अब जनता की अदालत में चलेगा कर्जमाफी के झूठ का मुकदमा बोले कमल पटेल

कांग्रेस को सत्ता में लाने के लिए राहुल गांधी ने किसान कर्जमाफी का जो पांसा फेंका था उसने तीन राज्यों में उन्हें सत्ता तो दिला दी लेकिन डेढ़ साल तक जब किसानों को लाभ नहीं हुआ तो मामला बिगड़ गया। उपजे जन असंतोष ने पार्टी में फूट के हालात पैदा किए और मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार का असमय अवसान हो गया। खुद कमलनाथ तो कर्ज माफी कर नहीं पाए अब बाहर बैठकर भाजपा सरकार पर राहुल गांधी के वादे को पूरा करने का दबाव बनाने का प्रयास कर रहे हैं। जिस फार्मूले से किसानों के छोटे कर्ज माफ करने की शुरुआत कमलनाथ ने की थी उससे सहकारी समितियां कंगाल हो गईं हैं। किसान नए झमेलों में फंस गए हैं।उन्हें कांग्रेस के झूठे वादे की असलियत समझ में आ गई है। इसके विपरीत भाजपा ने किसानों को बेहतर मूल्य और मुआवजा दिलाने की जो पहल की है उससे कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ गईं हैं। आगामी उपचुनाव में मध्यभारत और प्रदेश के कई अंचलों में कांग्रेस को कर्जमाफी की असफलता के मुद्दे पर जनता के सवालों का सामना करना पड़ेगा। कृषि मंत्री कमल पटेल कहते हैं कि कर्जमाफी के इस झूठ का मुकदमा अब जनता चलाएगी और कांग्रेस को उसके पापों की सजा अवश्य भोगनी पड़ेगी।

एक चुनावी दांव के तहत बड़बोले राहुल गांधी ने चुनावी सभा में ऐलान किया था कि अगर सत्ता में आने के बाद दस दिनों के भीतर किसानों के दो लाख रुपए तक के कर्ज माफ नहीं हुए तो मुख्यमंत्री बदल दिया जाएगा। इस वादे में कर्ज की बात कही गई थी जबकि सत्ता में आने के तत्काल बाद कमलनाथ ने उसमें कृषि ऋण शब्द जोड़ दिया। कहा जाने लगा ये काम पांच सालों में कई चरणों में होगा। फिर कई शर्तें और भी जोड़ी गईं। कुल मिलाकर किसान को कर्ज माफी एक झुनझुना ही साबित हुई। कांग्रेस के इस झूठे वादे का असर बैंकिंग व्यवस्था को झेलना पड़ा। कांग्रेस ने ये वादा सरकारी और सहकारी बैंकों के भरोसे कर तो दिया था लेकिन सत्ता में आने के बाद इस ढोल की पोल खुल गई। राष्ट्रीयकृत बैंकों ने तो मोदी सरकार के बैंकिंग सुधारों के चलते इस झूठे वादे को पूरा करने में साफ असहमति जता दी। जबकि सहकारी बैंकों का ढांचा भ्रष्टाचारों की वजह से पहले ही धराशायी पड़ा था।जिन सहकारी साख समितियों ने बेहतर काम करके कुछ फंड बनाया था सरकार ने सबसे पहली गिद्ध दृष्टि उसी फंड पर टिका दी। सहकारी समितियों से कहा गया कि वे अपने फंड का आधा हिस्सा कर्जमाफी के लिए दे दें जिसकी भरपाई भविष्य में सरकार कर देगी। सरकार के इस निर्देश को कई समितियों ने सिरे से नकार दिया।

किसान कर्ज माफी का मामला सबसे पहले कागजों में उलझा हुआ नजर आने लगा जब प्रमाण पत्रों और प्रचार अभियानों की पोल खुलना प्रारंभ हुई । कमलनाथ ने बाकायदा सार्वजनिक आयोजनों में पुरस्कारों की तरह कर्जमाफी के प्रमाण पत्र बांटने शुरु कर दिए। बहुत छोटे कर्जों के इन प्रमाणपत्रों के बाद किसानों को लगने लगा कि उनकी असफलता का ढिंढोरा पीटकर सरकार उन्हें सरे चौराहे बदनाम कर रही है।बगैर सोचे समझे किया गया कर्जमाफी का वादा इतना हवा हवाई था कि सरकार ने शिवराज सरकार की तमाम हितग्राही मूलक योजनाओं को बंद करके कर्जमाफी पूरी करने का शोर मचाना शुरु कर दिया। जबकि इस बचत का धेला भर भी किसान कर्जमाफी के लिए नहीं दिया गया। इसी बीच लोकसभा चुनाव आ गए तो सरकार को लगा कि चलो कुछ समय के लिए तो आपदा टल गई है। सभी प्रभारी मंत्रियों से लेकर राज्य शासन के मंत्रियों एवं विधायकों की ड्यूटी लगाई गई कि लोकसभा चुनाव के बाद किसी भी स्तर पर किसानों को प्रमाण पत्रों के साथ-साथ कर्ज माफी दे दी जाएगी । लोकसभा चुनावों में जनता इस झांसे में नहीं आई और उसने कांग्रेस को अंडा पकड़ा दिया। केवल मुख्यमंत्री कमलनाथ के पुत्र खींचतान के सांसद बन पाए वह भी तब जबकि उन्होंने भाजपा के नेताओं की चरण वंदना करके छिंदवाड़ा में कोई बड़ी चुनावी सभा नहीं होने दी।लोकसभा चुनाव के बाद सरकार का तंत्र एवं संबंधित मंत्री ट्रांसफर पोस्टिंग के धंधे में लग गए । लगभग 2 महीने तक अथवा उससे कहीं अधिक समय तक यह धंधा बेशर्मी से बदस्तूर चलता रहा।

विधायकों की परेशानी यह थी कि जब भी वह अपने विधानसभा क्षेत्रों में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जाते थे तो उन्हें किसानों का विरोध झेलना पड़ता था।किसान उलाहना देते थे कि उनके साथ इतना बड़ा मजाक क्यों किया गया। लोकसभा चुनाव के बाद तो किसानों के साथ किए गए छल और कंगाली भरे कुशासन को झेलना कांग्रेस के विधायकों के लिए असहनीय हो गया था। जब भी कांग्रेस के विधायक अथवा प्रभारी मंत्री क्षेत्रों में जाते थे तो किसान कर्जमाफी का दबाव बनाते हुए घेराव करने लगते। सोशल मीडिया पर लोकसभा चुनाव होने के बाद लगातार 6 महीने तक सरकार का जमकर मजाक उड़ता रहा ।किसान कर्जमाफी के ढोल की पोल खुलती जा रही थी और मालवा के साथ साथ ग्वालियर चंबल संभाग के अंचल के किसान भी सरकार की नीतियों का माखौल उड़ाने लगे।

ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ कांग्रेस के कुछ नेताओं ने आलाकमान के इशारे पर जो घेराबंदी की थी और उन्हें चुनाव हरवाया था उसकी भी असलियत सामने आने लगी। सिंधिया समर्थक मंत्रियों विधायकों को भी लगा कि चुनावी चेहरे के रूप में तो सिंधिया को आगे रखा गया लेकिन उनकी उपेक्षा करके सिंधिया समर्थकों को निपटाया जा रहा है। किसानों से गालियां पड़वाईं जा रहीं हैं।कमलनाथ को छिंदवाड़ा के अलावा प्रदेश के किसी अंचल के किसानों और आम नागरिकों की चिंता नहीं है।जब कोई विधायक या मंत्री मुख्यमंत्री निवास से संपर्क करने का प्रयास करता तो उससे आपत्तिजनक व्यवहार करके उसकी उपेक्षा कर दी जाती। ये हालत कमोबेश प्रदेश के हर अंचल के विधायकों की थी लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक विधायकों ने इस समस्या से निपटने के लिए समाधान की तलाश तेज कर दी।

कर्जमाफी तो कमोबेश हर राज्य में असफल साबित हुई है। उसके फेल होने के दो कारण थे । कर्ज माफी की घोषणा का क्रियान्वयन मुख्य रूप से ग्रामीण स्तर पर स्थापित सहकारी बैंकों से जुड़ा हुआ था । जबकि सहकारी बैंकों को कांग्रेस के नेता माफिया राज बताते हुए मुकदमों में धकेलते गए। अपना ही बाग नोंचते बंदरों की तरह कांग्रेस ने सहकारी आंदोलन का ही भट्टा बिठालना शुरु कर दिया। दूसरा ये कि दिग्विजय सिंह समर्थक अशोक सिंह को अपेक्स बैंक का चेयरमैन बना दिया गया। उन्हें तो कांग्रेसियों की लूट की हवस शांत करनी थी वे इसी का जतन करते रहे लेकिन कर्जमाफी के लिए फंड जुटाना उनके लिए नामुमकिन था।इस बीच कमलनाथ का वो बदनामशुदा बयान सामने आ गया जिसमें उन्होंने सिंधिया को लगभग दुत्कारते हुए कहा कि यदि जनता की मांगों को लेकर वे सड़क पा उतरना चाहते हैं तो उतर जाएं। इस बयान ने कमलनाथ सरकार के सारे रास्ते बंद कर दिए और तय हो गया कि ये सरकार चंद दिनों की ही मेहमान है।

किसानों को दो लाख तक कर्ज माफी की घोषणा में 31 मार्च 2018 की स्थिति में फसल ऋण माफी 56 हजार करोड़ से कहीं अधिक थी । जाहिर था कि इतनी बड़ी रकम सरकार अपने खजाने से नहीं लुटा सकती थी। जब कर्ज माफी की पोल खुलने लगी तो आंकड़े भी उलझाए जाने लगे। 1 अप्रैल 2007 तक तो कांग्रेसियों को भी समझ में आ गया कि कर्जमाफी संभव नहीं है। भाजपा ने सत्ता संभालते ही कर्जमाफी पर स्थिति स्पष्ट करना शुरु कर दी कि कांग्रेस ने झूठा वादा किया था। उसने केवल सत्ता पाने के लिए ये सफेद झूठ बोला था जबकि भाजपा की पूर्ववर्ती सरकार किसानों को लाभकारी मूल्य और मुआवजा दिलाने की दिशा में बहुत काम कर रही थी। कैबिनेट की बैठक में 23 जून को कृषि मंत्री कमल पटेल ने कहा कि किसान कर्जमाफी कांग्रेस का धोखा था और इसकी जांच कराई जाना जरूरी है।राज्य स्तरीय बैंकर्स समिति की बैठक के तैयार एजेंडे में कोरोना के बाद कर्जमाफी ही अहम मुद्दा था।राष्ट्रीयकृत बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों ने बताया कि सरकार ने पहले चरण की जो कर्जमाफी धूमधाम से की थी उसका ही पैसा सरकार ने नहीं दिया था। बैठक में मौजूद कुछ अफसरों ने एलएलबीसी के समन्वयक एस डी माहुरकर से इस मुद्दे पर चर्चा न करने को भी कहा क्योंकि ऐसा करने से उनकी पोल भी खुलती थी कि जब कर्जमाफी गलत फैसला था तो उन्होंने उस वक्त उसका विरोध क्यों नहीं किया।

बैंकरों की ये रिपोर्ट बताती है कि सरकार ने कर्जमाफी का झूठा वादा किया था और वादा निभाने के चक्कर में बैंकों से धोखाघड़ी तक कर डाली। राष्ट्रीकृत बैंकों की तो मजबूरी है कि वे लोकतांत्रिक सरकारों के विरुद्ध धोखाधड़ी का मुकदमा नहीं चला सकतीं लेकिन किसानों के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। किसानों ने अब कांग्रेस के विरुद्ध खुलकर बयानबाजी शुरु कर दी है। कई किसान तो कर्जमाफी के इस झूठे वादे के लिए कांग्रेस को अदालत की चौखट तक भी ले जाने की तैयारी कर रहे हैं। अदालत उनके इस वाद पर विचार करती है या नहीं ये तो वक्त आने पर ही पता चलेगा लेकिन इतना तय है कि आगामी आम चुनावों में जनता की अदालत जरूर वायदा खिलाफी के लिए कांग्रेस को सूली चढ़ाएगी। कांग्रेस के नेताओं से किसानों का सवाल यही रहेगा कि जब औकात नहीं थी तो कर्जमाफी का वादा किया क्यों था।

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