वोट की तिजारत के दौर में कितना सुना जाएगा विष्णु का संघनाद

भारतीय लोकतंत्र अब सिर्फ पूंजीवाद की ओर पींगें बढ़ा रहा है. इसका असर इतना व्यापक हो चला है कि चुनावी वादों के शोर में मूल्यों की राजनीति अप्रासंगिक हो चली है। वोट का अब राजनीतिक मूल्यों से नाता टूटता जा रहा है और वह मुफ्त सौगातों के ऊपर लिपटा रंग बिरंगा रैपर बन गया है। हालिया दिल्ली विधानसभा के चुनावों में ये असर इतना स्पष्ट नजर आया कि उसने भारत की राजनीति की तस्वीर साफ कर दी है। इसके पहले पांच राज्यों के चुनाव में भी कमोबेश यही तस्वीर उभरी थी लेकिन तब इसका शोर इतना तीखा नहीं था। इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी ने कई राज्य हाथ से गंवाने के बाद मध्यप्रदेश में अपने सांसद विष्णुदत्त शर्मा को प्रदेश की कमान थमा दी है। वे संघ की तपोनिष्ट सेवा भावना से प्रेरित होकर राजनीति में आए हैं। यही वजह है कि उनकी सफलता को लेकर तरह तरह के संशय और आशंकाएं व्यक्त की जाने लगीं हैं। राजनीति के दीवानों का कहना है कि एक ओर जब देश में अरविंद केजरीवाल की गिफ्ट वाली राजनीति का बोलबाला है तब विष्णुदत्त शर्मा का देशराग कहां टिक सकता है।

मध्यप्रदेश का राजनीतिक परिदृष्य दिल्ली से अलहदा नहीं है। यहां की राजनीति भी गिव एंड टेक के नए नए प्रतिमानों के बीच झूलती रही है। पहले जो राजनीति गरीबों के इर्दगिर्द घूमती रही थी वह आज निम्न मध्यम वर्ग को भी अपने आगोश में ले चुकी है। पिछले पंद्रह सालों में भारतीय जनता पार्टी ने किसानों के साथ साथ प्रदेश के बड़े हिस्से तक सत्ता का लाभ पहुंचाया था। विभिन्न हितग्राही मूलक योजनाओं ने शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता में चार चांद लगा दिए। सरकारी नौकरियां खरीदकर वेतन भत्तों के हकदार बने एक छोटे तबके को तो शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने नए वेतनमानों का लाभ दिया ही इसके साथ आम नागरिकों के बड़े तबके तक भी सत्ता का लाभांश पहुंचाने का प्रयोग किया। सैकड़ों योजनाओं के माध्यम से प्रदेश के बड़े हिस्से तक सरकारी आय और कर्ज से जुटाए गए संसाधनों का लाभ पहुंचाया। शिवराज की सबसे बड़ी उपलब्धि यही रही कि उन्होंने प्रदेश के एक बड़े तबके को सत्ता में सीधे भागीदार बनाया। किसानों के खातों में लाभांश और मुआवजे की राशि पहुंचाने का इतना सफल प्रयोग इसके पहले देश की राजनीति में भी नहीं किया गया था। यही कारण था कि शिवराज को अजेय कहा जाने लगा था।

भाजपा की राजनीति में सेंध लगाना कांग्रेस के लिए कठिन नहीं रहा। संगठन और सिद्धांतों के बगैर कांग्रेस ने प्रदेश में पल रहे असंतोष की कड़ियां जोड़ लीं और भाजपा को सत्ता गंवानी पड़ी। कमलनाथ के नेतृत्व में कुशल व्यूहरचना करके कांग्रेस के रणनीतिकारों ने भाजपा को चौखाने चित्त कर दिया। जयस के नेतृत्व में आदिवासियों के आंदोलन से उभारा गया असंतोष भाजपा के पतन की सबसे बड़ी वजह बना। किसान कर्ज माफी और बेरोजगारों को भत्ता देने जैसे लुभावने वादों ने मतदाताओं को बरगलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके विपरीत भारतीय जनता पार्टी ने भी कांग्रेस को सत्ता में आने का मार्ग सुगम कर दिया। शिवराज सिंह चौहान के गलत टिकिट वितरण ने कांग्रेस को सुरक्षित गुप्त मार्ग उपलब्ध कराया और कांग्रेस ने फोटो फिनिश मात देकर सत्ता अपनी झोली में डाल ली।

शिवराज सिंह चौहान ने भाजपा के संगठन को जिस तरह अपने एकाधिकार से पंगु बनाया उससे भाजपा ने अपनी संघर्ष क्षमता गंवा दी। भाजपा के तमाम पदाधिकारी सत्ता की मलाई छानने में जुट गए और संगठन को उन्होंने हितग्राही मूलक योजनाओं के दरवाजे पटक दिया। यही वजह थी कि भाजपा का कैडर हितग्राही मूलक योजनाओं के सहारे सिसकता रहा और सत्ता के खिलाड़ी बड़े कारोबार से अपनी पीढ़ियां सुरक्षित करने में जुट गए। इस कवायद का सबसे बड़ा पहलू ये भी था कि उनके साथ कांग्रेस के वे तमाम सत्ता के दलाल भी सहयोगी के रूप में शामिल थे जिन्होंने मध्यप्रदेश की स्थापना के बाद से सत्ता की लूट में महारथ हासिल की थी। यही वजह थी कि कांग्रेस के लूटतंत्र की जड़ें पंद्रह सालों में और भी गहरी हो गई। आज कमलनाथ जिस माफिया राज को गरियाते फिरते हैं वह वास्तव में कांग्रेस की कथित गरीब परस्ती से ही उपजा था। पूर्व प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह जिस इंसपेक्टर राज को लानत भेजते हुए कहते थे कि वह अब कभी नहीं लौटेगा उसे कमलनाथ ने आते ही एक बार फिरसे जिंदा कर दिया।

शुद्ध के लिए युद्ध हो, तबादलों का बेशर्म कारोबार हो या फिर माफिया के विरुद्ध संग्राम का उद्घोष हो सभी के पीछे सत्ता की आड़ में लूट ही प्रमुख धुरी रहा है। कमलनाथ और उनकी ब्रिगेड ने सत्ता की आड़ में करोड़ों रुपयों का जो खेल किया है उसका सीधा असर प्रदेश की जनता पर पड़ रहा है। मंहगाई और अराजकता ने अपराध का आंकड़ा बढ़ा दिया है। सरेआम लूट, हत्याएं और मारपीट की घटनाएं बढ़ गईं हैं। जिस डकैती समस्या को कभी समाप्त घोषित कर दिया गया था वह अब अपहरण उद्योग के रूप में एक बार फिर सिर उठाने लगी है। जीएसटी को असफल बनाने के लिए राज्य प्रायोजित जो टैक्स चोरी की मुहिम चलाई जा रही है उसने केन्द्रीय करों में मिलने वाले हिस्से को अप्रत्याशित रूप से घटा दिया है। कमलनाथ जिस बेशर्मी से खजाना खाली है का राग अलाप रहे हैं उससे भी साफ हो गया है कि मौजूदा सरकार के पास प्रदेश को सफल बनाने का कोई रोड मैप नहीं है।

अब इन हालात में भाजपा ने विष्णुदत्त शर्मा को प्रदेश की कमान थमाकर फैला रायता समेटने की जो कवायद शुरु की है उसका कितना असर जमीन पर होगा उसका आकलन करना निश्चित ही बहुत जटिल हो गया है। विष्णुदत्त शर्मा संघ की जोड़ने वाली राजनीति की गोद में पले बढ़े हैं। वे सभी वर्गों और तबकों के बीच संबंधों की फेविकाल बिछाते रहे हैं। बेशक वे इस कार्य में निपुण हैं। बरसों से वे समाज को जगाने वाले प्रचारकों की भूमिका में रहे हैं। इसके बावजूद आज दौर बदल गया है। अब समाज को जगाने के बजाए उसे मुफ्तखोरी के नशे में डुबाने का दौर शुरु हो गया है। साम्यवाद जहां सख्ती से नियंत्रण करता रहा है वहीं पूंजीवाद सुर संगीत में डूबे प्रलोभनों की लोरियां सुना रहा है। ऩिश्चित रूप से ऐसे दौर में भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनकर विष्णुदत्त शर्मा को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। ये चुनौतियां उनकी अब तक की राजनीतिक विरासत से बिल्कुल अलग हैं। यही वजह है कि भाजपा और संघ के स्वयंसेवकों के सामने तरह तरह के सवाल उठ रहे हैं जिनका शमन सिर्फ उन्हें ही करना है। देखना है वे राजनीति के इस व्यूह को कैसे भेद पाते हैं।

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