इंसानियत का महामार्ग है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

डॉ. अनिल सौमित्र

देश के वर्तमान प्रधानमंत्री राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे हैं l प्रचारक और संचारक लगभग समानार्थी है l संघ का प्रत्येक स्वयंसेवक एक कुशल संचारक होता है l इसी प्रकार एक प्रचारक में श्रेष्ठ संचारक के सारे गुण विद्यमान होते हैं l प्रधानमंत्री श्री मोदी टेक्नोसेवी भी हैं l वे संचार के परम्परागत, आधुनिक और अत्याधुनिक साधनों का खूब इस्तेमाल करते हैं l एक अर्थ में वे भारत के वैश्विक संचारक और प्रचारक प्रतीत होते हैं l श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी के संचार कौशल के करोड़ों मुरीद हैं l इसमें बड़ी संख्या संघ के स्वयंसेवकों की भी है l श्री मोदी की संचार साधना में आभासी और वास्तविक संचार का संतुलन कमाल का है l यह आदर्श और अनुसरण योग्य है l लेकिन यह आधा सच है l इसके आगे की बात यह है कि संघ में संचार प्रणाली, प्रकिया, संचार माध्यमों और उपकरणों को लेकर अंतर्द्वन्द्व और कशमकश की स्थिति है l संघ के अनेक अधिकारी, वरिष्ठ कार्यकर्ता और स्वयंसेवक हैं जिनकी आभासी सक्रियता वास्तविक गतिशीलता की तुलना में नगण्य है l हाल ही में संघ के उच्च अधिकारियों का ट्विटर खाता खुला, लेकिन उसमें अंतरण न के बराबर

है l

संचार पुरानी अवधारणा है l समाज और संघ अपेक्षाकृत नई अवधारणा है l संघ अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ l यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है l नित्य गतिशील शाखा के माध्यम से संघ सामाजिक परिवर्तन और पुनर्रचना के लिए प्रयासरत है l सामान्य तौर पर कहा जा सकता है कि समाज में मत-निर्माण, मत परिवर्तन, विचार परिमार्जन, लोकमत परिष्कार और व्यवहार परिवर्तन ही संघ का मुख्य कार्य है l संघ का यह प्रयास लोगों के साथ निरंतर संपर्क और संवाद पर आधारित है l इसके सम्पूर्ण प्रयासों के केंद्र में सुनियोजित, सुसंगत और सम्यक संचार व सम्प्रेषण ही है l संघ के योजनाकार और विचारक यह भली-भांति जानते हैं कि जैसे मनुष्य के लिए हवा और पानी आवश्यक है, वैसे ही समाज के लिए संचार जरूरी है l यही कारण है कि संघ ने संचार प्रक्रिया, पद्धति और तकनीक पर शुरू से ही गंभीर दृष्टि रखी है l संघ ने संगठन और समाज की आवश्यकताओं के अनुसार संचार प्रविधि व प्रक्रिया में युक्तिसंगत परिवर्तन भी किये

हैं l संघ ने शाखा, स्वयंसेवक, और प्रचारक को संचार-तंत्र के रूप में विकसित किया है l संघ का पूरा ताना-बाना ही संचार आधारित है l संघ के प्रारम्भ से ही संचार और जनसंचार के विभिन्न माध्यमों का नियोजित उपयोग देखने को मिलता है l स्वयंसेवकों का व्यापक तंत्र ही संघ की सूचना प्रौद्योगिकी है l स्वयंसेवकों के माध्यम से संघ की विचारधारा प्रवाहित या संप्रेषित होती है l स्वयंसेवक में संपर्क, परिचय और नियमित संवाद के द्वारा विचारधारा को विस्तार देने का गुण विद्यमान होता है l

संचार विशेषज्ञों के अनुसार, मनुष्य और समाज की ही तरह प्रौद्योगिकी की भी अपनी विचारधारा होती है l यह विचारधारा भले ही वैचारिक संगठनों की तरह न होती हो, लेकिन प्रौद्योगिकी भी अपनी विचारधारा को सतत आगे बढाने, अपने अनुसरणकर्ताओं की संख्या बढाने, उनमें उपयोग की आदत डालने की कोशिश करता है l इसमें उपयोगर्ताओं के साथ ही अन्य लोगों को प्रभावित करने का गुण विद्यमान होता है l सामान्यत: विचारधारा की दृष्टि से स्वयंसेवक और तकनीक अतुलनीय है l लेकिन जब हम सामाजिक अंत:क्रिया के परिप्रेक्ष्य में विचार करते हैं तो विचारधारा के प्रचार-प्रसार में तकनीक और स्वयंसेवक की तुलना की जा सकती है l किसी भी संगठन के कार्यकर्ता में अगर मानवीय गुणों को पृथक कर दें तो वह सिर्फ मशीन या प्रौद्योगिकी के सामान ही होगा l कमोबेश यही स्थिति संघ के स्वयंसेवकों में भी संभावित है l अगर स्वयंसेवकों में मानवीयता का गुण न हो तो उनमें और प्रौद्योगिकी की विचारधारा में अंतर नगण्य रह जाएगा l इसलिए कहा जा सकता है कि संघ के स्वयंसेवकों की विचारधारा मानवीय है, किन्तु प्रौद्योगिकी की विचारधारा अमानवीय l तो क्या तकनीक का अनियोजित, अनियंत्रित उपयोग, उसकी आदत और उसका अनुसरण व्यक्ति, समाज और संगठन को अमानवीय बना सकता है? अगर ऐसा है तो दुनियाभर में क्यों प्रौद्योगिकी का इतना उपयोग हो रहा है? मानव संगठनों में इसका दिनों-दिन बढता उपयोग क्या चिंता का विषय है?

भारत और दुनिया में मानव समाज को संगठित करने के काम में सन 1925 से ही प्रयासरत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रारम्भिक समय से ही प्रौद्योगिकी के बारे में अन्य संगठनों से भिन्न विचार रखता रहा है l इसीलिये आरएसएस की स्थापना के शुरुआती दिनों में मानव संसाधन के अलावा अन्य सभी संसाधनों से एक निश्चित दूरी की परम्परा रही l कार्यक्रमों, गतिविधियों और योजनाओं का समाचार देना भी बहुत आवश्यक नहीं समझा जाता था l संचार तकनीक को तो तिरस्कार भाव से ही देखा जाता था l डोर टू डोर, मैन टू मैन और हार्ट टू हार्ट संचार सिर्फ संयोग नहीं, बल्कि संघ की सुदीर्घ नीति रही है l यद्यपि संघ के सिद्धांत और दर्शन में तो यह आज भी विद्यमान है, लेकिन व्यवहार में विचलन प्रतीत होता है l सकारात्मक या नकारात्मक, किसी भी प्रकार की सूचना को प्रसारित करने की संघ की विशिष्ट शैली रही है l संघ ने संवाद की भारतीय पद्धति और प्रारूप (माडल) को ही अपनाया है l अनेक अनूकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में सूचना-सम्प्रेषण का यह प्रारूप सफलतापूर्वक उपयोग किया जाता रहा है l आरएसएस की संगठनात्मक गठ संरचना सूचना-सम्प्रेषण की अदभुत व्यवस्था है l दरअसल यह संघ की संचार प्रौद्योगिकी ही है, जिसका लोहा उसके विरोधी भी मानते हैं l जैसे डिजिटल संचार के तहत कंप्यूटर का संजाल दुनियाभर में एक-दूसरे से जुड़ा है, ठीक वैसे ही संघ के स्वयंसेवकों का संजाल है, जो अल्प समय में अत्यंत तीव्र गति से संदेशों को संप्रेषित करने में सक्षम है l अनेक विषम परिस्थितियों और आपदाओं में संघ ने इस सूचना तंत्र का सकारात्मक उपयोग किया है l हांलाकि संघ की इस संचार क्षमता का मधु लिमये जैसे समाजवादी चिंतक व वैचारिक विरोधी ‘रियुमर्स स्प्रेडिंग सोसाइटी’ (आरएसएस) कह कर आलोचना करते रहे l

कई शोधकर्ताओं और विश्लेषकों ने इस तथ्य का उल्लेख किया है कि कि संघ की सूचना प्रणाली को वर्तमान या आधुनिक संचार तकनीक ने काफी प्रभावित किया है l गत 20-25 वर्षों में संचार, विशेषकर संचार तकनीक में आमूल-चूल परिवर्तन होता दिखाई देता है l इसके कारण संघ की कार्यशैली, विशेषकर संपर्क और संवाद शैली में भी परिवर्तन हुआ है l सूचनाओं के तीव्र और गहन सम्प्रेषण के दौर में संघ के स्वयंसेवक भी पीछे नहीं रहना चाहते l संघ के विचारक प्रौद्योगिकी की विचारधारा और उसके प्रभावों से बखूबी वाकिफ हैं l वे भली-भाँति जानते हैं कि संचार-प्रौद्योगिकी अब लोगों की जरूरत और बहुत हद तक मजबूरी बन चुकी है l संचार तकनीक या सूचना प्रौद्योगिकी एक आवश्यक बुराई के रूप में ही सही, लेकिन स्वीकार्य हो चुका है l संघ में बौद्धिक विभाग के साथ ही बकायदा एक प्रचार विभाग भी है जो वर्षों से स्वयंसेवकों में प्रचार के महत्त्व का प्रतिपादन करता आ रहा है l यह प्रचार विभाग स्वयंसेवकों से ज्यादा समाज में विचार और सूचना सम्प्रेषण के लिए है l लेकिन तकनीक का प्रभाव ऐसा बढा है कि इससे संघ का स्वयं का तंत्र भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका है l दुनियाभर में विचार फैलाने और प्रतिगामी व विरोधी विचारों जवाब देने से लेकर संगठन के आतंरिक सूचना-प्रवाह तक में संचार- प्रौद्योगिकी की भूमिका अत्यधिक बढ़ गई है l इसमें कुछ तो तकनीक के इस्तेमाल का फैशन है, देखा-देखी है, लेकिन बहुत कुछ तकनीकी-उदारीकरण का प्रभाव भी है l संघ में अब सिर्फ बौद्धिक और प्रचार के लिए ही नहीं, बल्कि शारीरिक प्रशिक्षण के लिए भी संचार तकनीक का उपयोग आम चलन में है l

एक समय था जब संघ में टेलीफोन से किसी कार्यक्रम की सूचना देना भी मजबूरी समझा जाता था, लेकिन आज ई-मेल, फेसबुक मैसेंजर, वाट्सेप, एसएमएस, गूगल हैंग-आउट आदि कम्प्युटर और मोबाईल फोन आधारित संचार-तकनीक के द्वारा सूचनाओं का आदान-प्रदान सामान्य-सी बात है l संघ की गठ-संरचना अब मोबाइल ‘एसएमएस-ग्रुप’ या वाट्सेप व्यवस्था पर अवलंबित हो चुकी है l संघ में स्मार्टफोन, आईपौड, आईपैड और लैपटाप से परहेज करने वाले अब कम ही बचे हैं l डिजिटल संचार माध्यमों से परहेज करने वाले इक्के-दुक्के लोग संघ के भीतर भी आधुनिकता विरोधी और रूढ़िवादी माने जाने लगे हैं l संचार-तकनीक का उपयोग करने वालों का अपना तर्क है l यद्यपि आधुनिक संचार तकनीक से परहेज करने वाले संघ में अल्पसंख्यक हैं, लेकिन उनका भी अपना मजबूत तर्क है l सूचना सम्प्रेषण के अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग करने वाले इसके गुण और फायदे बताते हैं, जबकि पारंपरिक संचार के समर्थक सूचना-प्रौद्योगिकी के नकारात्मक पहलुओं को उजागर कर इससे बचने की सलाह देते हैं l

कई मुद्दों की तरह संचार पद्धति को लेकर संघ के भीतर एक कश्मकश की स्थिति बरकरार है l इस मामले में भी संघ ‘चिर पुरातन और नित्य-नूतन’ दो खेमों में बंटा है l एक तर्क ये है कि अगर युवाओं को जोडना है, दुनिया में विचारधारा को फैलाना है, भारत को दुनिया में सिरमौर बनाना है तो आज के चाल-चलन और तौर-तरीके को स्वीकारना ही होगा l तकनीक के प्रयोग में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना ही होगा l नई सोच के तरफदार हर क्षेत्र की तरह संचार क्षेत्र में भी संघ को सिरमौर होता हुआ देखना चाहते हैं l लेकिन संघ के भीतर एक तबका ऐसा है जो संघ की विचारधारा के साथ तकनीक की विचारधारा को भी बखूबी समझता है l वह तकनीक की ताकत को जानता है l वह डरता है कि “संघौ शक्ति कलियुगे” कहीं ‘तकनीकौ शक्ति कलियुगे’ न बन जाए l उसे डर है कि तकनीक का आकर्षण परम्परागत व्यवहार पद्धति पर भारी न पड़ जाए l तकनीक स्वयंसेवकों और समाज की आदत न बन जाए l इस मामले में वे महात्मा गांधी की सीख को भूलना नहीं चाहते जिसमें उन्होंने मानव सभ्यता के तकनीकीकरण का विरोध किया है l संघ का यह तबका गांधी जी की ही तरह प्रकृति आधारित मानव-सभ्यता के विकास का समर्थक है l इसी कारण वह इस सभ्यता के विधायक गुणतत्वों – धर्म, नीति, मूल्य आदि को बढ़ावा देना चाहता है l जबकि चर्च (ईसाइयत) पोषित वर्तमान सभ्यता यन्त्र, तकनीक, मशीन और प्रौद्योगिकी आधारित है l यह विविधता और विकेंद्रीकरण का विरोधी है l संचार-तकनीक की भी यही प्रवृत्ति प्रतीत होती है l

हालांकि आज संघ के भीतर और संघ समर्थकों के द्वारा आधुनिक सूचना तकनीक का उपयोग करने की होड-सी दिख रही है l मोबाईल फोन के अत्याधुनिक एप्लीकेशन, इंटरनेट अनुसमर्थित – वेबसाईट, ब्लॉग, सोशल नेटवर्क और इलेक्ट्रानिक जनमाध्यमों के उपयोग में संघ के स्वयंसेवक किसी से भी पीछे नहीं हैं l संघ में तकनीक विरोधी अब अल्पसंख्यक हो चुके हैं l तो क्या यह मान लेना उचित होगा कि संघ के लिए संचार-तकनीक के उपयोग का लाभ-ही-लाभ है? कोई हानि नहीं, कोई नुकसान नहीं? क्या यह मान लिया जाए कि संघ, विचारधारा की दुनियावी लड़ाई में तकनीक के सहारे सबको पछाड़ ही देगा? क्या तकनीक की विचारधारा का संघ की विचारधारा पर कोई प्रभाव नहीं होगा? क्या संघ पर तकनीक बे-असर है? क्या यह मान लेना मुनासिब होगा कि तकनीक के सहारे स्वयंसेवकों की संघ-साधना डा. हेडगेवार के अभीष्ट को बिना किसी हानि के प्राप्त कर लेगी ? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके प्रति संघ के आधुनिकतावादी शायद बेपरवाह हैं l शायद उन्हें लगता है, अभी सोचने का नहीं, सबसे आगे निकल जाने करने का वक्त है ! लेकिन संघ के परम्परावादी चिंतित हैं l वे कट्टर और रूढ़िवादी होने के आरोपों से बेपरवाह संघ में तकनीकी अनुप्रयोगों पर लगाम लगाने, इसे नियंत्रित और नियोजित करने की हर संभव कोशिश में हैं l

कुछ लोग भले ही तकनीक को नई सभ्यता का सिर्फ एक औजार भर मानते हों l लेकिन इस औजार का भी गलत उपयोग होना संभावित है l इस बात का खतरा तो है ही कि प्रौद्योगिकी आधारित संचार प्रक्रिया समाज में अमानवीय-संचार को बढ़ावा दे दे l डोर टू डोर, मैन टू मैन और हार्ट टू हार्ट की प्रतिस्थापना कम्प्युटर टू कम्प्युटर, फोन टू फोन, मेल-टू-मेल और व्हाट्सेप टू व्हाट्सेप के रूप में होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता l यह भी संभव है कि स्वयंसेवकों की मानवीय विचारधारा को तकनीक की अमानवीय विचारधारा प्रभावित कर दे l तब शायद संघ सबसे तेज, सबसे आगे और सबसे बड़ा होकर भी निष्फल रह जाए! संघ वह न रहे जिसके लिए संघ है l पवित्र साध्य के लिए साधन की पवित्रता को कैसे झुठलाया जा सकता है l संघ के परम्परावादी साधन की पवित्रता और मानवीयता के सवाल पर सजग हैं, अपना पक्ष लेकर संघ में खड़े, समाज में डटे हैं l यह सही वक्त है कि संघ के आधुनिकतावादी भी संचार प्रौद्योगिकी की चकाचौंध में अपनी आँखें न भींचे – तकनीक के उपयोग के साथ उसकी विचारधारा को भी परखें !

चूंकि संघ समाज के लिए, समाज में और समाज के द्वारा कार्य करता है l आज संघ मानव गतिविधि से जुड़े लगभग सभी क्षेत्रों में सक्रिय है l नि:सन्देश संघ कार्य की धुरी मनुष्य है l कोई भी उपकरण, मशीन, तकनीक या प्रौद्योगिकी संघ कार्य के लिए साधन मात्र हो सकता है, लेकिन लक्षित क्षेत्र तो मनुष्य और समाज ही है l संघ इस बात के लिए दृढ निश्चयी है की मानव सभ्यता को देव सभ्यता (प्रकृति उन्मुखी) की ओर ले जाना है, न कि दानव सभ्यता (मशीनोन्मुखी) की ओर l इसलिए संघ के योजनाकार संचार और संवाद के लिए भी मानवीय गुणों से युक्त संचार प्रारूप को ही श्रेष्ठ और युक्तिसंगत मानते हैं l इंटरनेट, कम्प्युटर, मोबाईल फोन आदि डिजिटल व तकनीक (उपकरण) आधारित सूचना तंत्र संघ को फौरी तौर पर मजबूरी में या आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार्य तो हो सकता है, लेकिन नीतिगत और दीर्घकालिक रूप से यह त्याज्य ही होगा l

संघ को यह बखूबी पता है कि वर्तमान सूचना तकनीक ने एक अलग दुनिया निर्मित कर दी है जिसे संचार विशेषज्ञ ‘आभासी दुनिया’ कहते हैं l इस नव-निर्मित आभासी दुनिया और वास्तविक दुनिया में जमीन-आसमान का अंतर है l जो लोग जब भी, जितनी देर तक तकनीक के साथ आभासी दुनिया में होते हैं तो वे वास्तविक दुनिया से अलग-थलग हो जाते हैं l इस दुनिया में व्यक्ति अकेला होता है और उसके साथ होते हैं कम्प्यूटर, मोबाइल, गैजेट, चित्र, संकेत, ध्वनियाँ आदि l संघ को आभासी नहीं, वास्तविक दुनिया में काम करना है l इसलिए उसके लिए उपकरण और तकनीक से अधिक मानवीय गुणों- संवेदना, भावना आदि के साथ मनुष्य के मस्तिष्क और ह्रदय की चिंता है l संघ मानवीय समाज के विकास और सशक्तिकरण के लिए प्रतिबद्ध है, न कि मशीनी या तकनीकी समाज के लिए l

( लेखक संचार और संघ विचारों के अध्येता हैं )

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