कोरोनिल, प्रमाणिक दवाओं का नया फार्मूला है तो विवाद क्यों

भोपाल,25 जून(प्रेस सूचना केन्द्र)। कोरोना के उपचार के लिए बनाई गई देशी दवा कोरोनिल को बाजार में उतारने की घोषणा के बाद वैश्विक दवा कंपनियों में हड़कंप मच गया है। दवा निर्माता पतंजलि आयुर्वेद को गरियाने मैदान में उतरे कमीशनखोरों ने बाबा रामदेव पर तरह तरह से आरोपों की झड़ी लगा दी है। वे दवा का क्लीनिकल ट्रायल नहीं होने के आरोप लगा रहे हैं। इस दवा को बनाने में प्रयुक्त हुईं तमाम जड़ी बूटियां सदियों से वायरसों को पराजित करती रहीं हैं। सार्वकालिक उपयोगिता सिद्ध कर चुकी इन जड़ी बूटियों पर निशाना साधने वाले लोग दवा की सफलता पर तुक्केबाजी भरे आरोप लगा रहे हैं। वे ये सोचने तैयार भी नहीं कि यदि भारत के आयुर्वेदाचार्यों ने वायरस की वैक्सीन का तोड़ देसी ढंग से निकाल लिया है तो इसमें नुक्सान क्या है। इस दवा को बनाने की विधि और उसमें शामिल जड़ी बूटियों की सदियों से क्लीनिकल ट्रायल होती रही है। जिन दवाओं की प्रमाणिकता जन जन के बीच सिद्ध है उन्हें कानून की तलवार लेकर बैठे सरकारी अफसरों की क्लीनचिट की जरूरत नहीं है।

दरअसल स्वास्थ्य के नाम पर विश्व भर में जो दवा उद्योग फैला हुआ है वह सुई की जगह तलवार का इस्तेमाल करके अपनी उपयोगिता सिद्ध करता रहा है। कोरोना के उपचार के लिए भी दुनिया भर की लगभग 130 कंपनियां अपना वैक्सीन बनाने में जुटी हैं। 11 कंपनियों की वैक्सीनों को तो विश्व स्वास्थ्य संगठन अपनी मंजूरी देने बेकरार बैठा है। अभी कोरोना के इलाज की जो विधि दुनिया भर में अपनाई जा रही है उसमें पहले रोगी का टेस्ट किया जाता है। लगभग पांच हजार भारतीय रुपयों की कीमत वाले इस टेस्ट के बाद पता चलता है कि रोगी कोरोना संक्रमित तो नहीं है। इसके बाद संक्रमित रोगियों का उपचार शुरु किया जाता है। ये उपचार पूरी तरह तुक्केबाजी पर टिका है और अन्य रोगों के लिए बनाई गई दवाईयों और विटामिनों के इस्तेमाल से इलाज किया जाता है। जिन रोगियों में डबल निमोनिया जैसे लक्षण पैदा हो जाते हैं और वे सांस नहीं ले पाते उन्हें वैंटीलेटर पर डाल दिया जाता है। जरा सी असावधानी रोगी की जान ले लेती है। नतीजतन तमाम आधुनिक चिकित्सा के उपयोग के बाद दुनिया के पांच लाख लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। दरअसल कोरोना का हौवा खड़ा करने में जिन कंपनियों ने अपनी जमा पूंजी लगा दी है उन्हें यदि देशी फार्मूले ने परास्त कर दिया तो उन कंपनियों का तो दिवाला निकल जाएगा।

जबकि भारत की दवा निर्माता कंपनी पतंजलि आयुर्वेद ने दावा किया कि कोरोनिल टैबलेट और श्वासारि बटी दवाओं से कोविड-19 का इलाज किया जा सकेगा। अणु तेल का प्रयोग करने की सलाह तो बाबा रामदेव पहले से देते रहे हैं। पतंजलि योगपीठ ने यह भी दावा किया कि उसने इसका क्लिनिकल ट्रायल किया है और सौ फीसदी कोरोना संक्रमित लोगों को मौत के मुंह से बाहर निकाला है। जब इस घोषणा से वायरस पर शोध कर रहीं दुनिया भर की कंपनियों ने दबाव बनाना शुरु किया तो वैश्विक व्यापार संधियों में जकड़ी भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने दवा के प्रचार पर रोक लगाकर पूरी प्रक्रिया की जांच शुरु कर दी।

हालांकि पतंजलि आयुर्वेद के चेयरमैन आचार्य बालकृष्ण ने इसे ‘कम्युनिकेशन गैप’ बताते हुए यह दावा किया है कि ‘उनकी कंपनी ने आयुष मंत्रालय को सारी जानकारी दे दी है।’ बालकृष्ण ने अपने ट्वीट में लिखा है कि “यह सरकार आयुर्वेद को प्रोत्साहन व गौरव देने वाली है। क्लिनिकल ट्रायल के जितने भी तय मानक हैं, उन 100 प्रतिशत पूरा किया गया है।”

सामान्य परिस्थितियों में किसी दवा को विकसित करने और उसका क्लिनिकल ट्रायल पूरा होने में कम से कम तीन साल तक का समय लगता है लेकिन अगर स्थिति अपातकालीन हो तो भी किसी दवा को बाज़ार में आने में कम से कम दस महीने से सालभर तक का समय लग जाता है। कोरोनिल में प्रयुक्त सभी जड़ी बूटियां कालातीत हैं और अनुभव व समय की कसौटी पर खरी साबित हो चुकी हैं।

भारत में किसी दवा या ड्रग को बाज़ार में उतारने से पहले किसी व्यक्ति, संस्था या स्पॉन्सर को कई चरणों से होकर गुज़रना होता है. इसे आम भाषा में ड्रग अप्रूवल प्रोसेस कहते हैं। अप्रूवल प्रोसेस के तहत, क्लिनिकल ट्रायल के लिए आवेदन करना, क्लिनिकल ट्रायल कराना, मार्केटिंग ऑथराइज़ेशन के लिए आवेदन करना और पोस्ट मार्केटिंग स्ट्रेटजी जैसे कई चरण आते हैं। भारत का औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम 1940 और नियम 1945 औषधियों तथा प्रसाधनों के निर्माण, बिक्री और वितरण को विनियमित करता है.

औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम 1940 और नियम 1945 के अंतर्गत ही भारत सरकार का केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ- ) दवाओं के अनुमोदन, परीक्षणों का संचालन, दवाओं के मानक तैयार करने, देश में आयातित होने वाली दवाओं की गुणवत्ता पर नियंत्रण और राज्य दवा नियंत्रण संगठनों को विशेष सलाह देते हुए औषधि और प्रसाधन सामग्री के लिए उत्तरदायी है।

ड्रग रिसर्च एंड मैन्युफ़ैक्चरिंग विशेषज्ञों के अनुसार भारत में किसी दवा के अप्रूवल के लिए सबसे पहले इंवेस्टिगेशनल न्यू ड्रग एप्लिकेशन यानी आईएनडी को सीडीएससीओ के मुख्यालय में जमा करना होता है। इसके बाद न्यू ड्रग डिवीज़न इसका परीक्षण करता है। इस परीक्षण के बाद आईएनडी कमेटी इसका गहन अध्ययन और समीक्षा करती है।इस समीक्षा के बाद इस नई दवा को ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया के पास भेजा जाता है।अगर ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया, आईएनडी के इस आवेदन को सहमति दे देते हैं तो इसके बाद कहीं जाकर क्लिनिकल ट्रायल की बारी आती है। क्लिनिकल ट्रायल के चरण पूरे होने के बाद सीडीएससीओ के पास दोबारा एक आवेदन करना होता है। यह आवेदन न्यू ड्रग रजिस्ट्रेशन के लिए होता है.

एक बार फिर ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया इसकी समीक्षा करता है। अगर यह नई दवा सभी मानकों पर खरी उतरती है तब इसके लिए लाइसेंस जारी किया जाता है। दवा यदि सभी मानकों पर खरी नहीं उतरती है तो डीसीजीआई इसे रद्द कर देता है।भारत में किसी नई दवा के लिए अगर लाइसेंस हासिल करना है तो कई मानकों का ध्यान रखना होता है। यह सभी मानक औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम 1940 और नियम 1945 के तहत आते हैं।नई दवा दो तरह की हो सकती है. एक तो वो जिसके बारे में पहले कभी पता ही नहीं था. इसे एनसीई कहते हैं। ये एक ऐसी दवा होती है जिसमें कोई नया केमिकल कंपाउंड हो। दूसरी नई दवा उसे कहा जाता है जिसमें कंपाउंड तो पहले से ज्ञात हों लेकिन उनका फ़ॉर्मूलेशन अलग हो। मसलन जो दवा अभी तक टैबलेट के तौर पर दी जाती रही उसे अब स्प्रे के रूप में दिया जाने लगा हो। ये नई दवा के दो रूप हैं लेकिन इनके लाइसेंसिंग अप्रूवल के लिए नियम एक ही होंगे।

अंग्रेज़ी दवा और आयुर्वेंदिक दवा के लिए अप्रूवल मिलने में बहुत अंतर नहीं है लेकिन आयुर्वेद में अगर किसी प्रतिष्ठित किताब के अनुरूप कोई दवा तैयार की गई है तो उसे आयुष मंत्रालय तुरंत अप्रूवल दे देगा। जबकि एलोपैथी में ऐसा नहीं है।“आयुर्वेद प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति है।जिसमें किसी जड़ी-बूटी को किस मात्रा में, किस रूप में और किस इस्तेमाल के लिए अपनाया जा रहा है सबका लिखित ज़िक्र है। ऐसे में अगर कोई ठीक उसी रूप में अनुपालन करते हुए कोई औषधि तैयार कर रहा है तब तो ठीक है लेकिन अगर कोई काढ़े की जगह टैबलेट बना रहा है और मात्राओं के साथ हेर-फेर कर रहा है तो उसे सबसे पहले इसके लिए रेफ़रेंस देना होता है।”

अगर आप किसी प्राचीन और मान्य आयुर्वेद संहिता को आधार बनाकर कोई दवा तैयार कर रहे हैं तो आपको क्लिनिकल ट्रायल में जाने की ज़रूरत नहीं है लेकिन अगर आप उसमें कुछ बदलाव कर रहे हैं या उसकी अवस्था को बदल रहे हैं और बाज़ार में उतारना चाहते हैं तो कुछ शर्तों को पूरा करने के बाद ही आप उसे बाज़ार में ला सकेंगे। ऐसा नहीं है कि किसी ने कुछ भी बनाया और बाज़ार में बेचने लगा।”

एनपीपीए यानी नेशनल फ़ार्मास्युटिकल अथॉरिटी ढांचे के साथ देश के हर राज्य में स्टेट ड्रग कंट्रोलर होते हैं, जो अपने राज्य में दवा के निर्माण के लिए लाइसेंस जारी करते हैं। जिस राज्य में दवा का निर्माण होना है, वहां स्टेट ड्रग कंट्रोलर से अप्रूवल लेना होता है। नेशनल फ़ार्मास्युटिकल अथॉरिटी भी दवाओं की निगरानी करती है,अगर कोई नई दवा ही नहीं बल्कि कोई शेड्यूल ड्रग भी बाज़ार में लाया जा रहा है तो उसे बाज़ार में लाने से पहले उसकी क़ीमत तय की जाएगी। जिसके लिए नेशनल फ़ार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी से अप्रूवल लेना होगा। शेड्यूल ड्रग्स का मतलब ऐसी दवाओं से है जो पहले से ही नेशनल लिस्ट ऑफ़ एसेंशियल लिस्ट में शामिल हों। इन मानक नियमों की अनदेखी होने पर लाइसेंस रद्द भी हो सकता है।

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