पहला स्वतंत्रता संग्राम और भोपाल – सीहोर की शहादत

राजेश बेन

आज़ादी के अमृत महोत्सव के इस वर्ष में हम याद कर रहे हैं अपने उन क्रांतिकारियों को जिन्होंने भारत माता को आज़ाद करवाने के लिए पहले-पहल क्रांति की ज्वाला प्रज्जवलित की थी। भोपाल से शुरू हुआ आज़ादी के इस पहले संग्राम ने अंग्रेजों के शासन को जोरदार टक्कर दी। मातृभूमि को स्वतंत्र कराने वाले इन वीरों को देश कभी भी भूल नहीं सकेगा।

अब से 164 साल पहले यानि 15 जनवरी 1858 को शाम 6 बजे कर्नल हयूरोज ने 149 क्रांतिकारियों को सीहोर कॉन्टिन्जेण्ट में एक लाइन में खड़ा कर गोली मार दी। भोपाल गजेटियर का संदर्भ 149 क्रांतिकारियों को लम्बी लाइन में खड़ा कर गोली मारने की पुष्टिकर्ता है तो सीहोर में जनश्रृति और एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र की रिपोर्ट में इस संख्या को 356 बताया गया है।

भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की कहानी भी रोंगटे खड़े करने वाली है और आज की तथा आने वाली पीढ़ी के लिये प्रेरणादायी है। 

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की कहानी कुछ ऐसी है कि अप्रैल, 1857 में भोपाल बेगम को पत्थर पर लिखकर छपाई गई क्रांति कारियों की (लिथोग्राफ) एक उदघोषणा प्राप्त हुई, जिसमें अंग्रेजों को निकाल बाहर करने और नष्ट करने का आव्हान किया गया था। बेगम ने इस घोषणा में कहीं गई बातें ब्रिटिश एजेन्ट को सूचित कर दी और इस प्रकार अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादारी का सबूत दे दिया। 

जब यह महान क्रांति मई, 1857 में भारत को आन्दोलित करने वाली थी उस समय भोपाल कॉन्टिन्जेन्ट सीहोर मुख्यालय में 60 तोपची,  206 घुड़सवार सैनिक तथा 600 पैदल सैनिक थे,  अर्थात् कुल मिलाकर 866 सैनिक थे, जिनमें सभी भारतीय थे। इस कॉन्टिन्जेन्ट के साथ केवल 6 अंग्रेज थे। इस कॉन्टिन्जेन्ट की एक टुकड़ी बेरछा में तैनात की गई किन्तु वहां कमान संभालने वाला एक भी अंग्रेज नहीं था।

 मेरठ तथा दिल्ली में हुई घटनाओं का समाचार सबसे पहले 13 मई, 1857 को इन्दौर में प्राप्त हुआ। परिणामस्वरूप, विद्रोह के अकस्मात् फैलने की आशंका से कर्नल ड्यूरेन्ड ने 14 मई को सीहोर को भोपाल कान्टिजेन्ट की 2 तोपें,  पैदल सैनिकों की 2 कंपनियां तथा घुड़सवारों के दो सैन्य दल भेजने के लिये अत्यावश्यक संदेश भेजा।

20 मई को इन्दौर पहुँचने के लिये सैन्य दल भेज दिया गया और भोपाल क्षेत्र पर आसन्न संकट की छाया छाई रही। पड़ोस में और भारत के अन्य भागों में जो कुछ भी हो रहा था, उससे भोपाल रियासत की प्रजा प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकी। मध्य भारत के लिये गर्वनर जनरल के एजेन्ट राबर्ट हैमिल्टन ने भारत सरकार के सेकेट्ररी को लिखा कि सामान्यत: दिल्ली, लखनऊ तथा रोहिलखंड में जो कुछ भी हो रहा था, उससे भोपाल के अनेक निवासी प्रभावित थे। भोपाल के मुसलमान लोग मुगल सम्राट बहादुर शाह से सहानुभूति रखते थे और हिन्दु लोग नाना साहब पेशवा से सहानुभूति रखते थे। “

कैप्टन हुचिन्सन ने यह देखा कि भोपाल के अभिजात लोगों में ईसाई विरोधी तथा अंग्रेज विरोधी भावना बहुत अधिक थी। नियाज मुहम्मद खान, फौजदार मुहम्मद खा, बदी मुहम्मद खान, त्रिभुवन लाल जैसे महतवपूर्ण नेता तथा अनेक अन्य लोग उस समय वर्तमान व्यवस्था से असंतुष्ट थे। वे सिकन्दर बेगम के शासन के इसलिये विरोधी थे क्योंकि वह कम्पनी सरकार के अंगूठे नीचे थी। जब अवसर आया तो ऐसे व्यक्तियों ने विद्रोह में प्रमुखता से भाग लिया। “

इस बीच 1 जुलाई, 1857 को इन्दौर के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। उन्हें दंडित करने के लिये भोपाल कॉन्टिन्जेन्ट कैवलरी के लगभग पचहत्तर सैनिकों का एक दल बुलाया गया । किन्तु कमांडर ट्रैवर्स को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पूरे दल में से केवल 6 सैनिकों ने उसकी आज्ञा मानी। अन्तत: अंग्रेजों को इंदौर छोड़कर जाना पड़ा। कर्नल डयूरेन्उ और उस दल के लोग, जिसमें 17 अधिकारी, 8 महिलायें और 2 बच्चे शामिल थे, भोपाल कॉन्टिनेन्ट के कुछ सैनिकों की रक्षा में उसी दिन सीहोर चले गये। वे लोग 3 जुलाई को आष्टा और 4 जुलाई को सीहोर चले गये। सिकंदर बेगम ने उन्हें आश्रय और संरक्षण दिया। सिकंदर बेगम को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। उसकी माँ तथा मामाओं ने उससे आग्रह किया कि वह अंग्रेजों के विरूद्ध धर्मयुद्ध घोषित कर दे। शहर के मौलवी भी जिहाद का उपदेश दे रहे थे और उसके सैनिकों ने भी उसे आतंकित किया। किन्तु सिकन्दर बगेम नहीं मानी। कर्नल ड्यूरेन्ड तथा उसके दल के साथ वह होशंगाबाद गईं, जहां वे 8 जुलाई को सुरक्षित पहुँच गये।

9 जुलाई को सीहोर के पॉलिटिकल एजेन्ट मेजर रिचर्डस ने 20 यूरोपियों के साथ सीहोर छोड़ दिया। सीहोर छोड़ते समय उसने स्टेशन का प्रभार कुछ समय के लिये सिकंदर बेगम के अधिकारियों को सौंप दिया, किन्तु सभी व्यावहारिक प्रयोजनों उसका प्राधिकार कुछ भी नहीं था। कॉन्टिन्जेण्ट के सैनिकों ने सीहोर कैन्टोनमेण्ट पर कब्जा कर लिया। उन्होंने अंग्रेजों के बंगलों, डाकघर और सीहोर चर्च को लूट लिया। इस अवसर पर विद्रोही नेता शुजात खान पिंडारी ने मुख्य अधिकारी को मार डाला तथा बेरछा स्थित कम्पनी के खजाने को लूट लिया। जब सिकंदर बेगम ने सीहोर के सैनिकों को शुजात खान के विरूद्ध कार्रवाई करने का आदेश दिया तो उन्होंने आदेश मानने से इंकार कर दिया। इसके पहले के बेगम बदला लेतीं, सीहोर कैवलरी के रिसालदार ने 6 अगस्त, 1857 को खुले तौर पर विद्रोह की घोषणा कर दी। सैनिकों ने सीहोर कैन्टोंमेण्ट की 9 पौंडर तोपों तथा एक 24 पौंडर हो‍विट्जर को अपने कब्जे में ले लिया तथा उन्हें कैवलरी लाइन्स में रख दिया। बेगम ने सीहोर के सैनिकों के विद्रोह को कुचलने के लिये भोपाल से एक सैन्य बल भेजा। भोपाल के सैनिक भी उतने ही क्रांतिकारी थे, जितने सीहोर के सैनिक यद्यापि उन्होंने बेगम के पक्ष में सीहोर के खजाने को बचा लिया। तथापि सीहोर के अधिकांश क्रांतिकारी जिन्हें छोड़ दिया गया था, अन्तत: कानपुर जा पहुँचे और उन्होंने नाना साहब के झंडे के नीचे वीरतापूर्वक युद्ध किया।

जुलाई, 1857 से लेकर नवंबर, 1857 तक सीहोर तथा उसके आसपास के क्षेत्र में इन्हीं क्रांतिकारियों का वर्चस्व रहा। विद्रोह के रोकने के लिये बेगम ने एक मैत्री विभाग की स्थापना की। उन्होंने सभी ओर से भागकर आये अंग्रेजों को सहायता दी और उन्हें सुरक्षा दी। इतना ही नहीं बल्कि अपने राज्य क्षेत्रों के बाहर भी उत्तर में काल्पी तक अनाज और चारा भेजकर और सागर तथा बुन्देलखण्ड में शान्ति स्थापित करने के लिये सैनिक टुकडियां भेजकर अंग्रेजों की भरसक सहायता की। अंबापानी के जागीरदार फाजिल मुहम्मद खान तथा आदिल मुहम्मद खान पर जिन्होंने विद्रोह कर दिया था, बेगम द्वारा तुरन्त हमला किया गया और उनकी संपदायें छीन ली गईं जबकि राहतगढ़ के हठी किलेदार को, जिसने अंग्रेजों को प्रवेश नहीं करने दिया था, पकड़ लिया गया तथा सूली पर चढ़ा दिया गया। इस बीच वह सीहोर में पुन: शांति स्थापित करने में सफल हो गई और अनेक क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया, जिन्हें बाद में फांसी दे दी गई।

दिसम्बर, 1857 में ह्यूरोज ने विद्रोह को कुचलने के लिये सेना की कमान सम्हाली, 8 जनवरी को इन्दौर से रवाना होकर वह 15 जनवरी, 1858 को सीहोर पहुँचा। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सीहोर में अनेक क्रांतिकारी पहले से बन्द थे और कोर्ट मार्शल की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनमें से 149 क्रांतिकारियों को न्यायालयों ने दोषी पाया तथा उन्हें गोली मार देने की सजा सुनाई गई। इस दण्डादेश के क्रियान्वयन का कार्य तीसरे यूरोपियन सैनिकों को सौंपा गया। सूर्यास्त के समय कैदियों को बाहर लाया गया और उन्हें एक लंबी पंक्ति में खड़ा कियागया और संकेत देते ही उन्हें गोली मार दी गई लेकिन उनमें से एक व्यक्ति बच निकला।

जब मृत्युदंड देने की कार्रवाई पूरी हो गई तो अंधेरा हो गया और 15 जनवरी की उस लंबी, भयानक रात में तीसरे यूरोपियन बिग्रेड का एक अधिकारी और सैनिक क्रांतिकारियों के शवों की पंक्ति पर पहरा देते रहे और बिग्रेड 16 जनवरी को सुबह 3 बजे राहतगढ़ की ओर बढ़ गई।

हमारे पहले क्रांतिकारियों को नमन

(लेखक संभागीय जनसम्पर्क कार्यालय में उप संचालक हैं।)

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