अब बिट्वीन द लाईंस भी देखना पड़ेगा मुख्यमंत्री जी

किशोर कान्यालःसंविधान बचाने की जद्दोजहद को चिलमजीवी जाहिलों ने निपटवा दिया.


अवैध हड़ताल से देश को ठप करने वालों की औकात क्या इतनी हो सकती है कि वे जनता की सरकार को भी चुनौती देने लगें। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने सारे तथ्यों पर विचार करके कहा कि हड़ताल अवैध है, सरकार जनसुविधाएं बहाल करे । ऐसे में प्रशासन को आगे बढ़कर गतिरोध हटाना ही था। हाईकोर्ट के निर्देश के बाद शाजापुर कलेक्टर जब पूरे देश को चुनौती देने वाले किसी अपराधी को ललकार लगाए तो उसमें भाषा के लालित्य पर सवाल नहीं उठाया जा सकता । देश के हमलावर को आत्मरक्षा में तैनात सैनिक बंदूक की गोली से मारे या लाठी से या फिर मुक्के लात से,ये थोड़ी देखा जाता । उसका तो उद्देश्य शत्रु पर विजय पाना है। कुछ लाल बुझक्कड़ बुद्धिजीवी ऐसे टसुए बहाने निकल पड़े कि सरकार ने अपने ही कलेक्टर को हटाकर मंत्रालय में बिठा दिया। इस पहले मूव ने सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है। डॉक्टर मोहन यादव को जिन्होंने करीब से देखा है वे जानते हैं कि मुख्यमंत्री लीक पकड़कर चलने वालों में से नहीं हैं। इसके बावजूद सत्ता के इर्द गिर्द झुंड जमा लेने वाले दरबारियों के सामने तो राजा विक्रमादित्य की भी मति मारी जाए। लगभग दो दशकों में शिवराज सिंह चौहान ने अपने इर्द गिर्द चमचों और चिलमकारों की ऐसे फौज जमा कर रखी थी कि सरकार किसी और पटरी पर चली गई थी। इन कुकर्मों को छुपाने के लिए इन चमचों ने एक स्वर में इसे संघ का फरमान बताना शुरु कर दिया था। जन आक्रोश की इसी अभिव्यक्ति के रूप में कमलनाथ गिरोह को सत्ता में घुसपैठ का अवसर मिल गया था। ज्योतिरादित्य सिंधिया की एंट्री न हुई होती तो हालिया चुनाव भाजपा को विपक्ष में बैठकर लड़ना पड़ता। सिंधिया के आने के बावजूद सरकार का कामकाज इतना लचर और जड़ था कि उसे किसी नजरिए से सुशासन नहीं कहा जा सकता। ये तो गनीमत है कि जनता की और पार्टी कार्यकर्ताओं की टीस को भाजपा हाईकमान ने सुन लिया और शिवराज को पैवेलियन में भेजकर सत्ता परिवर्तन की जन आकांक्षा पूरी कर दी। समस्या ये है कि सत्ता के सिंहासन पर बदलाव अभी पूरी तरह नहीं हुआ है। शिवराज के बहरे सत्ताभोगियों को साथ लेकर सुशासन करने निकले मोहन यादव अभी तक अपना राज स्थापित नहीं कर सके हैं। किशोर कान्याल को हटाने के फैसले से इतना तो साफ झलकता है कि वे अपनी सोच और पार्टी की विचारधारा को स्थापित करने के लिए बदलाव करना चाहते हैं। ये बदलाव गलत मोड़ पर हुआ है। किशोर कान्याल मध्यप्रदेश के जमीनी प्रशासन को समझने वाले प्रतिभाशाली अफसर हैं। राज्य प्रशासनिक सेवा के कई जिम्मेदार पदों पर रहते हुए उन्होंने जमीनी हकीकत को करीब से देखा है। जनोन्मुखी शासन शैली का तो खुमार उन पर इतना अधिक है कि वे अपना हर कार्य सार्वजनिक तौर पर करते हैं। जब ड्राईवरों की हड़ताल पर चर्चा के लिए कलेक्टर के चेंबर में बातचीत चल रही थी तब भी उन्होंने मीडिया को चर्चा में उपस्थित रहने की अनुमति दे रखी थी। ड्राईवरों की हड़ताल को विपक्ष ने पूरे देश में कुछ इस तरह प्रचारित किया था मानों वे देश के कर्मठ सिपाही हैं और सरकार उन्हें कुचलकर मार देना चाहती है। हिट एंड रन पर बना कानून एक दिन में अस्तित्व में नहीं आया। पूरी सुविचारित प्रक्रिया से इसे तैयार किया गया है। विपक्ष का कहना था कि जब वे सदन में कम संख्या में मौजूद थे तब सरकार ने बगैर चर्चा के इसे पास करा लिया। जबकि हकीकत ये है कि विपक्ष के जो सदस्य सदन में मौजूद थे उन्होंने भी बिल का समर्थन किया था। कानून से ड्राईवरों को खतरा क्यों महसूस हो रहा है। यदि वे सही चल रहे हैं और कोई व्यक्ति अपनी गलती से उनके वाहन के नीचे कुचलकर मर जाता है तो इसे अदालत में साबित करके वे साफ बच सकते हैं। अब नेशनल हाईवे पर जंगल में यदि कोई दुर्घटना होती है जहां कोई जनता मौजूद नहीं है तो ड्राईवर को भागने की जरूरत क्या है। वह जाकर प्रशासन को सूचना दे सकता है कि फलां राहगीर शराब के नशे में या किसी तकनीकी खामी की वजह से उसके वाहन के नीचे आ गया है कृपया उसे उपचार उपलब्ध कराएं। कोई कानून इतना अंधा तो है नहीं कि गलती न होने के बावजूद ड्राईवर को सात साल की जेल और दस लाख रुपए के जुर्माने की सजा दे दे। सभी ट्रकों में अभी तक कैमरे और जीपीएस नहीं लगाए गए हैं। निजी कंपनियां थर्ड पार्टी बीमे का प्रीमियम समय पर भरती नहीं। राहगीरों की सुरक्षा वे सुनिश्चित करती नहीं। इस पर ड्राईवरों को ऐसा भयभीत कर दिया कि वे बेचारे कानून के भय से कांपने लगे। कानूनी प्रावधान यदि गलत हैं तो सही प्रक्रिया अपनाकर उन्हें बदला भी जा सकता है। इसके बावजूद विपक्ष और खासतौर पर कांग्रेस ने हो हल्ला मचाकर देश भर में भय का वातावरण निर्मित कर दिया। लोकहित में लड़ने वाले शूरवीर अधिकारियों को सलाम किया जाना चाहिए कि उन्होंने विपरीत हालात में भी मोर्चा संभाला और नागरिकों को जरूरी सामानों की सप्लाई बाधित नहीं होने दी। कलेक्टर महोदय की क्लीपिंग वायरल करने वाले टीआरपी प्रेमी पत्रकारों मौका हाथ से नहीं जाने दिया। दरअसल जिन पत्रकारों ने ये काम किया उनकी ये समझने की औकात भी नहीं थी कि सामाजिक दायित्वों का निर्वहन कैसे किया जाता है। शायद यही वजह है कि राजनेता और प्रशासन अक्सर मीडिया कर्मियों को विमर्श स्थल से बाहर खदेड़ देते हैं। सीधी भर्ती वाले आईएएस अफसरों की टीस तो समझी जा सकती है पर सत्ता पर आसीन राजा विक्रमादित्य की सोच में पले बढ़े राजनेता की आंख पर भी वे पट्टी बांध दें ये कैसे संभव हो सकता है। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को तो कम से कम सुशासन का समर्थन करते हुए कलेक्टर को अपना संरक्षण देना था। वे भी एक गलत नारे की रौ में बह निकले। ये अंग्रेजों की विदेशी सरकार तो है नहीं। संवैधानिक कानून का विरोध करने के लिए अब जनांदोलन जरूरी नहीं है। कानून उनकी ही सरकार ने बनाया है वे अपनी ही सरकार से इसमें सुधार करवा सकते हैं। इसके लिए आंदोलन की तो जरूरत ही नहीं है। सरकार ने कानून को लागू करने की अवधि बढ़ाने की बात कहकर मौजूदा गतिरोध तो टाल दिया है लेकिन उसे नहीं भूलना चाहिए कि वह जनता की निर्वाचित सरकार है। दबाव की राजनीति करने वाले चंद बदमाशों के दबाव में वह अपने दायित्व से मुकर नहीं सकती। नए नए मुख्यमंत्री जी को भी यही सलाह है कि वे अब बिट्वीन द लाईन्स भी देखना शुरु करें। सत्ता के शीर्ष पर बैठकर जो दिखाया जाता है वह हमेशा सही नहीं होता।यदि इस तरह के फैसले सामने आएंगे तो फिर कौन अधिकारी जनहित की लड़ाई लड़ने की हिम्मत करेगा।

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