कश्मीर के कलंक को सिंधिया के मुखौटे से छिपाती कांग्रेस

कश्मीर से धारा 370 हटाकर मोदी सरकार ने देश के विकास का राजमार्ग प्रशस्त कर दिया है।सत्तर सालों से नासूर की तरह टीस झेल रहा कश्मीर भी एक नए युग में प्रवेश कर रहा है।जब सारे देश में रियासतों का एकीकरण हो रहा था तब एक अनोखा कश्मीर ही था जो भारतीय गणतंत्र में विलीन हुए बगैर अपनी अलग पहचान बनाने की रट लगाए था। इसकी पृष्ठभूमि पं. जवाहर लाल नेहरू ने तैयार की थी। सेब के बगीचों को अपनी राजनैतिक रियासत बनाने के लोभ ने नेहरू की भूमिका इतनी संकीर्ण बना दी थी कि वे कश्मीर के कथित विद्रोह से संरक्षक बन गए थे। बाद में चिकित्सकों की एसोसिएशन के माध्यम से उन्होंने डाक्टरों के (प्रिस्क्रिप्शन) परचे में रोगियों को रोज सेब खाने की हिदायत लिखवानी शुरु करवा दी। पूरे देश के रोगियों को तभी से अंग्रेजी दवाओं के डाक्टर सेब खिलवा रहे हैं। जबकि आयुर्वेदिक चिकित्सा में रोगियों को लाल टमाटर पर काला नमक और काली मिर्च बुरककर खिलाने की सलाह दी जाती है। यही वजह है कि 72 सालों से समूचा भारत कश्मीर समस्या झेल रहा है। तबसे देश के हजारों जवान कश्मीर की सरजमीं को बचाए रखने के लिए अपनी शहादत दे चुके हैं। लाखों कश्मीरियों ने कथित जेहाद के नाम पर अपनी जान गंवाई है। विशेष दर्जे की वजह से हर साल भारत को कश्मीर पर भारी धन खर्च करना पड़ता है। सैन्य आधुनिकीकरण के नाम पर भारी रक्षा बजट खर्च करना पड़ता है। अब उम्मीद की जा रही है कि कश्मीर समस्या हमेशा के लिए सुलझ सकेगी।

देश की सबसे बड़ी पंचायत में जब धारा 370 (1) के अन्य सभी प्रावधानों को निरस्त करने की बहस चल रही थी तब गांधी परिवार की वजह से ही कांग्रेस इस बिल का विरोध कर रही थी। कांग्रेस ने गुलाम नबी आजाद को अपनी आवाज बनाया। उन्होंने धारा 370 बरकरार रखने की जबर्दस्त पैरवी की। समर्थन में कहा गया कि यदि ये धारा हटाई जाती है तो कश्मीर का उग्रवाद फिलिस्तीन के समान शोला बन जाएगा। सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति के आगे ये प्रतिरोध नहीं टिक सका। अंततः धारा 370 की बेड़ियों से कश्मीर आजाद हो ही गया। आने वाले पंद्रह अगस्त को मोदी सरकार ने देश के लिए सबसे बड़ी सौगात अभी से दे दी है।

ये सौभाग्य की बात है कि इन दिनों कांग्रेस अध्यक्ष विहीन है। इस वजह से सांसदों के बीच वो संगठनात्मक कसावट नहीं है जो किसी बिल पास कराने या खारिज कराने के लिए जरूरी होती है। यही वजह है कि जब कांग्रेस इस बिल के विरोध में मतदान कर रही थी तब कई सांसद खुलकर सरकार के साथ आ गए।कांग्रेस के चीफ व्हिप भुवनेश्वर कलीता ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने कहा कि पार्टी ने मुझे देश के मूड के खिलाफ व्हिप जारी करने को कहा था। पार्टी आत्महत्या कर रही है। मैं इसका भागीदार नहीं बनना चाहता। दीपेन्द्र हुड्डा और मिलिंद देवड़ा ने भी पार्टी से अलग रुख अपनाया। जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि आजादी के समय जो भूल हुई थी उसे सुधारा जाना स्वागत योग्य है। नतीजा ये रहा कि जम्मू कश्मीर को दो केन्द्र शासित प्रदेशों में बांटने का बिल जब राज्यसभा में पेश हुआ तो इसके पक्ष में 125 और विरोध में 61 वोट पड़े। कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ने बिल का विरोध किया जबकि बसपा जैसे विरोधी दल समर्थन में रहे। इस घटना ने कांग्रेस की रणनीतिक हार को उजागर कर दिया है।

अब जबकि पूरे देश में इस फैसले का जबर्दस्त अभिनंदन किया जा रहा है तब कांग्रेस अपनी भूल सुधारने की निरर्थक कोशिश कर रही है। राहुल गांधी के करीबी ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ट्वीट करके कहा कि वे सरकार के इस फैसले का समर्थन करते हैं। साथ में ये पुछल्ला भी जोड़ दिया कि यदि सरकार संवैधानिक तरीकों का पालन करती तो ज्यादा अच्छा होता। जबकि सरकार ने ये कदम कानूनी एहतियात के अंतर्गत उठाया है। जिस संसद की आड़ लेकर राष्ट्रपति से ये कानून लागू करवाया गया था उसी संसद की सलाह पर राष्ट्रपति ने कानून को रदद् कर दिया। कहा गया कि जम्मू कश्मीर की विधानसभा ने इसे स्वीकार किया था और उसकी अनुमति के बगैर धारा को नहीं हटाया जा सकता। जबकि अभी कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा हुआ है। जाहिर है ऐसे में किसी प्रकार की संवैधानिक अड़चन आड़े नहीं आती है।

कांग्रेस की रणनीति हर कदम पर असफल साबित हुई है। जब धारा 370 हट चुकी है और कश्मीर के भीतर भी इसे लेकर सहमति का भाव बन चुका है तब कांग्रेस अपनी करतूतों पर लीपापोती करती नजर आ रही है। इसी रणनीति के चलते ज्योतिरादित्य सिंधिया से ये बयान जारी करवाया गया है। हालांकि इसका कोई औचित्य नहीं है। न तो वे इन दिनों किसी संवैधानिक पद पर हैं और न ही निर्वाचित जन प्रतिनिधि हैं। इसके बावजूद उनका बयान पार्टी के भीतर उठते असहमति के स्वरों को सहारा देने की कवायद जरूर है। यही वजह है कि अब पार्टी के कई नेतागण सरकार के फैसले का समर्थन ये कहते हुए कर रहे हैं कि ये देशहित का मसला है इसलिए वे इससे सहमत हैं।

जो लोग ये अटकलें लगा रहे हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया पार्टी से असहमत हैं और उनकी नाराजगी मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार को अस्थिर कर सकती है वे केवल कांग्रेस को मुखौटे को वास्तविकता का जामा पहनाने का प्रयास कर रहे हैं। इसके बावजूद सिंधिया के बयान कांग्रेस के इस मुखौटे की सच्चाई उजागर कर रहे हैं। सिंधिया समर्थक मंत्रियों से बयान जारी करवाकर ऐसा बताने की कोशिश की गई कि सिंधिया की राय ही पार्टी की राय है। ये भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस सिंधिया को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना सकती है। हालांकि इसकी संभावना बहुत कम है। सिंधिया को मध्यप्रदेश कांग्रेस का ही बड़ा धड़ा अपना नेता नहीं मानता है। ऐसे में राहुल गांधी भी चाहें कि वे सिंधिया को अपना प्रतिनिधि अध्यक्ष बना दें तो वे कारगर साबित नहीं होंगे।

ये बात भी सही है कि कांग्रेस इन दिनों ऊहापोह से गुजर रही है। उसे अपनी नीतियों पर नए सिरे से विचार करना जरूरी हो गया है। आजादी के दौर की कांग्रेस को छोड़कर इंदिरा कांग्रेस ने जो एकाधिकारवादी रणनीति अपनाई थी वो बाजारवाद की आंधी में अप्रासंगिक हो चली है। ऐसे में कांग्रेस को तय करना होगा कि वो अपने ही नेताओं के बनाए सरकारीकरण के ढांचे का विरोध कैसे करे।फिलहाल तो कांग्रेस के सामने खुद का अस्तित्व बचाए रखने की बड़ी चुनौती है। इसलिए वो चाहकर भी सिंधिया के मुखौटे के पीछे भी अपना चेहरा नहीं छुपा पा रही है।

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