कारण उपजी है। उनका कहना है कि जब शिवभानु सिंह सोलंकी का मुख्यमंत्री बनना तय था तब अर्जुनसिंह ने दिल्ली दरबार में कोर्निश बजाकर सत्ता का अपहरण कर लिया। इसके बाद शिवभानु सिंह सोलंकी को सर्किट हाऊस में बंद करके उनके गुर्गों ने भारी मारपीट की। जब इसी पिटाई कांड के बाद सोलंकी ने अस्पताल में मिलने गए अर्जुनसिंह को उनके बेटे का ध्यान रखने का निवेदन किया तो उन्होंने बेटे अरविंद नेताम को सांसद के रूप में सत्ता में शामिल होने का अवसर दिया। इसके बाद उनका भी पत्ता काट दिया गया। भाजपा के आदिवासी नेता फग्गन सिंह कुलस्ते सांसद निधि के उपयोग तक ही सिमटकर रह गए। आदिवासियों की जमीनों पर सवर्णों के कब्जे हो गए और जंगलों, खनिजों के दोहन में भी आदिवासियों को उनका हक कथित तौर पर नहीं दिया गया।

अब जबकि चुनावी दंगल में तेजी आती जा रही है तब आरक्षण, बेरोजगारी और आदिवासी मुख्यमंत्री की आवाज को जनसमर्थन बढ़ता जा रहा है। जाहिर है कि ये आवाज भाजपा के सत्ता संधान अभियान में सेंध लगाने का सबब बन सकती है। कांग्रेस को अपने अवसान की चिंता सता रही है। ऐसे में देखना होगा कि दोनों राजनीतिक दलों के दिग्गज क्या फार्मूला निकालते हैं जो मध्यप्रदेश को कर्नाटक बनने से रोक सके। (प्रेस सूचना केन्द्र)

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