लोकप्रियता के समुंदर से सार्थकता के रत्न ढूंढती भाजपा

-आलोक सिंघई-
भारत के चुनाव आयुक्त और मध्यप्रदेश कैडर के 1977 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे ओ.पी.रावत ने दो टूक लहजे में कहा है कि राजनीतिक पार्टियां केवल चुनाव जीतने का लक्ष्य लेकर चल रहीं हैं। इसमें नैतिकता को ताक पर धर दिया जा रहा है। लोकतंत्र तभी सार्थक है जब निष्पक्षता और पारदर्शिता को बनाए रखा जाए। उन्होंने ये सलाह गुजरात राज्यसभा चुनाव में दो कांग्रेस विधायकों की क्रास वोटिंग के मुद्दे पर दी है। ये सलाह भी तब आई है जब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह मध्यप्रदेश के दौरे पर आए हैं। श्री रावत स्वयं मध्यप्रदेश कैडर के आईएएस अधिकारी हैं। वे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के राजनीतिक गुरु सुंदरलाल पटवा के भी करीबी रहे हैं। जाहिर है उनके इस बयान के कई अर्थ लगाए जाने लगे हैं। कांग्रेस और खासतौर पर राज्य सभा सदस्य अहमद पटेल आरोप लगाते रहे हैं कि अमित शाह उनके विधायकों को खरीदकर उनकी पार्टी में विद्रोह फैलाना चाहते थे। हालांकि ये बातें करना कांग्रेस और उसके किसी भी नेता को शोभा नहीं देता क्योंकि कांग्रेस का इतिहास ही तोड़ फोड़ और अवसरवादिता पर टिका है। उसने हमेशा अपने विरोधियों की सरकारें गिरवाईं और जोड़ तोड़ से सत्ता हासिल की है।इसके बावजूद इस पर चिंतन तो होना ही चाहिए कि लोकतंत्र को मजबूती कैसे मिल सकती है।

राजनीति हमेशा सत्ता का लक्ष्य लेकर की जाती है। जाहिर है कि सत्ता के लिए आवश्यक गठबंधन करना कई बार राजनेताओं की मजबूरी भी होती है। इसमें किसी नौकरशाह की सलाह का कोई अर्थ नहीं है। दरअसल नौकरशाह को इसकी सलाह भी नहीं देनी चाहिए। उसका काम तो सिर्फ कानून की कसौटी लागू करना है। भारतीय जनता पार्टी पर वामपंथी विचारकों ने दक्षिणपंथी होने का ठप्पा लगा रखा था। आज भी वे भाजपा को फासीवादी नीतियों पर चलने वाली, तानाशाही शैली अपनाने वाली और आरएसएस की कठपुतली पार्टी बताते हैं। वे ये मानने तैयार ही नहीं हैं कि भाजपा ने उनकी ही चौपड़ पर उन्हें मात दे दी है। उसने भी वही चाल चली जो कभी कांग्रेस और उनके वामपंथी सहयोगी चलते रहे हैं। जाहिर है आज कांग्रेस यदि भाजपा की राजनीतिक शैली की आलोचना करती है तो ये उसकी खीज के अलावा कुछ नहीं है।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जबसे सत्ता पर काबिज हुए हैं तभी से कांग्रेस और उसके सहयोगी खुसर पुसर करते रहे हैं कि शिवराज जी की कुर्सी तो बस कुछ दिनों की ही है। उनकी कनबतियों पर गौर करके कुछ पत्रकार बंधु भी शिवराज जी की विदाई की खबरें बनाते रहते हैं। अमित शाह ने सबसे पहले इसी चर्चा पर ये कहते हुए विराम लगा दिया कि अगला चुनाव तो मध्यप्रदेश में शिवराज जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। उनके इस बयान से शिवराज जी के प्रतिद्वंदियों में खलबली मच गई है। उन्हें अपनी आशाओं और मनोकामनाओं पर तुषारापात होता नजर आ रहा है। दरअसल उनके कई प्रतिद्वंदियों की चापलूसों की फौज बार बार माहौल बनाती रहती है कि बस अगले मुख्यमंत्री आप बनने जा रहे हैं।

भारत की भाग्यविधाता बन चुकी भारतीय जनता पार्टी इन दिनों कुछ खास फार्मूलों पर चल रही है। कांग्रेस के परिवारवादी नेतृत्व ने व्यक्तिवाद की जो लहर चलाई उसने कांग्रेस के सार्वजनिक मंच को खेमों में बदल दिया है। परिवार सर्वोपरि की अवधारणा ने कांग्रेस में इतना ठहराव ला दिया कि उसकी राजनीति बदलाव को नकारने वाली बनकर रह गई है। इसके विपरीत भारतीय जनता पार्टी राष्ट्र्रवाद की अवधारणा पर चल रही है। उसने चेहरों का गणित भी नहीं छोड़ा है लेकिन वह एक कार्पोरेट कल्चर में भी काम कर रही है। जाहिर है कि इस प्रक्रिया में चेहरों का ज्यादा महत्व नहीं बचा है। इसलिए मध्यप्रदेश में शिवराज जी सत्ता का चेहरा रहें या नरोत्तम मिश्रा, कैलाश विजयवर्गीय या नरेन्द्र सिंह तोमर को सत्ता सौंप दी जाए कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।
फिर सबसे बड़ी बात तो ये भी है कि सत्ता पर बार बार फेरबदल राजनीतिक दल के सहयोगियों के लिए भी असुविधाजनक होता है। शिवराज जी के नेतृत्व में भाजपा की यात्रा समतावादी नजरिए से चल रही है। इसमें हर वो व्यक्ति लाभान्वित हो रहा है जिसने लाभ पाने का प्रयास किया। फिर चाहे वो भाजपा से जुड़ा हो या कांग्रेस से या किसी और अन्य दल से कोई फर्क नहीं पड़ता। यही वजह है कि प्रदेश में राजनीतिक बदलाव की आवाज बुलंद नहीं हो सकी है। कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलनाथ हों या दिग्विजय सिंह, अजय सिंह हों या मुकेश नायक सभी सत्ता की सुराही का मयपान कर रहे हैं। हालत ये है कि इनकी राह में आने वाले कट्टर भाजपाई भी राह से हटा दिए जाते हैं। अब इन हालात में शिवराज जी का विरोध केवल दिखावा ही बनकर रह गया है। शिवराज जी ने अपने सलाहकार के रूप में प्रमोटी आईएएस अधिकारी एस.के.मिश्रा को तैनात कर रखा है। वे मुकेश नायक जी के रिश्तेदार हैं। अब हालत ये है कि किसी प्राचार्य की नियुक्ति के लिए भी जब मुकेश नायक अनुरोध करते हैं तो विभाग के मंत्री न केवल उनके आदेश का पालन करते हैं बल्कि फोन करके उन्हें जताते भी हैं। इसी तरह नर्मदा विकास प्राधिकरण में उपाध्यक्ष पद पर पिछले सत्रह सालों से पदस्थ आईएएस रजनीश वैश को सत्ता और विपक्ष सभी के नेता अपना संरक्षक मानते रहे हैं। नर्मदा आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर भी सतही विरोधों से आगे नहीं बढ़ सकी हैं। जाहिर है कि संतुलन की राजनीति के चलते मध्यप्रदेश में बदलाव की बड़ी बयार अब तक जन्म नहीं ले सकी है।

इस सबसे ऊपर वो राजनीतिक लाबी है जो देश के बड़े औद्योगिक घरानों के इशारों पर काम करती है। मध्यप्रदेश में रिलायंस ने अपना टेलीकाम नेटवर्क फैलाने का जो बड़ा अभियान चला रखा है उसे भाजपा और कांग्रेस दोनों के नेताओं का समर्थन प्राप्त है। यदि मध्यप्रदेश के राजनेता इन घरानों से पूरा शुल्क वसूली करना ठान लें तो उसके समेत अन्य टेलीकाम कंपनियों के बोरिया बिस्तर बंध जाएं। ये जानते बूझते सरकार चुप है और कंपनी के साथ साथ सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं को मनमानी की छूट दे रही है। इसी तरह बिजली कंपनियों, सड़क कंपनियों, पानी(सिंचाई और पेयजल योजनाओं) से जुड़ी कंपनियों के लिए भी मध्यप्रदेश स्वर्ग के समान राज्य बन चुका है। जनता के नाम कर्ज लेना और आधारभूत ढांचे के विकास के नाम पर बड़े बजट के कार्य कराने में मध्यप्रदेश का कोई सानी नहीं है। जो भी राजनेता इस यथा स्थिति को तोड़ने की कोशिश करता है उसके खिलाफ मीडिया के सहारे दुष्प्रचार अभियान छेड़ा जाता है और उसे धराशायी होने में देर नहीं लगती है।

जाहिर है कि मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार फिलहाल चुनौती विहीन नजर आ रही है। नगरीय निकायों के हालिया चुनावों ने भी इस अवधारणा को मजबूती दी है। इसके बावजूद अमित शाह की भाजपा को कई मूलभूत मुद्दों पर विचार करना जरूरी होगा। बर्मा के तेल भंडारों की ओर बढ़ते चीन की चुनौती और भारत की बेरोजगारी ने भाजपा सरकारों की मुसीबतें बढ़ाई हैं। इन सरकारों पर आर्थिक हितों के लिए जो दबाव डाले जा रहे हैं उसने उसके सुशासन के दावों को धूल धूसरित कर दिया है। मध्यप्रदेश में तो शिवराज सिंह चौहान की सरकार इस अराजकता को रोकने में बार बार असफल साबित हो रही है। सत्ता को निचोड़ने के उसके अभियानों से प्रेरित होकर माफिया ताकतें बार बार नियमों और कानूनों की धज्जियां उड़ाती रहती हैं। चाहे वो खदान माफिया हो या शराब माफिया, अनाज माफिया हो या तेल माफिया सभी संसाधनों का दोहन मनमर्जी से कर रहे हैं। इन हालात में नतीजे देने का लक्ष्य पाने में भाजपा सरकार की गति बहुत धीमी है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिन लक्ष्यों का सुनहरा कल दिखाकर देश को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं उनकी पूर्ति में शिवराज सिंह चौहान सरकार कई बार ना नुकुर करती दिखाई पड़ जाती है। जाहिर है कि वो उन नीतियों के अनुकूल गति पकड़ने में पीछे छूट गई है। नौकरशाही की मनमानी और भाजपा के नेताओं की उथली समझ सभी इसके लिए जिम्मेदार हैं। भाजपा का संगठन इतना विशाल आकार ग्रहण कर चुका है कि उसे चुनाव जीतने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है। लोकप्रियता के पांसे फेंकने में शिवराज सिंह सरकार को महारथ हासिल है लेकिन इक्कीसवीं सदी के भारत के निर्माण में ये फार्मूले किसी भी तरह सहयोगी साबित नहीं हो सकते हैं। भाजपा के सामने भविष्य में चुनाव जीतने की चुनौती तो है ही लेकिन उसे बदलाव लाने वाले प्रयास भी करना होंगे। उसके तेरह सालों के कार्यकाल के बाद जनता का धैर्य जवाब देने लगा है। इसलिए भाजपा को अब अपने प्रयास ठोस धरातल पर लाने के प्रयासों पर जोर देना होगा। अमित शाह यदि अपने मध्यप्रदेश दौरे के बाद पार्टी की नीति में ये कुछ मामूली फेरबदल कर सके तो उनका दौरा सार्थक कहा जा सकेगा।

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