जमीनें छिनने के भय ने खड़ा किया किसानों का बखेड़ा

-आलोक सिंघई-
चौदह सालों बाद भारतीय जनता पार्टी की शिवराज सिंह सरकार किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने के लिए कृषि लागत और विपणन आयोग गठित करने का फैसला करने जा रही है। पूरे कार्यकाल में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान दौड़ दौड़कर किसानों से मुलाकात करने जाते रहे। इसके बावजूद उन्हें पता नहीं चल सका कि अन्नदाता की परेशानियां क्या हैं। पिछले दिनों उनके आत्मविश्वास का फुगावा इतने ऊंचे मगरे पर चढ़कर बोल रहा था कि कोई भी सलाह उन्हें आलोचना नजर आने लगी थी। कई दफे वे पत्रकारों से कहते रहे कि प्रेस के फीडबैक से ज्यादा लोगों की बातें तो वे सीधे मुलाकात में मालूम कर लेते हैं। सारी पारंपरिक चैनलों को लांघकर सीधे जनता से जुड़ने की ये मुहिम शिवराज जी ने अपने सलाहकारों के निर्देश पर चलाई थी। अब किसान आंदोलन से सबसे ज्यादा परेशान उनके वे सलाहकार हैं जो रात दिन तरह तरह की योजनाओं और विज्ञापनों से भाजपा के सुशासन की तस्वीर उकेरने में जुटे रहे हैं। कर्ज पर कर्ज लेकर चलाई जाने वाली इन योजनाओं की आड़ में भरपूर भ्रष्टाचार भी किया जा रहा है। उनका फीडबैक तंत्र बार बार इस भ्रष्टाचार जानकारियां दे रहा है लेकिन शिवराज जी कह रहे हैं कि किसानों को कांग्रेस ने बरगलाया है और उसकी आड़ में ही कुछ असामाजिक तत्वों ने किसान आंदोलन को हिंसक बना दिया है।

शिवराज जी की ये बात बहुत हद तक सही बोल रहे है कि कांग्रेस ने रणनीति पूर्वक भाजपा के गुब्बारे में पिन चुभाई है। भाजपा कृषि कर्मण अवार्ड के नाम पर सीना ठोकते फिर रही थी लेकिन उत्साह के अतिरेक में उसका ये कदम भस्मासुरी साबित हो रहा है। मध्यप्रदेश में सुशासन का ढोल कितना पोला है इसकी असलियत किसान आंदोलन से उजागर हो गई है। सरकार के पास फीडबैक है कि इस आंदोलन को कांग्रेस के नेता हवा दे रहे हैं। कई वीडियो मौजूद हैं जिनमें कांग्रेस के नेता खुलकर किसानों को उकसा रहे हैं। शिवराज जी कांग्रेस को खलनायक बनाकर खुद को पाक साफ बताने की कोशिश कर रहे हैं। ये शैतान पर पत्थर फेंकने वाली कांग्रेसी सोच की ही नकल है। जब शिवराज सिंह को मध्यप्रदेश की कमान सौंपी गई थी तब तो ये युक्ति कारगर हो गई थी पर अब उनके कार्यकाल का पूरा रिपोर्ट कार्ड जनता के सामने है। इसलिए कांग्रेस खलनायक होते हुए भी नाराजगी के निशाने पर नहीं है। जब जहाज भंवर में फंसता है तो उसके यात्री जो पकड़ में आता है उसका सहारा लेकर बचने का प्रयास करने लगते हैं। यही हाल शिवराज जी का हो रहा है। जब किसान आंदोलन भड़का तो उन्होंने जन संवाद की राह छोड़कर अपने विश्वस्त सहयोगियों पर ज्यादा भरोसा किया। कृषि मंत्री को मोर्चे पर न लगाकर उन्होंने गृहमंत्री ठाकुर भूपेन्द्र सिंह दांगी को मोर्चा सौंपा। गृहमंत्री पहले ही बयान में फंस गए। उन्होंने कह डाला कि पुलिस ने गोली नहीं चलाई। जबकि मंदसौर कलेक्टर स्वतंत्र कुमार ने बाद में कहा कि प्रशासन ने गोली चलाने के आदेश नहीं दिए बल्कि टीआई ने मौके की नजाकत देखकर गोली चलवाई। इससे साबित हो गया कि सरकार झूठ बोल रही है।

फिर जिस तरह गोलीकांड में मारे गए किसानों को मुआवजा देने की जल्दबाजी की गई उसने भी उलटा असर दिखाया। गोलीकांड में मारे गए किसानों को एक करोड़ रुपयों का मुआवजा पहली बार सुना गया। युद्ध में सीमा पर मारे गए शहीदों को भी एक करोड़ रुपयों का मुआवजा नहीं दिया जाता है। शिवराज जी जिन किसानों को असामाजिक तत्व बता चुके हैं वे उनके लिए आखिर इतना मुआवजा क्यों दे रहे हैं ये आम जनता की समझ के परे है। इससे ये संकेत भी साफ मिल गया कि सरकार दबाव में है। राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ ने मुख्यमंत्री के इन बयानों के बाद अपनी रणनीति और ज्यादा आक्रामक कर ली। संघ के अध्यक्ष पं. शिवकुमार शर्मा कक्काजी ने 7 जून के बंद के आव्हान को पूरे उत्साह के साथ सफल बनाया। मंदसौर और आसपास के जिन जिलों में इन बयानों ने बंद को सफल बनाने में मदद की। भाग शिवराज भाग की तर्ज पर किसान आंदोलन सरकार को धमका रहा है और सरकार झुक झुककर कोर्निश बजा रही है।

विशाल जनसमर्थन से सत्ता में आई भाजपा की ये हालत आखिर क्यों हुई इस पर भाजपा विचार करने भी तैयार नहीं है। घमंड से चूर भाजपा के नेता आखिर कर क्या रहे हैं इस पर भी चिंतन करने तैयार नहीं है। उसके नेताओं की दौलत विदेशों में ठिकाने लगाने में जुटे सलाहकार चपरासी बनकर ढुलाई में जुटे हैं पर भाजपा अपने कार्यकर्ताओं को आदर्शवाद के उपदेशों की घुट्टी पिला रही है। शिवराज सिंह के वित्तमंत्री किन किन सहेलियों को फ्लैट दिला रहे हैं ये बात सत्ता शीर्ष के कोई पदाधिकारी नहीं देखना चाहते। परिवहन मंत्री ने कांग्रेस की परंपराओं को कितनी कुशलता से आत्मसात किया इस पर चर्चा करना तो संभव नहीं है क्योंकि हाईकमान की सप्लाई लाईन थोड़ी बंद की जा सकती है। पंचायत मंत्री ने ग्रामीणों के नाम पर जारी योजनाओं में कैसे पलीता लगाया इस पर खुलकर बात करने की हिम्मत सत्ता शीर्ष ने कभी नहीं जुटाई। महिला और बाल विकास की योजनाएं जमीन पर नहीं तो कहां चलाई गईं इस पर सवाल पूछने की हिम्मत भाजपा ने तो कभी दिखाई ही नहीं बल्कि समाज के एकीकरण में जुटे संघ के पदाधिकारियों ने भी कभी इस दिशा में झांकने की कोशिश नहीं की।

भाजपा के खिलाफ भड़कते जन आक्रोश की जरा सी झलक गांवों से ही मिल जाती है। भू राजस्व उगाही की बरसों पुरानी परंपरा को छोड़कर इस सरकार ने जो दस्तावेजों का डिजिटलाईजेशन किया वह नाराजगी की सबसे बड़ी वजह बन गया। किसानों के बीच ये बात फैल गई कि सरकार उनके खसरे खतौनी में हेरफेर करके उनकी जमीनें छीन रही है। सरकार के भ्रष्ट अधिकारियों ने जिन जमीनों को बेनामी बताकर खरीदना शुरु किया उससे इस अफवाह को बल मिला। पहले तो हाट बाजार के दिन पटवारी अपना बस्ता लेकर हाट में पहुंच जाता था और सौ पचास रुपए का सेवा शुल्क लेकर लोगों की जमीनों के रिकार्ड दुरुस्त कर देता था। ये सुविधा बहुत सस्ती और किसानों के लिए भरोसेमंद थी। इसमें तो उन जमीनों के रिकार्ड भी थे जो जमीनें वास्तव में थीं ही नहीं। या उन्हें विवादित जमीनों के बीच पट्टे देकर बांटा गया था। इसके बावजूद भुलावे के द्स्तावेज लेकर किसान खुश रहते थे। अब जब सैटेलाईट सर्वे के आधार पर जमीनों का दुरुस्तीकरण होने लगा है तब कई किसान अपनी कागजी जमीनों से भी बेदखल हो गए हैं। किसानों को वैकल्पिक जमीनें दिलाने का कोई प्रयास भाजपा के नेताओं ने नहीं किया है। अब वे सीमांत किसान मजदूर बनकर राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के हाथ मजबूत कर रहे हैं।

राजस्व मंत्री उमाशंकर गुप्ता ने जब ये विभाग संभाला तब पार्टी ने उनके सामने कई टारगेट रखे थे। श्री गुप्ता ने हमेशा की तरह उन मुद्दों पर तेजी से अमल शुरु कर दिया। राजस्व अमले ने जब जमीनों के खसरे खतौनी पलटने शुरु किए तो किसानों को लगा कि सरकार भूमि सुधारों के नाम पर उनकी जमीनें छीनकर बड़ी कंपनियों को सौंपने जा रही है। सरकार के सख्ती के निर्देशों की आड़ में राजस्व अमले के कमाई पसंद अफसरों और कर्मचारियों ने धड़ाधड़ जमीनों के नामांतरण भी करवाने शुरु कर दिए।ज्यादातर जमीनें ठेका खेती करने वाली यही कंपनियां खरीद रहीं हैं। नर्मदा पट्टी में भी उपजाऊ भूमियों की बंदरबांट शुरु हो गई। सरकार की नर्मदा सेवा यात्रा ने उन बिखरे वंचितों को लामबंद करने का काम कर दिया। कई जगह कांग्रेस और भाजपा के खेमे वाले किसानों के बीच तनातनी भी नाराजगी की वजह बनी। यही कारण था कि भारतीय किसान संघ से करीबी रखने वाले कई किसान भी टूटकर राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के बैनर तले इकट्ठे होने लगे। सरकार को इस पूरी कवायद की जानकारी पहले से थी। इसके बावजूद उसे ये अनुमान नहीं था कि किसान आंदोलन इतना आक्रामक हो जाएगा। खदबदाते आक्रोश को पं.शिवकुमार शर्मा ने बड़ी कुशलता से सरकार के खिलाफ लामबंद कर दिया है। हालात इतने बेकाबू हो चले हैं कि बार बार झूठ बोलने में जुटी शिवराज सिंह सरकार अपने ही बुने जाल में उलझती जा रही है। सरकार जिन आईएएस अफसरों को अपना तारणहार मान रही है वे ही उसके खिलाफ नाराजगी भड़काने की वजह बन रहे हैं। भाजपा के नेताओं की पोल भी इस आंदोलन में खुलती जा रही है। बड़े बड़े पदों पर बैठने वाले नेतागण कितने आधारहीन हैं ये भी सामने आता जा रहा है। सबसे बड़ी भद तो भारतीय किसान संघ की पिटी है। वह किसानों का भाग्यविधाता होने का दावा करता रहा है पर किसानों ने उसके नेताओं को कितने स्थानों पर दौड़ा दौड़ा कर हकाला ये स्वीकारने में उसके नेता शर्म महसूस कर रहे हैं।

भाजपा का मौजूदा नेतृत्व मध्यप्रदेश में प्याज भी खाएंगे और जूते भी खाएंगे की तर्ज पर काम कर रहा है। उसे मुगालता है कि अन्नदाता कहकर वो किसानों को अपने पक्ष में मना लेगी पर ये सोचना निरी भूल साबित होगी। किसान अपनी फसल का लागत मूल्य भी न मिल पाने के कारण तो परेशान है ही। वह अन्य सरकारी नौकरियों में धड़ाधड़ बढ़ते वेतनमानों से भी खफा है। किसानों के जो बच्चे उच्च शिक्षा के लिए मोटी मोटी फीसें चुकाने के बाद भी बेरोजगारी झेल रहे हैं वे भी इस आंदोलन में कूद पड़े हैं। सरकार के चापलूस कह रहे हैं कि जींस टीशर्ट पहने लोग किसान नहीं हैं बल्कि वे किसानों के बीच घुस आए असामाजिक तत्व हैं। इन नामुरादों को इतनी भी समझ नहीं कि किसान और उसके युवा बच्चों में पहनावे को लेकर कई बदलाव आ चुके हैं। पहनावे के आधार पर उन्हें किसान न मानना किसी षड़यंत्र का हिस्सा तो हो सकता है पर सच्चाई नहीं।

किसानों को ये बात समझ में आ गई है कि टाटा अपना माल बनाता है तो उसके दाम फिक्स हो जाते हैं। बाजार में मिलने वाले हर सामान का मूल्य तय होता है पर वह रात दिन खटकर जो खाद्यान्न पैदा करता है उसके दाम नीलामी में तय होते हैं। समर्थन मूल्य की बैसाखियों पर टिके होते हैं। वे जो माल तैयार कर रहे हैं उसके बगैर लोगों का जीवन भी संभव नहीं इसके बावजूद उन्हें उनके माल का लागत मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। वे लगातार घाटे में जा रहे हैं और इससे उनके ऊपर कर्ज बढ़ता जा रहा है। हर किसान इतना कुशल नहीं है कि वह खेतों से सोना बटोर सके। सभी किसानों के पास जमीनें भी नहीं हैं । इसीलिए भारतीय किसान संघ जैसे पुरातन पंथी संगठन के सामने नया नवेला राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ ज्यादा कारगर साबित हो रहा है। किसान को तो जमीन से बेदखल करने का भय दिखाकर डराया जा सकता है पर मजदूर के सामने खोने को कुछ नहीं है। भ्रष्टाचार करने वाली कांग्रेस की सरकारों की नकलपट्टी करके भाजपा ने अपने आप को अंधी गली में ला खड़ा किया है। उसे जो भूमि सुधार करने थे उसके लिए उसे किसी जादुई और प्रतिभाशाली नेता को मैदान में उतारना था। ये काम किसी घोषणा वीर या उसके सूदखोर मंत्री के बस का तो नहीं था।

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2 Comments

  1. Very correct.manpasand sarkar means Madhya Pradesh is most corrupt and cheating govt.

  2. निष्पक्ष नहीं है लेकिन कुछ बातों में दम भी है। शिवराज के खिलाफ निजी खुन्नस ज्यादा दिख रही है।

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