सात दशकों बाद साकार हुआ भोपाल विलीनीकरण का स्वप्न


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भाजपा सरकार ने प्रधानमंत्री आवास योजना के माध्यम से देश की तस्वीर बदलने का जो अभियान चलाया है उससे एक नया भारत खड़ा होने लगा है। दंभ से भरी नेहरू सरकार ने आजादी के बाद देश में बड़े कारखाने, बड़े बांध और बड़े वित्तीय संस्थान तैयार करने की नीति अपनाई थी। उस वक्त समझा जाता था कि बड़े प्रतिष्ठानों से रिसकर पूंजी का प्रवाह देश के निचले तबके तक पहुंचेगा। धीमी रफ्तार के इस विकास को गति देने के लिए श्रीमती इंदिरागांधी ने सार्वजनिक उपक्रमों और सरकारी संस्थानों के माध्यम से पंचवर्षीय योजनाएं लागू कीं। जब ये नीति मुंह के बल गिरी और भारी भ्रष्टाचार ने जनता का जीवन दूभर कर दिया तो श्रीमती गांधी के इंस्पेक्टर राज ने छापेमारी करके सुशासन लागू करने का अभियान चलाया। ये भी बुरी तरह असफल हुआ और देश लगभग पचास साल पीछे सरक गया। प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव की सरकार ने नई आर्थिक नीतियां लागू करके नेहरू गांधी परिवार की गलतियों को सुधारने का क्रांतिकारी फैसला लिया। नतीजे अच्छे आए लेकिन डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार उन आर्थिक सुधारों को लागू नहीं कर पाई। इसकी वजह कांग्रेसियों का वो मानस था जो कल्याणकारी राज्य की ठगनीति से इतर कुछ और नहीं देखना चाहता था। अटल बिहारी की सरकार ने देश के गांवों को सड़कों सेजोड़ने का भगीरथ किया। इसके बाद बेरोजगारी की जो तस्वीर सामने आई उसे देखकर सरकारें हिल गईं। मोदी सरकार ने बड़े औद्योगिक घरानों का खजाना भरने के स्थान पर गांव स्तर तक पूंजी का प्रवाह खोलने के कई अभियान चलाए हैं। नए एलईडी मोदी बल्ब से देश को रोशन करने ,गांवों को खुले में शौच से मुक्ति, कचरे वाले को घरों तक पहुंचाने के अभियानों की सफलता के बाद अब प्रधानमंत्री आवास योजना के माध्यम से पूंजी का प्रवाह समाज के अंतिम छोर तक पहुंचाने का चमक्तारिक प्रयास सफल बनाया है।
राज्य सरकारों ने मोदी सरकार के इन अभियानों को अपने अपने अंदाज में लागू किया है। मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार ने लगभग एक लाख हितग्राहियों को प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ देकर शहरों और गांवों में रंग भरने में सफलता पाई है। गांव गांव तक आवास योजना में श्रमिकों को तो काम मिल ही रहा है साथ में लोगों को अपने मकानों को सुविधाजनक बनाने का अवसर भी मिलने लगा है। शिवराज सिंह चौहान सरकार ने इस बदलती तस्वीर को स्थानीय जरूरतों और पहचानों से जोड़कर अभियान की सफलता को नया स्वरूप दिया है। भोपाल की बदलती तस्वीर ने उन अरमानों को साकार किया है जिन्हें विलीनीकरण के बाद से भोपाल के जनमानस ने अपने दिलों में संजोकर रखा था। अंग्रेजों की सरकार ने जब भारत को आजादी देने का मन बनाया तो उसने धर्म के आधार पर फूट के बीज भी बो दिए थे। पाकिस्तान के विभाजन को तत्कालीन शासकों ने न केवल स्वीकार किया बल्कि पाकिस्तान परस्ती की ज़ड़ों में मट्ठा डालने के बजाए उन्हें पालने पोसने की नीति भी अपना ली। पंडित जवाहर लाल नेहरू का ध्वज जिस तरह जिन्ना के सामने झुका रहा उसकी वजह से नेहरू को लगता था कि यदि उन्होंने पाकिस्तान के प्रति प्रेम रखने वाले नवाबों और रिसायतों पर जोर जबर्दस्ती की तो वे विद्रोह भी खडा कर सकते हैं। यही वजह थी कि जब सारा हिंदुस्तान आजादी के गीत गा रहा था तब भोपाल के नवाब खुद को पाकिस्तान के साथ जोड़े जाने की रट लगाए हुए थे। भारत सरकार के पास इस बात की पूरी खबर थी लेकिन सरकार ने वेट एंड वाच की नीति अपनाई। कांग्रेस के नेताओं को कहा गया कि वे स्थानीय शासकों को मनाएं और भारत के साथ रहने के लिए तैयार करें। भौगौलिक तौर पर कुछ रियासतें पश्चिमी पाकिस्तान से दूर भी थीं। इसके बावजूद उन्हें पूर्वी पाकिस्तान की तरह अलग रियासतें बनाकर अपना तख्तो ताज बचाने की उम्मीद थी। कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने विलीनीकरण का आंदोलन चलाया और भारी शहादतें देने के बाद अंततः रानी कमलापति के राज्य को हथियाकर बनाए गए भोपाल को नई पहचान मिल सकी।
तबसे लेकर अब तक लगभग सात दशकों का लंबा अंतराल बीत चुका है जब भोपाल को उसकी पहचान देने का स्वप्न साकार होता नजर आने लगा है। भोपाल की आजादी के वक्त स्थानीय तरुणाई को अपनी नई राह और नई मंजिल बहुत नजदीक नजर आ रही थी। सरकार के भरोसे विकास की जो इबारत कांग्रेस के शासकों ने लिखी उससे ये मंजिल मीलों दूर खिसक गई। भ्रष्टाचार और गरीबी को संरक्षण देने की इस नीति ने अपनी विरोधी भारतीय जनता पार्टी को व्यापारियों की पार्टी के रूप में खूब बदनाम किया। भाजपा के नेताओं को कांग्रेस के इस दुष्प्रचार से इतना डर लगता था कि जब वीरेन्द्र कुमार सखलेचा की सरकार ने अफसरों की लगाम कसी तो उनके विरोधियों ने तरह तरह के आरोप लगाकर उनकी सरकार गिरवा दी। उसके बाद सुंदरलाल पटवा की सरकार अफसरशाही के सामने झुकी सरकार के रूप में सामने आई। दिग्विजय सिंह की भ्रष्ट सरकार को जब जनता ने धक्के मारकर सत्ता से बाहर भेज दिया तबसे भाजपा की सरकारें अफसरशाही के साथ कदमताल करती रहीं हैं। मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों ने देश के सामने नवनिर्माण का वैकल्पिक मार्ग प्रशस्त किया है।
भ्रष्ट सरकारी तंत्र की वजह से जो धनराशि विभिन्न छेदों से भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती थी मौजूदा नीति ने हितग्राही के खाते में सीधे भुगतान पहुंचाकर उस खामी को दूर कर दिया है। आज न तो सरकारी तंत्र और भ्रष्ट राजनेताओं का कमीशनखोरी का नेटवर्क सफल हो पा रहा है और न ही विकास की रफ्तार पर कोई ब्रेक बाकी रहा है। यही वजह है कि भोपाल संभाग और जिलों में हितग्राही मूलक योजनाओं को साकार करना सफल हो पा रहा है। भोपाल के नवाब के हाथों से सत्ता छीनकर जनता के हाथों में देने के बावजूद यहां के लोगों का जीवन रोशन करने का जो लक्ष्य अब तक पूरा नहीं हो पाया उसमें मानों पर लग गए हैं।
वैसे तो विलीनीकरण के स्वप्न को जमीन पर उतारने के लिए अभी कई पायदान बाकी हैं। लगभग पच्चीस हजार घुसपैठियों ने भोपाल के आम नागरिक के संसाधनों पर डाका डाल दिया है। फुटपाथों गलियों में अतिक्रमण हो गया है। गंदी बस्तियों की तादाद बढ़ गई है। वोट बैंक के लिए कांग्रेस के जिन नेताओं ने झुग्गी माफिया खड़ा किया था वे आज अपने इलाकों में प्रधानमंत्री आवास योजना का प्रचार करने में जुटे हुए हैं। इसकी वजह है कि भले ही उन्हें कमीशन नहीं मिल पा रहा है पर उन्हें लगता है कि उनका वोटर कम से कम इस योजना को उनकी मेहनत का फल ही मान ले तो उनका भविष्य सुरक्षित हो सकता है।
शहर का मास्टर प्लान अब तक राजधानी की तस्वीर नहीं बदल पाया है। भीड़ भरे इलाकों में अस्पतालों का निर्माण, बीच सड़कों पर पुरानी कारों की बिक्री के बाजार, गैरेज, और धुलाई ने राजधानी को भिखमंगों का शहर बनाकर रख दिया है। सरकारी दफ्तरों के आसपास लगने वाले सब्जी और कपड़ा बाजारों ने यातायात की व्यवस्था चौपट कर रखी है। अवैध निर्माणों की कोई मानीटरिंग नहीं है। यही वजह है कि चौड़ी सड़कें भी संकरी गलियों में तब्दील हो गईँ हैं। कभी बुलडोजर मंत्री के रूप में बाबूलाल गौर ने शहर की इस जरूरत को रेखांकित किया था। बाद की भाजपा सरकारों ने शहर में कई मूलभूत बदलाव किए हैं। फ्लाईओवर और चौराहों के चौड़ीकरण ने हालांकि राहत दी है लेकिन बढ़ते चार पहिया वाहनों की संख्या ने उन सारे सुधारों की हवा निकाल दी है। सार्वजनिक परिवहन का कोई विश्वसनीय और समय का पाबंद नेटवर्क अब तक नहीं तैयार हो सका है। धर्मस्थलों के नाम पर किए जाने वाले अतिक्रमणों ने शहर की खूबसूरती को लील लिया है।यही नहीं धर्म के नाम पर बढ़ रहीं दूकानों ने जनमानस को भी विकास की मुख्यधारा से परे धकेल दिया है।
नवाबकालीन भवनों की हालत जर्जर हो चुकी है और वे जनता की आज की जरूरतों के लिए भी उपयोगी नहीं रह गए हैं। आज कंप्यूटरीकरण के दौर में न तो उन भवनों में स्थान बाकी है न ही बिजली हवा पानी की मूलभूत जरूरतें पूरी हो पा रहीं हैं। दिग्विजय सिंह सरकार ने पुराने भवनों की मरम्मत कराकर कथित विरासतों को बचाने का पाखंड जरूर किया था लेकिन जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी ये इमारतें खंडहर होती जा रहीं है। अब समय आ गया है कि शहर का अंधाधुंध विस्तार रोकने के लिए पुर्नघनत्वीकरण योजना का सख्ती से पालन किया जाए। इन जर्जर इमारतों को धराशायी करके आज की जरूरतों के अनुसार भवनों का निर्माण कराया जाए। जो लोग विरासतों को सहेजे रखने का शोर मचाकर जनजीवन को दूभर बनाने का षड़यंत्र रच रहे हैं उनके लिए पुराने इतिहास को किताबों में संजोकर रखा जा सकता है।
शहरों को विकास का इंजन बनाने के लिए नियोजकों ने ग्रीन और ब्लू मास्टर प्लान तैयार किय़े थे। वृक्षारोपण को सफल बनाने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को स्वयं एक वृक्ष रोज लगाने के लिए आगे आना पड़ा है। ताल तलैयों की नगरी मानी जाने वाली राजधानी के अधिकांश जलग्रहण क्षेत्र दूषित पड़े हुए हैं। भोपाल तालाब की सफाई के लिए जो भोज वैटलैंड परियोजना चलाई गई थी उसने आम जनता पर कर्ज का पहाड़ तो खड़ा कर दिया लेकिन भोपाल तालाब की नई तस्वीर आज भी अधूरी है। तालाब का पानी सेप्टिक टैंक से भी ज्यादा गंदा बना हुआ है। उसमें आक्सीजन का स्तर नहीं बढ़ पाया है। सरकार और शासन को तय करना होगा कि आखिर वह आम नागरिकों को सम्मान जनक जीवन का माहौल कब तक मुहैया करा पाएगा।

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