भोपाल,7 मार्च,(प्रेस सूचना केन्द्र)। गांजा या भांग भारत के कमोबेश हर इलाके में प्रयोग किया जाता है। कानूनी रोक के बावजूद ये नशा सभी इलाकों में आसानी से उपलब्ध हो जाता है। इस नशे का इस्तेमाल करने वालों का कहना है कि इन नशे से कोई नुक्सान नहीं होता है। इसके विपरीत हालिया शोधों ने साबित किया है कि गांजे का नशा कई तरह की मानसिक बीमारियों को जन्म दे देता है। इसकी वजह नशे की लत होती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़ दुनिया भर में क़रीब डेढ़ करोड़ लोग रोज़ाना गांजे का किसी न किसी रूप में इस्तेमाल करते हैं। यह संख्या किसी भी और ड्रग्स से काफ़ी ज़्यादा है. इसका सबसे ज़्यादा ख़तरा युवाओं में ख़ासकर किशोरों को होता है।
ताजा शोध बताते हैं कि किशोरों के गांजा इस्तेमाल करने से उनमें डिप्रेशन, शिज्नो फ्रेजिया जैसी मानसिक बीमारियों का ख़तरा बढ़ जाता है। शोध में सामने आया है कि गांजे का सेवन करने से दिमाग़ के दो महत्वपूर्ण न्यूरोट्रांसमीटरों पर असर पड़ता है। ये हैं सेरोटोनिन और नोराड्रेनलीन. ये दोनों दिमाग़ में भावनाओं को, ख़ासकर डर की भावना को नियंत्रित करते हैं।
कनाडा के जो किशोर बहुत ज़्यादा गांजे का सेवन करते हैं. इससे उनमें डिप्रेशन की शिकायत बढ़ती जाती है।इसके अलावा उनमें डर से जुड़ी भावनाएं बहुत ज़्यादा बढ़ जाती हैं। चिंताजनक तो ये है कि गांजे और शराब का एक साथ सेवन भी बढ़ता जा रहा है। यूरोपीय संघ के ड्रग्स विशेषज्ञ इस नए ट्रेंड की भी खतरनाक मानते हैं। नशे की लत लग जाने के बाद युवा लड़के लड़कियां गांजे का धुआं, बीयर या फिर एक्सेटिसी की गोलियां भी साथ में लेते हैं जो बहुत खतरनाक साबित होता है।
यूरोपीय संघ में नशाखोरी के मामलों पर निगाह रखने वाले अधिकारी कहते हैं कि ड्रग्ज और अल्कोहल की मिलावट बड़ी समस्या है। ख़ासकर युवाओं में पी कर धुत्त होना और उसके साथ ड्रग्स लेना एक साथ चलता है। ड्रग्स लेने वाले अकसर शराब के भी आदी होते हैं।”
अगर बढ़ती उम्र में गांजे का सेवन किया जाता है तो मस्तिष्क में सेरोटोनिन की मात्रा कम होने लगती है। इससे भावनात्मक असंतुलन पैदा होता है और नोरेड्रेनलीन की मात्रा दिमाग़ में बढ़ने लगती है जिससे तनाव बढ़ने का जोखिम बढ़ता जाता है या व्यक्ति तनाव की स्थिति का मुक़ाबला ठीक से नहीं कर पाता।
इसके अलावा गांजे से बना स्कंक बहुत ज़्यादा ख़तरनाक है और इससे शिज्नो फ्रेजिया होने का ख़तरा भी बढ़ जाता है। लंदन के किंग्स कॉलेज में मानसिक रोग संस्थान के शोध में सामने आया है कि स्कंक लेने वालों के मस्तिष्क में टेट्रा हाइड्रो कैनेबिनॉल नाम का रासायनिक पदार्थ बहुत बढ़ जाता है और इससे मानसिक बीमारियां होने का ख़तरा भी बढ़ जाता है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि “कई नए तरह के उत्पाद बाज़ार में हैं जो बहुत ही आक्रामक तरीक़े से बेचे जाते हैं और अकसर इंटरनेट के ज़रिए. जांच या प्रतिबंधों को अनदेखा करके यह व्यापारी बहुत तेज़ी से काम करते हैं।”
इसी तरह गांजे के कई अन्य उत्पाद हैं जो स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं। अब तक के शोधो से यह भी सामने आया है कि गांजे के पौधे का इलाज में भी इस्तेमाल होता है। कैंसर, एड्स और नॉशिया जैसी बीमारियों में इसका इस्तेमाल होता है, लेकिन ज़्यादा मात्रा में लेने पर इसके प्रभाव बहुत हानिकारक होते हैं क्योंकि टेट्राहाइड्रोकैनेबिनॉल या टीएचएस की ज़रा भी ज़्यादा मात्रा और इसका बार बार सेवन मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर बहुत बुरे प्रभाव डालता है। इसीलिए इलाज के लिए जिन दवाओं को संश्लेषित करके बनाया गया है उनमें नशाकारी तत्व टीएचएस की मात्रा कम रखी जाती है।
कैनेबिस, मैरियुआना या गांजा के नाम से जाना जाने वाला यह पौधा मूल रूप से मध्य और दक्षिण एशिया में पाया जाता है और नशे के अलावा गांजे के अन्य इस्तेमाल अलग अलग समाजों में हज़ारों साल से चले आ रहे हैं। भारत में हिमाचल क्षेत्र का गांजा और भांग अच्छे माने जाते हैं।जबकि मध्यप्रदेश में आंध्रप्रदेश के सीमांत इलाके से गांजे की तस्करी की जाती है। नेपाल में भी मांग उठ रही है कि जब कई यूरोपीय देशों ने इसकी खेती पर से प्रतिबंध हटा दिया है तो वहां भी इसकी खेती को कानूनी निगरानी में किया जाए इससे किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारी जा सकती है।
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