मध्यप्रदेश की जेलों में मीसा बंदी का दौर

भोपाल (पीआईसीएमपीडॉटकॉम)। सुशासन का वादा करने वाली भाजपा ने मध्यप्रदेश में ढांचागत विकास पर तो बहुत जोर दिया है लेकिन उसने कांग्रेस की वे तमाम बुराईयां भी अपना लीं हैं जिन्हें वह कभी पानी पी पीकर कोसती रही है।श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल की ज्यादतियों की कहानी आज भी जो सुनता है उसकी रूह कांप जाती है। उन्हीं कहानियों को सुनाकर शिवराज सिंह चौहान की मिठबोली सरकार ने मीसाबंदियों के लिए पेंशन योजना भी लागू की है। इसके बावजूद अब उनकी सरकार जेलों में जो दमन चक्र चला रही है उससे प्रदेश के लगभग पैंतीस हजार बंदियों और उनके परिवारों के बीच आतंक फैल गया है। बंदियों पर जो नए नियम लादे जा रहे हैं उससे बंदियों में आक्रोश फैल गया है और वे भूख हड़ताल जैसे कदम उठाने पर मजबूर हो रहे हैं।

अंग्रेजों के बाद से पहली बार शिवराज सिंह सरकार ने जेलों को राजनीतिक योजनाओं की आय का स्रोत बनाना शुरु किया है। मजेदार बात ये है कि इस काली दौलत की खेती कथित तौर पर भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी कर रहे हैं। जेलों में आधुनिकीकरण के नाम पर लागू की जा रही योजनाओं को सफल बनाने के लिए जेल विभाग में पुलिस के तीन आला अफसर तैनात किये गए हैं। अब वहां चार और बड़े अफसर भेजे जाने की तैयारी हो रही है जो सरकार की मंशाओं को पूरा करने की जवाबदारी संभालेंगे। जेलों में प्रहरियों की भारी कमी है उन्हें भर्ती किया जाना जरूरी है पर इसके स्थान पर सरकार ने जेलों में एसएएफ के जवान भेज दिए हैं। जेलों में पुलिस की तैनाती को सही साबित करने के लिए भोपाल जेल ब्रेक कांड की जांच में लापरवाही की जवाबदारी जेल महकमे के कर्मचारियों और प्रहरियों पर डाली जा रही है। जबकि हकीकत ये है कि सिमी के आतंकवादी जब भोपाल की केन्द्रीय जेल तोड़कर फरार हुए तब जेल पर एसएएफ के जवान ड्यूटी दे रहे थे। एकबारगी ये मान भी लिया जाए कि जेल के प्रहरी लापरवाह थे तब भी पुलिस को उसकी ड्यूटी के लिए क्लीनचिट कैसे दी जा सकती है।

जेल विभाग पर पुलिस का शिकंजा किसी भी तरह न तो कानूनी है और न ही नैतिक उसके बावजूद मौजूदा सरकार जेलों की आड़ में जिस दंड प्रक्रिया को लागू कर रही है वह आपातकाल से भी गंभीर प्रताड़ना और अमानवीयता की ओर जाती साफ नजर आ रही है। भोपाल जेल ब्रेक कांड के बाद हटाए गए जेल महानिदेशक सुशोभन बैनर्जी की हरकतों को पूरी तरह नजरंदाज करके जिस तरह जेल विभाग के अफसरों के खिलाफ दमन चक्र चलाया जा रहा है उससे जेल महकमे के भीतर भी असंतोष घुमड़ रहा है। जेल विभाग में दो डीआईजी और दो एडीशनल एसपी भेजे जाने की खबर ने तो अफसरों की नींदें उड़ा दीं हैं। उन्हें पता है कि कि मौजूदा पदों पर जब पुलिस के बड़े अधिकारी जम जाएंगे तो उनके प्रमोशन की राह तो हमेशा के लिए अवरुद्ध हो जाएगी। जेल महकमें में लंबे समय तक नौकरी करने वाले जिन अफसरों ने प्रशासन में सुधार के जो सपने संजोए थे उन्हें पुलिस के आला अफसर अपने नौसिखिएपन में मट्टी पलीत करे दे रहे हैं।

सूत्र बताते हैं कि ये सारा खेल साजिशन किया जा रहा है,जिससे जेलों में असंतोष फैले और पुलिस के अलावा सरकार के पिट्ठुओं की तैनाती का रास्ता प्रशस्त हो सके। पिछले दिनों जेल प्रशासन ने एक आदेश निकाला जिसमें कहा गया कि कोई भी मुलाकाती बंदियों को अपने घरों से बनाया हुआ या बाहिरी सामान नहीं दे सकता। कोई बहन यदि अपने बंदी भाई को संक्रांति पर तिल के लड्डू भी खिलाना चाहे तो उसे इसकी इजाजत नहीं है। क्योंकि जेलों में बंदियों के लिए बाहर से लाए जाने वाले नमक, मसाले, तेल, टाफी, बिस्किट, सिगरेट, बीड़ी, तंबाखू, जूते आदि पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया है। अब तक बंदियों को तय लगभग पचपन रुपए के डाईट प्लान में सुबह नाश्ते में चाय के साथ उबले चने और पौष्टिक आहार दिया जाता था, पर अब उनकी डाईट में ब्रेड, बिस्किट, मिठाई, खीर जैसे आईटम शामिल कर दिए गए हैं। ये पैक सामान एक तो पूरा बजट बिगाड़ रहा है वहीं नई समस्याएं भी खड़ी कर रहा है। अब कैदियों को यदि ब्रेड दी जाए तो उसके लिए बड़े मग भर चाय भी चाहिए। इस तरह की दिक्कतें बंदियों को नए झमेले में धकेल रहीं हैं।

बंदियों को उनकी घरेलू समस्याओं की देखभाल करने के लिए जेलों में पे रोल का प्रावधान किया गया है। इससे जहां बंदियों को सामाजिक दायरों की अहमियत समझाई जाती है वहीं जेलों के संचालन के लिए मनोवैज्ञानिक सहारा भी मिल जाता है। पुलिसिया फंडों को लादने वाले जेल प्रशासन ने पे रोल को लगभग बंद कर दिया है। इससे बंदियों को नई मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ रहा है और प्रदेश भर की जेलों के बंदी भड़क रहे हैं।

दंड प्रकिया में अपराधी को दोषी साबित करवाने वाले पुलिस के अफसरों को बंदियों का कथित संरक्षक बनाने पर तुली शिवराज सरकार को आंखें मूंदकर जेलों की सीमा रेखा लांघ रही है। जेलों में एसएएफ के साथ साथ विशेष दस्ते भी तैनात किए जा रहे हैं जिन्हें बंदियों की निगरानी की जवाबदारी सौंपी गई है। सूत्रों का कहना है कि ये ही वो दस्ता है जो राजनैतिक विरोधियों को जेलों में भेजकर उन्हें प्रताड़ित करने की जवाबदारी संभाल रहे हैं। भोपाल में इस दस्ते को सेना जैसी वर्दी दी गई है। जेलों के प्रहरियों और अफसरों को प्रशिक्षण देने का काम अरसे से बंद है। नतीजा ये है कि प्रहरी बेडोल हो रहे हैं और कई ने तो अपनी नौकरी के दौरान बंदूक की गोली भी नहीं चलाई है। इसके बावजूद जेलों में जो प्रक्रिया अपनाई जाती है उसके चलते बंदियों में विद्रोह के भाव नहीं पनपते हैं और वे अपनी सजा शराफत से पूरी करके एक नए जीवन की शुरुआत करते हैं। पुलिसिया घुसपैठ ने वो समरसता का माहौल बिगाड़ दिया है। जेल ब्रेक कांड भी उसी कड़ी का नतीजा है।

जेलों में संवाद का आलम ये है कि कथित तौर पर जेलों की व्यवस्था धराशायी करने और अवैध कमाई में जुटे रहे पूर्व डीजी सुशोभन बैनर्जी ने जेल विभाग की वेवसाईट ही बंद करा दी थी। आज यदि आप प्रदेश की किसी भी जेल की जानकारी या संपर्क तलाशना चाहें तो संभव नहीं है। जेल विभाग के प्रशासनिक प्रतिवेदन को तलाशना संभव नहीं है। यदि बंदियों के परिजन कोई संदेश पहुंचाना चाहें तो उन्हें वही पुरातनपंथी समय साध्य व्यवस्था को ढोना पड़ता है। जेल महकमे के पुलिसिया ढर्रे का आलम ये है कि भोपाल केन्द्रीय जेल की पुरानी वेवसाईट अब तक चल रही है जिसे कभी 2008 में पूर्व जेल अधीक्षक पीडी सोमकुंवर ने बनवाया था। आज सोमकुंवर स्वयं जेल में बंद हैं पर वेवसाईट पर उन्हें जेल अधीक्षक ही बताया जा रहा है।

भाजपा को जमीनी विचारधारा देने वाले पं.दीन दयाल उपाध्याय ने समाज के अंतिम व्यक्ति के उत्थान का संस्कार दिया था। लंबे समय तक भाजपा के नेता इसे अपनी गीता मानते रहे। आज भी भाजपा से जुड़े परिवारों में इसे ध्येय विचार माना जाता है। इसके बावजूद सत्ता की चाशनी चांटने के बाद सत्ता शीर्ष पर विराजमान भाजपाईयों में जो विकार घर कर गए हैं उनसे भाजपा की सत्ता धिक्कार के पथ पर अग्रसर हो चली है। आमतौर पर कबाड़खाने से किसी भी समाज की मानसिकता और उसकी स्थिति का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। जाहिर है समाज के सुधार गृह में बंदियों में सुधरने के बजाए यदि विद्रोह के संस्कार फैलने लगें तो सरकार के औचित्य की जरूरत ही क्या रह जाएगी।

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