सत्ता और सेक्युलर के नाते की अंतिम सांसें

(रा.स्व.सं, भाजसं से भाजपा तक)
भरतचन्द्र नायक…

‘‘सूख हाड़ ले जात सठ स्वान, निरखि मृगराज’’ लंपटीय तासीर सत्ता लोलुपों का स्वभाव आदि काल से व्यवहार में देखा सुना गया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से प्रेरित संगठन की प्रेरणा का यहीं जन्म होता है। अंगे्रजों ने बांटो और राज करो की मंषा से भारतीय समाज के विखंडन के बीज बोये। 1925 में राष्ट्र को एकता के सूत्र में गुंथित करने का अनुष्ठान आरंभ हुआ। समय ने करवट ली। भारत को आजादी मिली। लेकिन सत्ता में आने के साथ समाज को फिरकों में बांट कर तुष्टीकरण को परवान चढ़ाना सत्ता मठाधीशों ने मूल मंत्र अपना लिया। आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है। राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सांस्कृतिक गतिविधियों के विस्तार के लिए संगठन का जब विस्तार किया, जाति विहीन, राष्ट्र को समर्पित युवा शक्ति को एकता के सूत्र में पिरोने का संगठित प्रयास सफलता की सीढ़ियां चढ़ने लगा। तत्कालीन मठाधीशों की भुकुटियां तन गयी। संगठन को कुचलने की चेतावनियां मिली। लेकिन राष्ट्रवाद के प्रसार में न साहस थका और न कदम पीछे रहे। जैसे-जैसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पौधे को सींचा और उसका विस्तार हुआ इसकी छवि देशव्यापी बनती गयी और विदेशों में भी रा.स्व.सं. की चर्चा शुरू हो गयी। मजे की बात यह कि जैसे-जैसे संगठन का कलेवर विस्तृत हुआ, इसके विरूद्ध गलत अटकलबाजियां फैलाना सत्ता और सत्तोन्मुख तत्वों का शगल बन गया। संघ को शंका की दृष्टि से देखा जाने लगा। इसी का नतीजा था कि बार-बार सांस्कृतिक राष्ट्रवादी संगठन को कठघरे में में खड़ा किया गया। न्यायिक आयोग बने संगठन ने सामना किया और न्याय, नीति, नीयत की कसौटी पर संघ ने अपनी सांस्कृतिक धर्मिता की पवित्रता सिद्ध की। उसे क्लीनचिट मिली। लेकिन शंकालु होना सत्ता का स्वभाव है। यही सत्ता लोलुपता प्रपंच गढ़ती है। सांच को भी आंच पहुंचाती है। राजा इन्द्र ने इसी ईष्र्यावश कितने ऋषि मुनियों को लक्ष्य से भटकाने की कोशिश की। षड़यंत्र अतीत के साक्षी है। लेकिन स्वभावगत जो विफलता लगती है कि इन षड़यंत्रों की पोल खोलने का संघ ने प्रयत्न यदा कदा ही किया। जन भ्रम निवारण करने के लिए संघ ने जो खिड़की अब खोली है, उससे बहुत हद तक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को आहत करने वाले तत्वों के सिर से नकाब उतरा है।
हाल के दौर में जब-जब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ज्वार आया तथाकथित सेकुलरवादियों ने शक्ति भर भ्रम फैलाया। सम्मान लौटाकर विरोध करने वालों की पोल तो हाल में खुल गयी, जब कांगे्रस ने जुमे की नमाज पढ़ने तक के लिए अवकाश की घोषणा कर ली। साम्प्रदायिकता के बीज बोकर सेकुलरवाद का जश्न मनाना आज एक राजनैतिक फैशन बन गया है। भारतीय समाज का यह दुर्भाग्य है कि कांगे्रस और उसके साथी संगी सेकुलरवाद की मनमाफिक परिभाषा गढ़ते, समाज को छलते और साम्प्रदायिकता का विस्तार करते है। इससे देश और समाज भले कमजोर हो, इनकी निगाह महज वोटों और सत्ता पर केन्द्रित होती है। लेकिन साम्प्रदायिक हथकंडा का मर्म अब अल्पसंख्यक भी समझ चुके है। सेकुलरवादी अल्पसंख्यकों के हमदर्द नहीं उनकी चातकी दृष्टि सिर्फ वोटों पर है। अल्पसंख्यक प्रेम उनके लिए समाज के संगठित होने, कौम की तरक्की का साधन नहीं केवल सत्ता के लिए साध्य है।

बाबरी मजिस्द विवाद के मुख्य पक्षकार हासिम अंसारी उत्तर प्रदेश की राजनीति के ऐसे चेहरे रहे है जो आगे बढ़ते थे तो सियासी तूफान आता था। अपने जीवन के आखिरी पड़ाव में हासिम अंसारी साहब ने फरमाया कि देश को नरेन्द्र मोदी जैसे नेताओं की जरूरत है। आजादी के बाद नरेन्द्र मोदी पहला शख्स है जिसने साफ सपाट बात की। उन्होनें ही मुस्लिम समाज से गुजारिश की कि विकास और न्याय का ढिंढ़ौरा नहीं पीटता, लेकिन साथ लेकर चलता है। मजे की बात यह है कि हासिम अंसारी की राम मंदिर विवाद के महंत रामचन्द्र दास से गहरी दोस्ती थी। लेकिन दोस्ती में मंदिर-मजिस्द विवाद आड़े नहीं आया। मुसलमान कौम ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर भरोसा जताया है, साथ ही संघ परिवार की मुसलमानों के साथ की गयी पहल सराही गयी। क्योंकि यहां सब एक मन होकर मुल्क की खिदमत का पैगाम है, वोटों की मारा-मारी नहीं है। जिन अल्पसंख्यकों को खौंफजदा करके कांगे्रस सहित सहयोगी दल उनके वोटों से सत्ता हासिल करने में कामयाब होते रहे है। संघ परिवार से उनके जुड़ाव ने सेकुलरवादियों के ताजिये ठंडे कर दिये है। संघ के वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार ने अल्पसंख्यकों को भरोसे में लेते हुए कहा कि मुल्क के 25 करोड़ मुसलमानों के बिना भारतीयता अधूरी रहेगी। उन्होनें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इफ़्तार जलसा कर दुनिया के मुस्लिम नेताओं को दावत दे डाली। यथार्थ में देखा जाये तो भारतीय जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी के विकास तक अल्पसंख्यकों से रिश्तों में न तो खटास और न तकरार हुई। यह भी एक यर्थाथ है कि तकरार करने का रसायन पं. नेहरू के वक्त ही तैयार हो गया था, जब उन्होनें बाबरी मजिस्द की ताली फेंक दी और राजीव गांधी ने ताला खुलवा दिया। वास्तव में मुसलमानों से राष्ट्रवादी समुदाय का मेलजोल 9 जुलाई 1966 को ही शुरू हो गया था, जब अटलजी ने दिल्ली शाहजहांनी जामा मजिस्द के सामने अवाम के संपादक अनवर देहलवी को अपना प्रत्याशी बनाया था। अनवर देहलवी जनसंघ के खुर्राट नेता हुए और आज भी जनसंघ के कारपोरेटर के रूप में उनकी सेवाएं याद की जाती है। जहां तक संघ, जनसंघ और भाजपा का ताल्लुक है, इमाम उमर इलियासी जो कि भारत की 5 लाख मस्जिदों की आॅल इंडिया इमाम आॅर्गेनाईजेशन के अध्यक्ष है, का कहना है कि नफरत के बीज बोकर कोई मिठास वाले फल की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह इंसानियत का उसूल है गढ़े मुर्दे उखाड़कर सियासत हो सकती है, मुल्क अवाम की भलाई नहीं कर सकते। लोग कहते है कि गर केन्द्र में भाजपा आयी तो अल्पसंख्यक मुसीबत भोगेंगे। लेकिन आशंका को अटल जी ने तो झुठलाया, नरेन्द्र मोदी ने आगे बढ़कर टीम इंडिया कहकर सबको गले लगाया है। आरक्षण को लेकर सर संघचालक और प्रचार प्रमुख का मानना है कि कौम को विकास की मुख्यधारा में लाना है। आरक्षण कोई खैरात नहीं एक रास्ता है, जिसे कायम रहना है लेकिन यह भी सोचने की बात है कि यह फिरका परस्ती को जारी रखने में सहायक बनता है। जब तक जाति पांति अवसर का पेरामीटर रहेगा, जातिविहीन भेदभाव रहित एक रस समाज की कल्पना क्लिष्ट बनी रहेगी। हिन्दू होने के रस का आस्वादन भली प्रकार संभव नहीं होगा।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर भ्रांतियों का जाल फैलाने की मुहिम अब गड़रिया की टेर बनकर अनसुनी बन रही है। गड़रिया भेड़ें चराता है और मस्ती में गांव वालों को पुकारता कि शेर आ गया। गांव वाले परेशान हो गये। लेकिन जब शेर आया तो किसी ने गड़रिया का रूदन नहीं सुना। सत्ता और सेकुलकर का नाता अंतिम सांसे ले रहा है। सेकुलरिज्म का छद्म जनता समझ चुकी है। जन-जन समझता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा इंसानियत को जोड़ने वाली शक्ति है, इसका उद्देश्य समाज में सकारात्मकता लाना है, जिसे कोई भी नकारात्मक ताकत हानि नहीं पहुंचा सकती। यही कारण है कि शाखाओं का देश में ही नहीं विदेशों में भी विस्तार हो रहा है। युवाओं में संस्कृति, परंपरा, संस्कार, इतिहास, राष्ट्र भाव जगाने के केन्द्र के रूप में शाखा पुनीत गुरूकुल बनती जा रही है। इसमें उम्र का, जाति-पांति, सम्प्रदाय का कोई फर्क नहीं है। 18 वर्ष से कम आयु के लिए बाल भारती, बाल गोकुल संकुल है। विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों के युवकों के लिए शाखा बौद्धिक विकास, शारीरिक शौष्ठव के केन्द्र है। संघ द्वारा देश भर में 32 हजार 400 संस्थानों पर 50 हजार से अधिक शाखाएं लगायी जा रही है। 12 हजार 32 साप्ताहिक मिशन कार्यक्रम, 7233 मासिक मिशन कार्यक्रम चल रहे है। मजे की बात यह है कि एक मां ने जब बच्चे को संघ में जाकर राष्ट्रीय संस्कारों से संस्कृत होकर देखा तो राष्ट्र सेविका समिति की पे्ररणा मिली। आजादी के पूर्व ही राष्ट्र सेविका समिति को मौसी लक्ष्मीबाई केलकर ने जन्म दिया, जो पुष्पित फलित पल्लवित हो रही है, अपनी अस्सी वर्षीय यात्रा में संघ के संस्कारों का बीजारोपण कर नारीशक्ति का प्रस्फुटन किया है।

जहां तक मुस्लिम बच्चों को संस्कारित करने का सवाल है, संघ के स्कूलों में 4700 मुस्लिम बच्चे संस्कारित हो रहे है। देशभर में 12364 विद्यालय बाल भारती के है, इनमें मुस्लिम बच्चे खुशी-खुशी प्रवेश पाते है। कश्मीर सहित सभी राज्यों में विद्या भारती के स्कूल है और इनमें 270 मुस्लिम आचार्य कार्यरत है। हिन्दुत्व के इन संस्कार केन्द्रों में एक सौ से अधिक ईसाई आचार्य भी है, जो हिन्दुत्व के संस्कारों को आगे बढ़ा रहे है। हिन्दू होने का एक अपना रस है, क्योंकि यहां इस्लाम का सम्मान करने की सुविधा है। कुरान और वाईविल को पवित्र कहने की सद्भावना विराजमान है। हिन्दू होने के कारण ही हम दुनिया की सारी आस्थाएं स्वीकार करके आल्हादित होते है। हिन्दु होकर आस्तिक रह सकते है और नास्तिक भी बने रह सकते है। ऐसा इसलिए है कि यहां नफरत हिंसा तुल्य मानते है। सहिष्णुता असीम है। हिन्दु होकर विवेक का इस्तेमाल कर सकते है। हिन्दु होने का एक आनंद यह भी है कि भौतिकवादी हो सकता है। आध्यात्मिक होने की छूट है, आस्तिकता से संतुष्ट होते है, इसलिए अंधविश्वास काफूर हो जाता है। अब विचारणीय प्रश्न यह है कि जो असहिष्णुता का इल्जाम लगाते है, वे कितने सहिष्णु है।

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