लंगड़ी सरकार की छवि से बाहर निकलने के लिए कांग्रेस ने विधानसभा में अपना अध्यक्ष बनाकर जीत का उद्घोष करने में सफलता पाई है। इसी उत्साह के माहौल में उसने अपना उपाध्यक्ष भी बनाकर अपनी पीठ थपथपाई है। कांग्रेस के आम कार्यकर्ता से लेकर मुख्यमंत्री कमलनाथ तक इसे अपनी जीत बता रहे हैं।ऊपरी तौर पर ये नजर भी आ रहा है। सरकार की जी हुजूरी में लगा मीडिया भी इसे सरकार की जीत बता रहा है। इसके बावजूद राजनीतिक पंडितों का कहना है कि ये फैसला वास्तव में कांग्रेस को भाजपा के राजनीतिक जाल में फंसाने वाला साबित होने जा रहा है। भाजपा का स्थानीय नेतृत्व अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव परंपरागत रूप से करने का ही पक्षधर था। बाद में भाजपा हाईकमान की ओर से कहा गया कि अपनी ओर से अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के नाम घोषित किए जाएं। पार्टी की ओर से अध्यक्ष के रूप में आदिवासी नेता विजय शाह का नाम प्रस्तुत किया गया। उपाध्यक्ष के रूप में जगदीश देवड़ा का नाम प्रस्तुत किया गया। कांग्रेस ने व्हिप जारी किया और अपने सभी सदस्यों को विधानसभा में हाजिर रहने के निर्देश दिए गए। सचिवालय को दी गई सूचना न पढ़े जाने को मुद्दा बनाकर भाजपा ने सदन से वाकआऊट कर दिया। नतीजतन कांग्रेस ने एक पक्षीय वोटिंग कराई और एनपी प्रजापति को 120 मतों से विजयी घोषित कर दिया। भाजपा के नेताओं का कहना था कि यदि सदन में गुप्त मतदान कराया जाता तो कांग्रेस का प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत सकता था। हालांकि ऐसी कोई परंपरा पहले कभी नहीं रही है कि गुप्त मतदान कराया जाता। भाजपा को भी वोटिंग नहीं करानी थी उसे तो बस केवल रायता फैलाना था। जीत के उल्लास में कांग्रेस ने भाजपा की रणनीति को समझने का कोई प्रयास नहीं किया। अगले दिन भाजपा ने उपाध्यक्ष के लिए भी अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया। फिर वही कहानी दुहराई गई। चार सदस्यों ने सुश्री हिना कांवरे को उपाध्यक्ष बनाने के लिए नाम प्रस्तावित किया जबकि एक सदस्य ने भाजपा के जगदीश देवड़ा का नाम प्रस्तावित किया।ये प्रस्ताव विधिवत था और समर्थक भी मौजूद था। इसके बावजूद अध्यक्ष की आसंदी पर विराजमान एनपी प्रजापति ने पहले तो पूरे नाम नहीं पढ़े लेकिन जब नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने अनुरोध किया कि वे पूरे नाम पढ़ें अन्यथा उनके प्रत्याशी का नाम सदन के रिकार्ड में नहीं आएगा। इसके बाद अध्यक्ष ने जगदीश देवड़ा का नाम भी पढ़ दिया। इसके बाद विपक्ष के सदस्य नारेबाजी करते रहे और इसी बीच उपाध्यक्ष पद पर हिना कांवरे को विजयी घोषित कर दिया गया। कांग्रेस ने जो तैयारी की थी उसके बीच यही होना भी था। यदि विधिवत चुनाव होता तो भी कांग्रेस अपने प्रत्याशी को जिताने की पूरी कोशिश करती क्योंकि इससे उसे विश्वास मत की पुष्टि भी करनी थी। भाजपा को इस प्रक्रिया में चुनौती देनी भी नहीं थी उसे तो केवल सरकार और उसके प्रतिनिधियों के बीच अविश्वास जताना था। पिछले कार्यकालों में वह भी कमोबेश ऐसा ही करती रही थी। उसने हर बार मनमर्जी से सदन चलाया क्योंकि उसे स्पष्ट बहुमत प्राप्त था। इस बार उसे पता था कि संख्याबल उसके पास नहीं है।यदि वो तोड़फोड़ का प्रयास करती तो उसे इसकी बहुत मंहगी कीमत चुकानी पड़ती। जनता के बीच भी संदेश जाता कि भाजपा जनमत को मानने तैयार नहीं है।पिछले सालों में भाजपा ने बाकायदा कांग्रेस को उपाध्यक्ष पद देकर विपक्ष को अपने साथ चलने के लिए तैयार किया था। उसे मालूम है कि उपाध्यक्ष जैसे पद का कोई औचित्य नहीं है।यदि वो उपाध्यक्ष पद कृपा से भी स्वीकार कर लेती तो उसे सदन में अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने की मजबूरी से बंध जाना पड़ता।अब वह सदन को चलाने की जवाबदारी से मुक्त है। वहीं कांग्रेस के नेतागण बार बार सफाई देकर कह रहे हैं कि भाजपा ने उसे चुनाव के लिए मजबूर किया हम तो परंपरा का पालन करना चाहते थे। जबकि हकीकत ये है कि कांग्रेस जाने अनजाने भाजपा के बिछाए जाल में फंस गई है। भाजपा तो झगड़ा करना ही चाहती थी। फिर ये किसने कह दिया कि चुनाव करवाने से कोई बुरा काम हो गया। चुनाव ने तो कांग्रेस के स्पष्टमत की पुष्टि ही की है। जो बात राज्यपाल महोदया के समक्ष कांग्रेस ने प्रमाणित की थी वही बात सदन में उसने दुहराई है। इसके बावजूद कांग्रेस ने अनजाने में बड़ी पराजय को गले लगा लिया है। यदि सदन विधिवत चलता तो कांग्रेस अपनी नीतियों पर विपक्ष की मुहर भी लगवा सकती थी। आलोचना के साथ ही सही पर वो अपनी नीतियों को लोकतांत्रिक जामा पहना सकती थी। अब ऐसा होना संभव नहीं दिखता। सदन का पहला सत्र ही कांग्रेस सुचारू रूप से नहीं चला पाई। ये जवाबदारी सरकार की होती है। विपक्ष का तो काम ही हो हल्ला मचाना है। ये जवाबदारी सरकार की थी कि वो विपक्ष को कैसे अपने साथ लेकर चले। यदि कांग्रेस बड़ा दिल करके भाजपा को उपाध्यक्ष देकर परंपरा का पालन करती तो भाजपा के सामने मजबूरी थी कि वो सदन को चलाने में सहयोग करे। भाजपा ये चाहती भी नहीं थी और कांग्रेस ने उसकी मांगी मुराद पूरी कर दी। अब यदि ये टकराव आने वाले समय में और बढ़ता है तो भाजपा उसी तरह असहयोग आंदोलन शुरु कर देगी जिस तरह से आजादी के संग्राम के दौरान महात्मा गांधी असहयोग आंदोलन का आव्हान करते थे।मध्यप्रदेश में सरकारी तंत्र का बोझ बहुत भारी हो चुका है। हर महीने सरकार को तीन हजार दो सौ करोड़ रुपए तो मात्र वेतन भत्तों के लिए जुटाने पड़ते हैं। कर्ज ली गई रकम का ब्याज अलग से भुगतना पड़ता है। विकास कार्यों के लिए भी भारी धनराशि की जरूरत पड़ती है। कर्जमाफी, बिजली बिल हाफ जैसी लोकप्रियता आधारित योजनाओं का दंड भी सरकारों को भुगतना पड़ता है। ऐसे में कमलनाथ सरकार के सामने चुनौती है कि वो सरकारी कामकाज को शांतिपूर्वक निपटाए। यदि सरकार रोज रोज नेतागिरी करके थोथी जीत के नशे की आदी हो जाएगी तो उसे सरकार चलाने लायक धनराशि जुटाना भी कठिन हो जाएगा। दरअसल कांग्रेस के नेतागण पिछली सरकारों के समान ही राजनीतिक व्यवस्था की आदत से बाहर नहीं आ पाए हैं। पहले केन्द्र की ओर से अनुदान मिल जाता था या कुछ योजनाओं को शत प्रतिशत तक मदद मिल जाती थी। जीएसटी लागू होने के बाद ये परिपाटी बदल गई है। अब राज्यों को टैक्स कलेक्शन करना होता है और उसे अनुपातिक धनराशि केन्द्र से वापस मिल जाती है। ऐसे स्थिति में यदि राज्य सरकार का टैक्स कलेक्शन घटेगा तो उसे वित्तीय संकट का सामना करना पड़ेगा। यदि जनता ने असहयोग कर दिया और टैक्स कलेक्शन में सरकार को टकराव का सामना करना पड़ा तो उसे उपहार में केवल बदनामी हाथ लगेगी।वित्तीय संकट बढ़ेगा को अलग। भाजपा के रणनीतिकार कांग्रेस को उसी दिशा में धकेल रहे हैं।कांग्रेस के नेतागण समझ लें कि यदि उन्होंने टकराव की नीति जारी रखी तो वो अपनी सरकार को सफल बनाकर जनता का दिल नहीं जीत पाएंगे। उम्मीद है कि भविष्य में कांग्रेस जीत के हैंगओवर से बाहर आएगी और टकराव की नीति छोड़कर प्रदेश के विकास की नींव रखेगी।
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