निजीकरण न किया तो फिर पूंजी खा जाएंगे बैंक

बैंक इस समय चारों तरफ से घिरे हुए हैं। देश की अर्थव्यवस्था का इंजन सेवा क्षेत्र हो गया है जिसे लोन की जरूरत कम है। बड़े उद्योग सीधे बॉड के माध्यम से पूंजी उठा रहे हैं
डॉ. भरत झुनझुनवाला

बैंक इस समय चारों तरफ से घिरे हुए हैं। देश की अर्थव्यवस्था का इंजन सेवा क्षेत्र हो गया है जिसे लोन की जरूरत कम है। बड़े उद्योग सीधे बॉड के माध्यम से पूंजी उठा रहे हैं। छोटे उद्योग पस्त है और इनकी लोन लेने की क्षमता ही नहीं रह गई है।

विकास दर में गिरावट आने से खपत के लिए कम ही लोन दिए जा रहे हैं। ऊपर से सार्वजनिक बैंकों में कुप्रबंधन एवं भ्रष्टाचार व्याप्त है। इस स्थिति में सरकार को दो कदम उठाने चाहिए। छोटी मैनुफैक्चरिंग एवं सेवा क्षेत्र को ईकाइयों को संरक्षण देना चाहिए।

मेक इन इंडिया को छोटे उद्योगों की तरफ मोडऩा चाहिए। साथ-साथ सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण कर देना चाहिए। इनका डूबना निश्चित है। डूबे इसके पहले इनकी बिक्री कर देना चाहिए जैसे चतुर दुकानदार एक्सपायरी के पहले दवा को बेच देता है।

सर्वविदित है कि सरकारी बैंकों की हालत खस्ता है। इन्हें पुनजीर्वित करने को सरकार छोटे सार्वजनिक बैंकों का बड़े सार्वजनिक बैंकों के साथ विलय करने पर विचार कर रही है। बड़े बैंकों की कार्यकुशलता अच्छी होने से इनके द्वारा छोटे बैंकों को पुनजीर्वित किया जा सकता है। लेकिन बड़े बैंकों के सामने स्वयं खतरा मंडरा रहा है। वास्तव में देश के बैंकिंग सेक्टर का मूल चरित्र ही बदलता जा रहा है।

इकानॉमिक ग्रोथ में अब क्रेडिट की भूमिका ही सिकुड़ती जा रही है। वर्ष 2015 में हमारे सम्पूर्ण बैंकिंग सेक्टर द्वारा दिए गए लोन में 10.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। वर्ष 2016 में यह वृद्धि घट कर 5.1 प्रतिशत रह गई है। यानी कुल लोन बढ़ रहे हैं परन्तु बढ़त की गति कम होती जा रही है जैसे कार का एक्सलरेटर हल्का होता जा रहा है। इस स्थिति में स्वाभाविक है कि कमजोर बैंक दबाव में शीघ्र आएंगे जैसे अकाल के समय छोटे किसान पहले प्रभावित होते हैं।

लोन की मांग कम होने का प्रमुख कारण है कि अर्थव्यवस्था का इंजन सेवा क्षेत्र हो गया है। इस क्षेत्र में साफ्टवेयर, होटल, ट्रांसपोर्ट, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सेवाएं आती हैं जिनमें किसी भातैक माल जैसे कपड़े अथवा सब्जी का उत्पादन नहीं होता है।

बीते 5 वर्षों में सेवा क्षेत्र में 51 प्रतिशत की ग्रोथ हुई जबकि मैन्युफैक्चरिंग में 32 प्रतिशत की। ऐतिहासिक तौर पर देखा जाए तो सेवा क्षेत्र का दबदबा बढ़ता जा रहा है। सेवाओं के व्यापार में लोन की जरूरत कम पड़ती है।

जैसे साफ्टवेयर के निर्माण में 25,000 रुपए के एक कम्प्यूटर से वर्ष में 10-20 लाख रुपए के साफ्टवेयर का उत्पादन किया जा सकता है। अथवा एक कम्प्यूटर से वर्ष में लगभग 3-4 लाख रुपए के आनलाइन ट्यूशन दिए जा सकते हैं।

तुलना में मैनुफैक्चरिंग में जमीन, फैक्ट्री शेड तथा मशीन में भारी निवेश की जरूरत पड़ती है। इसलिए मैनुफैक्चरिंग सेक्टर के फिसलने के साथ-साथ लोन की मांग कम होती जा रही है। हमारी बैंकिंग व्यवस्था के दबाव में आने का यह प्रमुख कारण दिखता है।

दूसरा कारण बॉड मार्केट का विस्तार है कंपनियों द्वारा वर्तमान में भारी मात्रा में बॉड जारी किए जा रहे हैं। बॉड जारी करने को कंपनी द्वारा अपनी प्रापर्टी को रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी में गिरवी रखा जाता है।

गिरवी रखी गई प्रापर्टी के सामने कंपनी द्वारा फुटकर निवेशकों को बॉड जारी किए जाते हैं। किसी विशेष स्थिति में कंपनी अगर डूब गई तो सरकार द्वारा गिरवी प्रापर्टी की नीलामी करके निवेशक को उनकी रकम लौटाने की व्यवस्था रहती है। इससे खुदरा निवेशक सुरक्षित महसूस करते हैं और बॉड खरीदते हैं। इस प्रक्रिया में कंपनी द्वारा ब्याज की सम्पूर्ण रकम निवेशक को मिलती है।

बैंकों के माध्यम से लोन लेने में भी मूल रूप से यही प्रक्रिया अपनाई जाती है। कंपनी द्वारा अपनी प्रापर्टी को बैंक के पास गिरवी रख दिया जाता है। इस प्रापर्टी के सामने बैंक लोन देता है। कंपनी को लोन देने के लिए बैंक द्वारा खुदरा निवेशकों से फिक्स डिपाजिट में रकम ली जाती है। लोन देने वाले खुदरा निवेशक तथा लोन लेने वाली कंपनी के बीच बैंक बिचौलिए की भूमिका निभाता है।

जैसे बैंक द्वारा 7 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से खुदरा निवेशक से रकम ली जाती है और 12 प्रतिशत की दर से उसी रकम से कंपनी को लोन दिया जाता है। बॉड तथा बैंक दोनों ही तरह से खुदरा निवेशक द्वारा ही निवेश की गई रकम को कंपनी तक पहुंचाया जाता है। बीते समय में बॉड के मार्केट का विकास हो जाने के कारण कंपनियां बॉड के माध्यम से सीधे खुदरा निवेशक से लोन ज्यादा ले रही हैं।

कंपनी 10 प्रतिशत की दर से बॉड जारी करती है तो खुदरा निवेशक को 10 प्रतिशत का ब्याज मिलता है। बैंक को कमीशन नहीं मिलता है। बैंकों का धंधा मंद पड़ गया है। बीते 4 वर्षों में कुल लोन में बैंकों का हिस्सा 45 प्रतिशत से घट कर 22 प्रतिशत रह गया है जबकि बॉड का हिस्सा 22 प्रतिशत से बढ़कर 33 प्रतिशत हो गया है। वर्तमान समय में बैंकों के खस्ता हाल होने का यह दूसरा कारण है।

हमारे सार्वजनिक बैंकों की मूल समस्या प्रबन्धन आदि की नहीं है। मूलरूप से बैंकों की जमीन ही खिसक गई है। सार्वजनिक बैंकों में इसके अतिरिक्त कुप्रबन्धन एवं भ्रष्टाचार की भी समस्या है। छोटे सार्वजनिक बैंकों का बड़े सार्वजनिक बैंकों के विलय से छोटे बैंकों में व्याप्त कुप्रबन्धन की समस्या का कुछ निदान हो सकता है। परन्तु बैंकों की जमीन के खिसकने से उत्पन्न मूल समस्या का समाधान विलय से हासिल नहीं हो सकता है।

बॉड जारी करने की प्रक्रिया पेचीदी होती है। इसे बड़ी कंपनियों द्वारा ही अपनाया जा सकता है। खुदरा निवेशकों में भरोसा बनाने के लिए भारी एडवर्टाइज़मेंट देने होते हैं एवं रोड शो करने होते हैं। इसलिए छोटी कंपनियों को बैंकों पर ही निर्भर रहना होता है। लेकिन बीते समय में सरकार द्वारा लागू की गई नीतियों ने छोटे उद्योगों को पस्त कर दिया है।

सरकार का प्रयास है कि मेक इन इंडिया जैसी योजनाओं के तहत बड़े, आधुनिक एवं आटोमेटिक मशीनों का उपयोग करने वाले उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए। फलस्वरूप छोटे उद्योगों को मिल रहा संरक्षण कम हो गया है।

इसके बाद नोटबंदी के कारण इनके ग्राहक लुप्त हो गए। अब जीएसटी की जटिल व्यवस्था इनके लिए अभिशाप बन गई है। इस कारण छोटे उद्योगों द्वारा लोन कम ही लिए जा रहे हैं। बड़े उद्योग बॉड मार्केट के चलते बैंकों के हाथ से फिसल गए हैं।

छोटे उद्योग स्वयं मृतप्राय हो रहे हैं। अत: सेवा एवं मैनुफैक्चरिंग दोनों क्षेत्रों में बैंकों का धंधा कमजोर पड़ रहा है। बचता है खपत का क्षेत्र जैसे कार अथवा मकान के लिए दिए गए लोन। यह क्षेत्र अभी भी जीवित हैं। परन्तु देश की आर्थिक विकास दर में गिरावट आने के कारण आम आदमी की क्रय शक्ति घट रही है और यह क्षेत्र भी दबाव में है।

बैंक इस समय चारों तरफ से घिरे हुए हैं। देश की अर्थव्यवस्था का इंजन सेवा क्षेत्र हो गया है जिसे लोन की जरूरत कम है। बड़े उद्योग सीधे बॉड के माध्यम से पूंजी उठा रहे हैं। छोटे उद्योग पस्त है और इनकी लोन लेने की क्षमता ही नहीं रह गई है।

विकास दर में गिरावट आने से खपत के लिए कम ही लोन दिए जा रहे हैं। ऊपर से सार्वजनिक बैंकों में कुप्रबंधन एवं भ्रष्टाचार व्याप्त है। इस स्थिति में सरकार को दो कदम उठाने चाहिए। छोटी मैनुफैक्चरिंग एवं सेवा क्षेत्र को ईकाइयों को संरक्षण देना चाहिए।

मेक इन इंडिया को छोटे उद्योगों की तरफ मोडऩा चाहिए। साथ-साथ सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण कर देना चाहिए। इनका डूबना निश्चित है। डूबे इसके पहले इनकी बिक्री कर देना चाहिए जैसे चतुर दुकानदार एक्सपायरी के पहले दवा को बेच देता है।

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