देश के नीति आयोग ने आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य को सफल बनाने के लिए मध्यप्रदेश को भी आत्मनिर्भर बनाने का फार्मूला पेश किया है। मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार इसे सफल बनाने के लिए प्राण प्रण से जुट गई है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सभी जिलों के कलेक्टरों को निर्देश दिए हैं कि वे अब कर्ज लेकर बांटे जाने वाले बजट के भरोसे न रहें। उन्हें प्रदेश के लगभग साढ़े सात करोड़ लोगों को काम देना है और अपने अपने जिलों की अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाना है। कमोबेश यही शुरुआत 2003 में उमा भारती की सरकार ने की थी। दिग्विजय सिंह की कांग्रेसी सरकार को प्रदेश की जनता ने जिस आक्रोश के साथ कुचला था उसे देखते हुए यही कामना की जा रही थी कि मध्यप्रदेश की दशा और दिशा बदली जा सकेगी। तब केन्द्र में कांग्रेसी सरकारें थीं और उन्होंने अपने पैरों पर खड़े होते मध्यप्रदेश को एक बार फिर कर्ज की बैसाखियों पर ला खड़ा करने के लिए तमाम षड़यंत्र रचे। उमा भारती को केवल लोधियों से घिरा हुआ दिखाकर उन्हें अपदस्थ किया गया। ये तमाशा देश भर ने देखा लेकिन कोई कुछ न कह सका।
बाबूलाल गौर की ढपोरशंखी सरकार ने कांग्रेसी हाई कमान की मंशाओं को अक्षरशः लागू किया और प्रदेश एक नए कर्ज के दलदल में फंसने के लिए तैयार हो गया। शिवराज सिंह चौहान की ताजपोशी तो इसी एजेंडे के तहत की गई थी। नतीजतन पंद्रह सालों तक उन्होंने अधोसंरचना के विकास के नाम पर धड़ा धड़ कर्ज लिया। दिग्विजय सिंह की जो फौज मध्यप्रदेश को लूटने का डेरा डाले बैठी थी शिवराज सरकार को उसी ठग लाबी ने घेर लिया। भाजपा के संगठन महामंत्री कप्तान सिंह सोलंकी ने जिन्हें मध्यप्रदेश का स्वाभाविक शासक बताते हुए भाजपा में शामिल किया वे दरअसल बजट के लुटेरे थे।शिवराज को कई सालों बाद ये अहसास हुआ कि वे ठगों से चंगुल में बुरी तरह फंस चुके हैं। उमा भारती ने जिन राघवजी भाई को वित्तमंत्री बनाया था उन्होंने बेहतर वित्तीय प्रबंधन किया और कर्ज पर कर्ज लेने की राह प्रशस्त होती चली गई। राज्य आय बढ़ाता जा रहा था इसलिए तयशुदा कर्ज लेने में कोई गुरेज भी नहीं था। राघवजी भाई के बाद घटिया वित्तीय प्रबंधन और लोकप्रियता की लोलुपता ने राज्य को हवाई किले में तब्दील कर दिया। यही वजह थी कि शिवराज सरकार उस कांग्रेस से चुनाव हारी थी जिसका न तो कोई संगठन था, न नेता और न ही बजट। सत्ता से उतरने पर शिवराज ने ये कहकर अपनी लाचारी का प्रकटीकरण भी किया था कि मैं मुक्त हो गया।
मध्यप्रदेश का दुर्भाग्य है कि इसे हमेशा से आक्रमणकारी लुटेरों ने अपनी हवस का निशाना बनाया है। मुगलों ने जिस तरह यहां लूट मचाई उससे राज्य के वनवासी अलग अलग टोलों और मजरों में बंट गए और गरीबी की जहालत भरी जिंदगी जीने को मजबूर हुए थे। भारत में मुगल शासन का पतन होने पर मराठों ने 18 वीं शताब्दी में मालवा पर अधिकार करना चाहा था। मालवा के तत्कालीन सूबेदार और जयपुर के सवाई जय सिंह ने भेलसा का अधिकार भोपाल के नवाब को दे दिया था। नवाबों की अक्षमता के चलते ये हिस्सा शीघ्र ही मराठों के आधिपत्य में चला गया। मई 1736 ईस्वी के अंत तक जयसिंह के कहने पर बाजीराव पेशवा को मालवा का नायब सूबेदार बनाया गया। दिल्ली की सल्तनत बहुत कमजोर थी और जयसिंह ने बाजीराव के कंधे पर रखकर अपनी सूबेदारी बचाने की कोशिश की। पेशवा को लगा कि इस इलाके को नए सिरे से संगठित करना चाहिए और उसने अपनी कई मांगों के बारे में दिल्ली को अवगत भी कराया। अपनी शैली का शासन स्थापित करने के बाद वह दक्षिण की ओर चल पड़ा।तब विदिशा मराठों के मार्गदर्शन में चल रहा था। पेशवाओं की ओर से ये क्षेत्र सिंधिया राजघराने की निगरानी में था। सिंधिया राजपरिवार की अंदरूनी उठापटक का फायदा उठाकर देवास के तुकोजी और जीवाजी पंवार बंधुओं ने विदिशा की घेराबंदी कर डाली। 11 जनवरी 1737 को उन्होंने उस पर अधिकार करके कर वसूलना शुरु कर दिया। इस स्थिति पर नियंत्रण के लिए पेशवा को बुंदेलखंड से वापस विदिशा आना पड़ा।
मराठों की शक्ति बढ़ रही थी इसे देखते हुए निजाम को दिल्ली बुलाकर पुख्ता रणनीति बनाई गई। निजाम अपने लाव लश्कर के साथ सिरोंज पहुंच गया। यहां का मराठा एजेंट विशाल सेना देखकर भाग गया। निजाम यहां से पेशवा की गतिविधियों का अध्ययन कर रहा था तभी उसे उत्तर से लौटता पिलाजी जाधव मिल गया। निजाम ने उसका उचित सम्मान किया। पिलाजी तब निजाम की सेना का सहयोगी बन गया था। निजाम ने दिल्ली जाकर वहां के मुगल बादशाह को आश्वासन दिया कि वह मराठों को नर्मदा से आगे बढ़ने से रोक देगा। इस हूल के बदले में निजाम को मुगल बादशाह से पांच सूबे और एक करोड़ रुपए का वचन मिल गया। दिल्ली के तख्त ने तभी जयसिंह को सूबेदार और बाजीराव को नायब सूबेदार पद से हटाकर निजाम के बड़े बेटे को मालवा का सूबेदार बना दिया।
मराठों को भगाने के लिए निजाम ने दिल्ली से बड़ी सेना ली। वह दिसंबर 1737 के शुरु में सिरोंज और 13 दिसंबर को भोपाल पहुंचा। तब पेशवा नजदीक ही पड़ाव डाले पड़ा था। उसने चतुराई से निजाम की सेना की नाकेबंदी कर डाली। निराश निजाम ने निकल भागने की कोशिश की लेकिन मराठों ने उसे पीछा करके हलाकान कर दिया। उसकी सेना की रसद बंद कर दी गई। छापामार शैली में हमले किए गए। इससे घबराकर निजाम ने 6 जनवरी 1738 में दोराहा सराय में पेशवा से संधि कर ली। संधि की शर्तों के अनुसार निजाम ने मालवा में मराठों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। नर्मदा और चंबल के बीच के पूरे इलाके में उसने मराठों की संप्रभुता स्वीकार कर ली। हालांकि इस संधि पर पड़ा पर्दा 1741 में जाकर उठा। अगले पांच सालों में पेशवा ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली और प्रशासन दुरुस्त कर लिया।
मराठा सेनाओं ने मार्च 1745 में विदिशा(भेलसा) के किले पर आक्रमण किया और उस पर कब्जा कर लिया। विदिशा 1753 तक पेशवा मराठों के अधिकार में रहा। मराठों ने अपने कुशल भूमि प्रबंधन के सहारे धीरे धीरे भोपाल राज्य में भी अपना दखल बढ़ा लिया था। पेशवाओं का साम्राज्य और भी अधिक मजबूत हो सकता था लेकिन मराठों के बीच अयोग्य लोगों को मिले महत्व की वजह से ये इलाका अधिक प्रगति नहीं कर पाया।
आजादी के बाद दिल्ली की सल्तनत ने नेहरू इंदिरा को मजबूत बनाकर मराठों को तहस नहस कर दिया। इंदिरा गांधी के करीबियों ने जब सिंधिया राजघराने का खजाना और जमीनें लूटने का अभियान चलाया तो उन्हें भरपूर संरक्षण मिलता रहा। अब कालचक्र घूमकर एक बार फिर सिंधिया घराने की ओर आशाभरी निगाहों से देख रहा है। कमलनाथ सरकार के माध्यम से दस जनपथ यहां क्षत्रियों की सत्ता को कुचलने का प्रयास कर रहा था लेकिन सिंधिया की बगावत ने उसकी मंशा पर पानी फेर दिया । बाजीराव का प्रयास था कि वह भारत की धरती से लुटेरों को खदेड़कर बाहर कर दे। बहुत हद तक वह इसमें सफल भी हुआ। दोराहा की संधि इस दिशा में सबसे प्रमुख मील का पत्थर बनी। सिंधिया की बगावत लगभग यही संदेश देती है कि पेशवाई एक बार फिर लाचार निजाम को घुटनों पर लाने में सफल हुई है।
भारतीय जनता पार्टी के मजबूत होने और नरेन्द्र मोदी जैसे मजबूत शासक की मौजूदगी ने अलग अलग ढपली और अपना अपना राग सुना रहे शासकों को एकजुट होने का अवसर दिया है। आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश इसी प्रशासनिक सुधारों का मुखपत्र बनकर सामने आया है। देखना ये है कि मध्यप्रदेश को चरोखर समझने वाले लुटेरे इस जन अभियान में क्या भूमिका निभाते हैं। बाजीराव के सेनानी रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया के वंशजों की योग्यता भी इस अभियान में कसौटी पर है। उन्हें दशकों तक दिल्ली की सल्तनत संभालते रहे माफिया से भी निपटना है और मध्यप्रदेश में मजबूत हो चुके भ्रष्ट माफिया से भी टक्कर लेनी है। शिवराज सिंह चौहान जिस शैली में शासन चला रहे हैं वह निश्चित रूप से आगे जाकर टकराव का रूप लेगी यह संकेत अभी से मिलने लगे हैं।
( लेख के ऐतिहासिक तथ्य विदिशा जिले के गजेटियर से लिए गए हैं.)
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