विकास का झूठ और कर्ज का पहाड़

सरयूसुत मिश्र

सरकारों द्वारा लिए जाने वाले कर्ज और विकास पर पक्ष विपक्ष के बीच बहस और बयानबाजी अक्सर होती रहती है| जहां सत्ता पक्ष का तर्क होता है कि ऋण लेकर प्रदेश का विकास किया गया है, वहीं विपक्ष आरोप लगाता है कि सरकार द्वारा कर्ज लेकर घी  पीने का काम किया जा रहा है|
जैसे ही सत्ता और विपक्ष का स्थान बदलता है वैसे ही वक्तव्य भी बदल जाते हैं| इसकी वास्तविकता क्या है यह हमेशा राजनीतिक बयानों के बीच छिपा रहता है|
वित्तीय आंकड़े और बजटीय भाषा कुछ इस तरह की होती है जो आम समझ के बाहर होती है| विशेषज्ञों के लिए राज्यों का कर्ज कोई महत्वपूर्ण विषय नहीं होता इसलिए उनकी आंखों से भी यह ओझल ही रहता है|
कर्ज और विकास की सच्चाई सरकारें बताना नहीं चाहती|
मध्यप्रदेश विधानसभा में 21 दिसंबर 2021 को एक प्रश्न में यह पूछा गया था कि सरकार द्वारा लिए गए ऋण से कौन-कौन से विकास कार्य कराए गए हैं?
सरकार ने उत्तर में यह बताया कि कर्ज किसी योजना के लिए नहीं लिया जाता| इसलिए इससे कराए गए कार्यों की जानकारी नहीं दी जा सकती|
विकास के लिए  कर्ज लिया जाना आवश्यक होता है| लेकिन आम लोगों को जानने का हक है कि  जो कर्ज लिया गया है उससे कौन-कौन से विकास कार्य कराए गये| यह सही है कि किसी योजना के लिए सरकार द्वारा कर्ज नहीं लिया जाता, सरकार तो अपने बजट के अंतर्गत विकास कार्यों के लिए धनराशि की कमी को पूरा करने के लिए लोन लेती है| वित्त विभाग के लिए यह कठिन नहीं है कि वह साफ-साफ बताए कि जो भी ऋण राज्य द्वारा लिया गया है उसके अंतर्गत मुख्य रूप से कौन-कौन से विकास के कार्य कराए गए हैं| यह समझ के बाहर है कि यह जानकारी सरकारें छुपाती क्यों है|
मध्य प्रदेश सरकार पर 31 मार्च की स्थिति में 2 लाख 53 हजार करोड़ का कर्ज है|  इसके बाद  नवंबर 21 तक 14000 करोड का कर्ज और लिया गया है, यानि नवम्बर 2021 की स्थिति में कर्ज 267000 करोड हो चुका है|  पिछले साल लिए गए ऋण की प्रवृत्तियों के अनुसार, यदि लोन लिया जाता है तो चालू वित्तीय वर्ष में यह आंकड़ा तीन लाख करोड़ के ऊपर पहुंचने की संभावना है| 
वर्ष 2003 में मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार के बाद उमा भारती के नेतृत्व में सरकार बनी थी तब सरकार द्वारा  राज्य की आर्थिक स्थिति पर एक श्वेत पत्र जारी किया गया था| इसके अनुसार मध्य प्रदेश गठन के बाद 2003 तक 33 हजार करोड़ का कर्ज था जो 20 सालों में बढ़कर 3 लाख करोड़ पंहुच रहा है| यानी 2003 के बाद सरकार द्वारा लिए गए लोन में से 33000 करोड रुपए घटा देने पर 18 सालों में 2 लाख 34 हज़ार करोड़ का कर्ज मध्य प्रदेश सरकार द्वारा लिया गया है|
इनको अगर माह अनुसार बांटा जाए तो हर महीने 1083 करोड़ का कर्ज सरकार ने लिया है|
विकास के लिए कर्ज जरूरी है इसलिए यह देखना भी जरूरी है कि जो भी कर्ज लिया गया है उसका क्या सदुपयोग विकास (पूंजीगत व्यय) में किया गया है?
वैसे तो सरकार की आय और व्यय में भी पूंजीगत व्यय के लिए राशि दी जाना चाहिए| लेकिन अगर उसको छोड़ भी दें और केवल  कर्ज को ही विकास के लिए माना जाए तब भी आंकड़े ऐसा बताते हैं कि कर्ज की पूरी राशि शायद  पूंजीगत व्यय में खर्च नहीं की जाती है|
पूंजीगत व्यय के अंतर्गत पुल पुलिया सड़क आदि स्थाई परिसंपत्तियों का निर्माण किया जाता है| जब तक स्थाई परिसंपत्तियों का निर्माण सही मात्रा में नहीं होगा तब तक विकास की सही परिकल्पना पूरी नहीं हो सकती है| नियंत्रक महालेखा परीक्षक द्वारा 31 मार्च 2020 को समाप्त हुए वर्ष के लिए दिए गए लेखा परीक्षा प्रतिवेदन में यह बताया गया है कि राज्य में पूंजीगत परिव्यय 15-16 से 20-21 तक इस प्रकार है|
2015-16    16 835 करोड़2016-17    27 288 करोड़2017-18    30 913 करोड़2018-19    29 424 करोड़2019-20    29 241 करोड़2021-22    33 490 करोड़(बजट)

लेखा प्रतिवेदन में यह बताया गया है कि पिछले 5 वर्षों के दौरान राज्य का पूंजीगत व्यय दो हजार अट्ठारह उन्नीस को छोड़कर 2015-16 से 2019-20 तक परिसंपत्तियों के सृजन पर आवंटित बजट का उपयोग नहीं किया जा सका|
जितने भी छोटे-छोटे निर्माण कार्य होते हैं, उन पर योजना की लागत और निर्माण एजेंसी का नाम राज्य सरकार पारदर्शिता के लिए प्रदर्शित करती है|
जब यह सामान्य भाषा में बताया जा सकता है तो सरकार स्तर पर वित्त विभाग सामान्य भाषा में यह क्यों नहीं बता सकता कि कुल बजट और कुल लिए गए कर्ज में से विकास के कौन-कौन से काम कराए गए और सामाजिक सेवाओं या अन्य प्रतिबद्ध खर्चों पर कितना व्यय किया गया|
वैसे आजकल विकास का पैमाना भी बदल गया है| पहले विकास के हर काम सरकारों को स्वयं करने पड़ते थे| चाहे सड़क हो,बिजली संयंत्र हों या कोई भी विकास की योजना हो, सरकार ही पैसा खर्च करती थी और सरकार ही उनका निर्माण करती थी| अब तो विकास की प्रक्रिया बदल गई है| अब BOT जैसे प्रोसेस आ गए हैं| जिसमें सरकारी संपत्ति निर्माण के लिए प्राइवेट लोगों को दे दी जाती है और प्राइवेट लोग अपना पैसा खर्च कर निर्माण करते हैं| उस संपत्ति का उपयोग करने वालों से वह सेवा शुल्क प्राप्त करते हैं| इनके विकास पर अब सरकारें पैसा नहीं खर्च करती हैं| सड़कों को ही अगर देखा जाए तो आज अधिकांश सड़कें चाहे वह राजमार्ग हो या राष्ट्रीय राजमार्ग, उनका निर्माण BOT के अंतर्गत निजी लोगों द्वारा किया गया है, उन पर टोल वसूला जा रहा है| वैसे तो जो सड़क सरकार की संपत्ति थी, जिस पर चलने पर किसी को कोई टैक्स नहीं देना पड़ता था, वह अब लोगों को टैक्स देने के बाद ही आवागमन  के लिए मिलती है| अगर यात्री टोल की सड़कों पर 1000 किलोमीटर यात्रा करेगा तो कम से कम इतनी ही राशि उसे टोल टैक्स के रूप में देनी पड़ेगी| सड़कों के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी अब इस तरह की नीतियां सरकारों द्वारा लागू कर दी गई हैं|
आज सभी राज्यों में लोकतांत्रिक सरकारों द्वारा चुनाव जीतने के लिए निजी लाभ को ज्यादा प्रोत्साहित किया जाता है| ऐसी योजनाएं घोषित की जाती हैं, और लागू की जाती है जिससे लोगों को उनके खातों में पैसा या कोई न कोई लाभ मिल सके| जिससे कि उस सरकार के प्रति लोग उपकृत महसूस करें और चुनाव के समय राजनीतिक दलों को उसका लाभ मिले|
सरकारों की निजी लाभ देने की  जो प्रवृत्ति आजकल दिखाई पड़ रही है वह चिंतित करती है| 
सरकारें अनाप-शनाप ऐसे काम पर खर्च करती हैं जो पूरी तरह से अनुत्पादक हैं| उत्पादक खर्चों पर ध्यान नहीं दिया जाता|
एक पहेली में एक मजदूर अपनी मजदूरी और खर्च बताते हुए कहता है कि उसे ₹4 की मजदूरी मिलती है उसमें से ₹1 वह अपने परिवार के भरण पोषण पर खर्च करता है, ₹1 कर्ज देता है(अर्थात अपने बच्चों के भविष्य निर्माण पर खर्च करता है), ₹1 कर्ज लौटाता है, अर्थात बूढ़े माता-पिता पर खर्च करता है, क्योंकि उन्होंने उसका पालन पोषण किया है, ₹1 फेंक देता है अर्थात सेवा में समाज के लिए दान में खर्च करता है| यह सामान्य पहेली किसी भी व्यक्ति और सरकार को अपनी आय और व्यय को संतुलित रखने का बहुत मार्मिक संदेश देती है| कोई भी सरकार अगर भविष्य निर्माण पर अपनी आय का एक चौथाई नहीं खर्च करेगी तो व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी| इसी प्रकार सामाजिक सेवाओं के लिए मुफ्त में लोगों को लाभान्वित करने के लिए 25% से ज्यादा नहीं खर्च किया जाना चाहिए| सिस्टम पर खर्च भी लगातार बढ़ता जा रहा है| यह भी सरकार पर भारी पड़ रहा है| जबकि सरकारी कर्मचारियों की संख्या लगातार घटती जा रही है| आज के 15 साल पहले जहां लगभग 7 लाख कर्मचारी थे आज उनकी संख्या चार लाख के आसपास ही है|
सरकार विज्ञापन निकालकर नए बजट के लिए आम लोगों से सुझाव मांगती है| क्या इसी विज्ञापन में यह नहीं दिया जा सकता कि पिछले साल हमने आम लोगों के लिए कितनी कितनी राशि किस बात पर किस विकास कार्य पर खर्च की| अगर यह दिया जाता तब लोग बजट के लिए सुझाव देने पर अधिक उत्साहित होते| आज तो यह औपचारिकता जैसी हो गई है| सरकार से जुड़े कुछ लोग सुझाव देकर इस औपचारिकता को पूरी कर देते हैं|
सूचना के अधिकार कानून में जहां लोगों को सुरक्षा और कुछ महत्वपूर्ण विषयों को छोड़कर सभी चीजें जानने का हक है, तो फिर इस बात से क्यों वंचित किया जा रहा है, कि सरकार ने कर्ज लेकर उसके अंतर्गत कौन-कौन से विकास के काम किए हैं|
भले ही इसके लिए विभाग को थोड़ी मेहनत कर विवरण तैयार कर देना पड़े लेकिन दिया जाना चाहिए| इससे सरकार की विश्वसनीयता बढ़ेगी और विकास की प्रमाणिकता भी स्थापित होगी|
केवल बांटने से अहम की संतुष्टि हो सकती है, लेकिन राज्य का विकास नहीं हो सकता है| जनता  के टैक्स का पैसा खर्च करते समय उसकी उपयोगिता और प्रमाणिकता सबसे महत्वपूर्ण होती है| सरकारें इस पर ध्यान नहीं देंगी तो पक्ष विपक्ष के बीच में तर्क वितर्क होता रहेगा और राज्य के टैक्सपेयर चिंता व्यक्त करते रहेंगे|

न्यूज पुराण से साभार

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