बाजीराव पेशवा ने आज जीता था नर्मदा से चंबल का राज्य

भारत के शेर ( द लॉयन आफ इंडिया) कहे जाने वाले बालाजी बाजीराव पेशवा की शूरवीरता के किस्से आज भी पूरी दुनिया में गूंजते रहते हैं। इसके बावजूद कम ही लोगों को मालूम होगा कि 7 जनवरी 1737 को सीहोर जिले के दोराहा में बाजीराव और निजाम के बीच संधि हुई थी। इसके साथ ही पेशवा को नर्मदा से चंबल तक का इलाका मिल गया था। दिल्ली से निजाम की अगुआई में मुगलों की विशाल सेना आई थी और दक्कन से बाजीराव की अगुआई में मराठा सेना निकली थी। दोनों सेनाएं भोपाल में मिलीं। 24 दिसंबर 1737 के दिन मराठा सेना ने मुगलों को जबरदस्त तरीके से हराया। निजाम ने अपनी जान बचाने के के लिए बाजीराव से संधि कर ली। इस बार 7 जनवरी 1738 को ये संधि दोराहा में हुई। मालवा, मराठों को सौंप दिया गया और मुगलों ने 50 लाख रुपए बतौर हर्जाना बाजीराव को सौंपे थे।

दरअसल बाजीराव की सक्रियता इतनी अधिक थी कि उसकी फौज का मुकाबला करने से पहले ही विरोधियों को हार मान लेने में ही अपनी खैरियत नजर आती थी। बाजीराव ने दिल्ली पर जो आक्रमण किया और थोड़े ही समय में जो उत्पात मचाया उससे भयभीत होकर सभी मुगल सरदार दिल्ली में आ जुटे थे। मराठों को कैसे पूरी तरह नष्ट किया जाए इसी मुद्दे पर सभी रायशुमारी करते रहे। गरमागरम बहस के बीच सभी एक दूसरे को दोषी ठहराते रहे। तरह तरह के उपाय सुझाए गए अंत में तय हुआ कि ये काम निजाम को सौंपा जाए। जिस निजाम से सभी द्वेष रखते थे और उसे उखाड़ फेंकना चाहते थे उसी निजाम को आगे करके सभी ने दिल्ली में अपना दांव खेल दिया।

जय सिंह को अपने पद से हटा दिया गया। निजाम के पुत्र गाजीउद्दीन को आगरा का सूबेदार नियुक्त किया गया। निजाम ने इस उत्तरदायित्व को सहर्ष स्वीकार किया। वह भी मराठों को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता था और उन्हें नष्ट भी करना चाहता था। उसे एक तरह से दिल्ली के वजीर का ही पद थमाया जा रहा था। उसने सभी को आश्वासन दिया था कि वजीरी मिल जाने के साथ जब दिल्ली का खजाना भी उसकी पहुंच में होगा और विशाल सेना होगी तो वह बाजीराव को तो समाप्त कर ही देगा साथ में मराठों को भी धूल चटा देगा।

निजाम ने अक्टूबर 1737को दिल्ली से प्रस्थान किया। उसके साथ तीस हजार की सेना थी जिसके पास बादशाही तोपखाना था। रास्ते में अनेक मुगल सरदार सेना के साथ उससे आ मिले। वह मालवा की ओर बढ़ने लगा। बाजीराव के गुप्तचर सभी ओर अपना काम बखूबी कर रहे थे। उन्हें दिल्ली की योजना का और निजाम की नियुक्ति का पूरा विवरण पता चल गया। उन्होंने भी अपनी व्यूह रचना बनाई और सैन्य तैयारियां कर लीं। महीना भर भी पूरा नहीं हो पाया था कि अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में बाजीराव ने पुणे से रवानगी डाल दी। निजाम इस दौरान इटावा, कालपी, होता हुआ बुंदेलखंड पहुंच चुका था। वह धामौनी और सिरोंज होते हुए भोपाल पहुंच गया। उसने तय किया कि भोपाल में ही वह अपनी मुख्य छावनी रखेगा। यहां उसने सुरक्षित स्थान चुना जिसमें एक तरफ तालाब था और दूसरी ओर किला था।तीसरी तरफ छोटी सी नदी थी। बीच में विशाल मैदान था। यहां निजाम ने अपनी छावनी लगा ली। यहां बैठकर वह आसपास के इलाकों में छोटी बड़ी टुकड़ियां भेजना चाहता था। उसका प्रयास था कि वह मराठों को मालवा से बाहर निकाले ताकि उन्हें टुकड़ों में बांटकर हराया जा सके। उसकी ये रणनीति औंधे मुंह गिर पड़ी और मराठों ने ही उसे अपने व्यूह में फंसा लिया।

निजाम ने अपने पुत्र नासिर जंग को नर्मदा के किनारे तैनात किया। किसी भी स्थान से बाजीराव नर्मदा न लांघ सके उसे ये जवाबदारी सौंपी गई थी। बाजीराव तो नए नए प्रयोगों का आदी था। उसने कब कहां से और कैसे नर्मदा नदी पार कर ली इसका अहसास नासिरजंग को नहीं हो पाया। वह हाथ मलते रह गया। आश्चर्य तो इस बात का था कि बाजीराव के पास हर बार की तरह इस बार छोटी सेना नहीं थी। इस समय पूरे अस्सी हजार सैनिक उसके साथ थे। बाजीराव होशंगाबाद होते हुए भोपाल पहुंचा। उसने निजाम की पूरी छावनी का नक्शा प्राप्त कर लिया था। अपनी व्यूह रचना में उसने तय किया कि निजाम की सेना को खाद्यान्न न मिल पाए।

पूरी तरह आश्वस्त निजाम ने एक दो बार मराठों पर आक्रमण के लिए अपनी कुछ सेना भेजी। मराठे पूरी तरह सतर्क थे। उन्होंने आए दिन निजामी सेना को परास्त करना शुरु कर दिया। मराठों ने निजाम को चारों ओर से घेर लिया। सैनिकों को भोजन मिलना भी दुश्वार हो गया। सफदरजंग और कोटा नरेश ने निजाम को खाद्यान्न पहुंचाने का बहुत प्रयास किया लेकिन वे असफल रहे। जब वे अपनी सेना लेकर सहायता करने पहुंचे तो मल्हारराव होल्कर ने उन्हें बुरी तरह कुचल दिया। नासिरजंग ने भी अपनी विशाल सेना लेकर निजाम की सहायता का प्रयास किया लेकिन चिमाजी आप्पा न उसे हर जगह से मारकर भगा दिया। निजाम की सेना में धान्य मंहगा मिलने लगा। खाने के लाले पड़ने लगे। उसे लगा कि सेना विद्रोह न कर दे इसलिए उसने सेना को सिरोंज की ओर ले जाने की योजना बनाई। मराठों ने यह मार्ग भी घेर लिया और आक्रमण करके सेना को आगे बढ़ने से रोक दिया हालत ये हो गई कि सेना हर दिन युद्ध में ही उलझी रहती आगे की ओर नहीं बढ़ पाती। निजाम के पास पूरा तोपखाना था लेकिन मराठों की टुकड़ियां उसकी जद में ही नहीं आतीं थीं। तोपें नाकाम साबित हुईं और सेना उन्हें ढोने में ही लगी रही। यही वजह थी कि निजाम के सामने अंततः शरण में आने के सिवाय कोई उपाय बाकी नहीं बचा।

दुराहा सराय के नजदीक निजाम ने बड़ा भारी शामियाना लगाया। यहां उसने बाजीराव और उसके सरदारों का सम्मान किया। दोनों पक्षों के बीच बातचीत हुई। तहनामा लिखा गया।नतीजतन बाजीराव को निजाम ने संपूर्ण मालवा बहाल कर दिया। उसके साथ साथ नर्मदा से लेकर चंबल के बीच का सारा इलाका बाजीराव के अधीन कर दिया गया। युद्ध के खर्चे की भरपाई करने के लिए निजाम ने आश्वासन दिया कि वह दिल्ली से पचास लाख रुपए दिला देगा।

इस युद्ध में विभिन्न मराठा सरदारों ने अपना पराक्रम दिखाया। चिमाजी आप्पा ने नासिरजंग को खदेड़ा था। ठीक उसी प्रकार रघुजी ने शुजायत खान को धूल चटाई थी। यशवंतराव पंवार ने कोटा नरेश को दंड दिया और उससे दस लाख रुपए वसूले। शिंदे होल्कर,आवजी कवड़े, इन्होंने भी असाधारण शौर्य का परिचय दिया। बाजीराव ने उन्हें और अन्य सेनाधिकारियों का गौरव गान करके हरेक को पच्चीस हजार रुपए इनाम के तौर पर दिए। दिल्ली का बादशाह और अन्य सरदार निजाम को बहुत पराक्रमी मानते थे। वह स्वयं भी खुद को बहुत सफल सेना पति मानता था लेकिन भोपाल में उसे जिस तरह हार का मुंह देखना पड़ा उससे वह अंदर तक हिल गया और उसने मराठों से टकराने की अपनी शैली छोड़ दी।

बालाजी बाजीराव पेशवा की ख्याति में चार चांद लग गए। देश विदेशों में उसके शौर्य धर्म की कहानियां सुनाई जाने लगीं। भारत भर के लोग बाजीराव को वीरों का मुकुटमणि मानने लगे। बाजीराव के परिवार में भी जो षड़यंत्र चलते रहते थे उनमें भी कमी आने लगी। षड़यंत्रकारियों को अब महसूस होने लगा कि बाजीराव के गुप्तचर कभी भी उनकी चालबाजियां धराशायी कर सकते हैं। इस तरह कई नजरियों से निजाम पर मराठों की ये विजय प्रशासनिक सफलताओं की वजह बन गई। इसी ने आगे चलकर मराठा साम्राज्य की वो इबारत लिखी जो लंबे समय तक क्षेत्र में शांति और विकास का अविरल झऱना साबित हुई।

प्र.ग.सहस्त्रबुद्धे की पुस्तक बाजीराव महान से साभार

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