प्रदुम्न की साख को भाजपा के वोटर का साथ

(डॉ अजय खेमरिया)

ग्वालियर सीट पर होने वाला उपचुनाव इस बात का परीक्षण भी होगा कि क्या जनता से सतत सम्पर्क का वोटिंग विहेवियर(मतदान व्यवहार)से कोई स्थाई रिश्ता होता है या नही? यहां से बीजेपी के कैंडिडेट प्रधुम्न सिंह तोमर मप्र में नरोत्तम मिश्रा के बाद सर्वाधिक जनसम्पर्क रखने वाले नेता है लिहाजा दलबदल के साथ उनका केन्डिडेचर उनके जनसपंर्क की निजी पूंजी का इम्तिहान भी होगा।

प्रधुम्न सिंह तोमर ग्वालियर से चौथा चुनाव लड़ेंगे।दो चुनाव वह जीत चुके है कमलनाथ सरकार में खाद्य मंत्री से स्तीफा देने वाले तोमर की खासियत यह है कि वे ग्वालियर विधानसभा के हर आम -ओ- खास के साथ खुद सतत सम्पर्क में रहते है।माना जाता है कि उनका खुद का निजी वोट बैंक भी है जिसे वह लगातार सहेजते रहे है।जनता की मूलभूत समस्याओं के लिए अक्सर सड़कों और जेल में दिखाई देने वाले प्रधुम्न सिंह के सामने नई चुनौती बीजेपी के निशान पर चुनाव लड़ने की है।वही बीजेपी जिसके विरुद्ध वह 15 साल तक सड़कों पर लड़ते रहे है।उसके कार्यकर्ताओं ,नेताओं से उनका खुला टकराव होता रहा है।वैसे ग्वालियर की सियासत को नजदीक से समझने वाले जानते है कि प्रधुम्न सिंह को जितना चुनावी सहयोग कांग्रेस से नही मिलता उससे अधिक कमलदल से मिल जाता है।वजह बीजेपी के नेता जयभान सिंह पवैया है जिनके नेचर को लेकर न केवल बीजेपी वर्कर बल्कि आम जनता में भी तीखी प्रतिक्रिया रहती है।2018 के चुनाव में पवैया की पराजय दीवार पर मोटे हरूफ में लिखी इबारत की तरह साफ थी क्योंकि मंत्री रहते हुए उनके पास ऐसी कोई उपलब्धि नही थी जो उन्हें इस उपनगर से फिर जिताने के लिए आधार बने उल्टे पांच साल उनके रूखे व्यवहार से जनता बेहद खफा थी।यही कारण था कि जनसघर्ष से नेता बनने वाले प्रधुम्न को 2018 में जीत के लिए कोई जतन नही करना पड़ा।

असल मे ग्वालियर सीट बीजेपी का गढ़ रही है यहां से केंद्रीय पंचायत मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर 1998 और 2003 में विधायक रहे है।डॉ धर्मवीर जैसे नेता भी यहां बीजेपी का झंडा गाड़ चुके है।यह इलाका बन्द हो चुके मिल्स के बेरोजगार श्रमिकों का भी है और महानगर की सबसे पिछड़ी बस्तियां भी यहीं है।यहाँ ठाकुर,ब्राह्मण,कोली,किरार,कमरिया(यादव),बाथम भोई,जाटव,शिवहरे,बिरादरी बहुसंख्यात्मक क्रम में है।इनके अलावा वैश्य ,राठौर,मुस्लिम,कुर्मी पटेल,लोधी,बघेल,पंजाबी,बाल्मीकि,प्रजापति,सेन,धोबी,नामदेव,गुर्जर,परिहार, खटीक,धानुक,बरार, सहित लगभग सभी जातियों को समेटे यह विधानसभा सीवर,पेयजल,सड़क,बिजली,बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर आज भी पिछड़ेपन का अहसास कराती है।प्रदेश सरकार में नरेंद्र सिंह तोमर,जयभान सिंह पवैया,प्रधुम्न सिंह जैसे कद्दावर मंत्री इस क्षेत्र ने दिये है लेकिन अभी भी यहां मूलभूत मामलों पर काम की लंबी फेहरिस्त है।यह तथ्य है कि विकास कार्य भी यहां बड़े पैमाने पर हुए है।

उपचुनाव की चर्चा पूरे क्षेत्र में है प्रधुम्न सिंह जबसे बेंगलुरू से लौटे है लगातार गली मोहल्लों में अपनी बैठक जमाये हुए है।कोरोना में भी उन्होने सेवा कार्यों में कोई कसर नही छोड़ी।लेकिन समस्या यहाँ बीजेपी और कांग्रेस से आये कार्यकर्ताओं के सुमेलन की है।प्रधुम्न पहल कर इसके लिये आगे भी बढ़े तो पवैया शायद ही इसके लिए तैयार हो।असल मे जयभान सिंह के लिये प्रधुम्न का बीजेपी से जीतने का मतलब है सियासी वानप्रस्थ।
हालांकि पार्टी के निर्णय के विरुद्ध पवैया का जाना मुश्किल है लेकिन यहां पुरानी अदावत को आबोहवा में साफ महसूस किया जा सकता है।
जो चुनावी गणित है वह फिलहाल प्रधुम्न सिंह के पक्ष में है क्योंकि उन्हें बीजेपी में सबसे ताकतवर नेता नरेंद्र सिंह सपोर्ट करेंगे।इनके अलावा सांसद विवेक शेजवलकर ,माया सिंह, वेदप्रकाश शर्मा,जयसिंह कुशवाह, सहित ग्वालियर के सभी बड़े नेता सिंधिया के साथ समन्वय की बात कह रहे है।
स्वयं प्रधुम्न की पूंजी भी यहां कम नही है।
तोमर ठाकुरों के अलावा कोली और बाथम समाज में प्रधुम्न का जबरदस्त जनाधार है इसके अलावा गरीब तबके में भी वह लोकप्रिय है।


उधर कांग्रेस के पास यहां से उतारने के लिए माथापच्ची करनी पड़ रही है क्योंकि जो सबसे प्रबल दावेदार है सुनील शर्मा वह कट्टर सिंधिया समर्थक रहे है।इतने स्वामी भक्त की पूरी चुनावी तैयारी के बाबजूद सिंधिया के कहने पर प्रधुम्न के लिए 2018 में मैदान छोड़ दिया।दूसरा नाम पूर्व जिलाध्यक्ष अशोक शर्मा का है कभी सुरेश पचौरी के नजदीक रहे अशोक शर्मा पहले भी इस सीट से नरेंद्र सिंह तोमर के विरुद्ध चुनाव लड़कर 26358 वोट से हार चुके है। स्थानीय राजनीति के पुराने खिलाड़ी होने के कारण उनके नाम पर भी कांग्रेस निर्णय कर सकती है।सुनील शर्मा की तुलना में वे सिंधिया के ज्यादा विरोधी कहे जा सकते है।अशोक शर्मा चूंकि सनाढ्य ब्राह्मण है और यहां इस उपवर्ग के ब्राह्मण ही सर्वाधिक है इसलिए उनकी दावेदारी को यहाँ अगर कांग्रेस दरकिनार करती है तो उसका ब्राह्मण कार्ड सुनील शर्मा के सहारे कमजोर पड़ सकता हैं क्योंकि सुनील यहां के स्थानीय ब्राह्मण न होकर मारवाड़ी है। सुनील कांग्रेस कैडर से ज्यादा सिंधिया भक्ति के चलते यहाँ केन्डिडेचर डवलप करने में सफल हुए है।उनके विरुद्ध कांग्रेस की बड़ी लॉबी यहां सक्रिय हो गई है।पिछले7 चुनावों में यहां बीजेपी चार और कांग्रेस तीन बार जीती है।बसपा का प्रभाव भी इस सीट पर अच्छा है।1990 से औसतन 16 परसेंट वोट यहां बसपा लेती आ रही है।इस बार भी बसपा यहां उम्मीदवार खड़ा करेगी जो कांग्रेस के लिए मुसीबत ही होगा।

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