समृद्धि में सहायक हैं संग्रहालय बोले मनोज श्रीवास्तव

श्री मनोज श्रीवास्तव ने कहा कि कवि दुष्यंत स्मृति संग्रहालय का दूसरा चरण अब शुरु होगा

भोपाल,20 मई,(प्रेस इंफार्मेशन सेंटर) मानव मन अपने गौरव के बिंदुओं का स्मरण करके खुद को मजबूत बनाता है। यही वजह है कि हमारी प्रेरणा के भावों से जुड़े संग्रहालय अर्थव्यवस्था को बूस्ट देने वाले इंजन बन जाते हैं। उज्जैन में महाकाल लोक,काशी में बाबा विश्वनाथ परिसर, गुजरात में सरदार वल्लभ भाई पटेल की विशाल प्रतिमा( स्टेच्यू आफ यूनिटी) आज सरकार के लिए रिकार्डतोड़ कमाई का साधन बन रहे हैं। भारत के संविधान ने संसद में पारित विषयों पर बने संग्रहालयों को आयकर में छूट दी है।इस नामुराद शर्त को हटाना होगा तभी देश की विरासत को संजोया जा सकता है। राजधानी में कवि दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय में आयोजित कमलेश्वर व्याख्यान माला के अंतर्गत- संग्रहालय, समाज और मीडिया- विषय पर आयोजित व्याख्यान में पूर्व संस्कृति सचिव मनोज श्रीवास्तव ने ये विचार व्यक्त किए । संस्कृति विभाग के सहयोग से आयोजित इस आयोजन की अध्यक्षता  प्रसिद्ध संस्कृति कर्मी वसंत निर्गुणे ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में पुरातत्व वेत्ता डॉ.मनोज कुमार  कुर्मी ने भी अपने विचार व्यक्त किए। संग्रहालय के अध्यक्ष श्री वामनकर ने विषय का प्रवर्तन किया और संचालन श्री घनश्याम मैथिल अमृत ने किया। संग्रहालय की सचिव सुश्री करुणा राजुरकर ने सभी आगंतुकों और सहयोगियों के प्रति अपना आभार प्रदर्शित किया।

मुख्य अतिथि के रूप में अपने संबोधन में श्री मनोज श्रीवास्तव ने कहा कि भोपाल ऐसा महानगर है  जहां 21 से ज्यादा संग्रहालय मौजूद हैं। ये दर्शाता है कि भोपाल की सांस्कृतिक विरासत कितनी समृद्ध है। आमतौर पर हमारे सामाजिक परिवेश में अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोने का भाव देखने नहीं मिलता है। इसके बावजूद किसी एक साहित्यकार की स्मृतियां संजोने के लिए एक व्यक्ति ने दीवानगी की हद तक काम किया हो ऐसा देखने नहीं मिलता है। स्वर्गीय राजुरकर राज मेरे सहपाठी रहे हैं और उन्होंने कवि दुष्यंत कुमार के संग्रहालय को समाज में विशिष्ट पहचान दिलाई है। ये  काम हमारे विश्वविद्यालय ,कालेज या कई अन्य संस्थान भी कर सकते हैं। वे यदि किसी एक व्यक्तिव के कृतित्व को संग्रहालय के रूप में संरक्षित करना शुरु कर दें तो हम अपनी विरासत से जुडा समाज बना सकते हैं।

विश्व के कई विश्वविदयालय और संस्थानों की ओर से चलाए जा रहे संग्रहालय पूरी दुनिया के ऊर्जावान लोगों की प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं। मिसिसिपी विश्वविद्यालय ने नोबेल और पुलित्जर पुरस्कार विजेता लेखक विलियम फॉकनर, का संग्रहालय बनाया है। राष्ट्रकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर की स्मृति में बना म्यूजियम पूरे भारत तो क्या विश्व के लोगों के आकर्षण का केन्द्र है। ग्लास्गो विश्वविद्यालय का मार्गन संग्रहालय अपनी विविधताओं के साथ दुनिया में अनूठा है।

उन्होंने कहा कि हमारे देश में साहित्यिक संग्रहालय न तो किसी धनपति ने बनाए न किसी संस्थान ने और सरकार ने तो कभी इस ओर गंभीरता से विचार भी नहीं किया। जो काम संस्थानों या सरकार को करना था वो अकेले राजुरकर ने कर दिखाया। जिसके पास संसाधन नहीं थे केवल समर्पण था। संग्रहालयों को लेकर हमारे स्कूल कालेजों में कोई पाठ्यक्रम भी नहीं पढ़ाया जाता है। प्रदेश में गिने चुने स्कूल कालेज हैं जो अपने विद्यार्थियों के लिए संग्रहालयों के आऊटरीच कार्यक्रम करवाते हैं। कई देशों में ये पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। जहां बच्चों को अपनी विरासत का संग्रह करना सिखाया जाता है। संग्रहालय में अनुसंधान होते हैं। डाक्यूमेंटेशन सिखाया जाता है। हमारे यहां तो संग्रहालय के शैक्षणिक नजरिए को भी नजरंदाज किया गया है।ऐसे में दुष्यंत संग्रहालय एक जीवंत प्रयोगशाला बन गया है।

उन्होंने कहा कि श्री राजुरकर की बेटी विशाखा ने मुझसे पूछा कि भारत में कितने संग्रहालय सफलता पूर्वक चलाए जा रहे हैं। मैंने उसे बताया कि एक फैजावाद में सरोजिनी नायडू का है। इसी तरह कोट्टायम में रमन पिल्लई के कार्यों को संग्रहित किया गया है। हमारे यहां साहित्यकारों की स्थिति न तो जीवनकाल में अच्छी है न मरने के बाद उनके काम को सराहा जाता है। गीतकार साहिल लुधियानवी ने तो सार्वजनिक तौर पर कई बार इस पर दुख व्यक्त किया था।

ऐसा समाज जहां कोई संग्रहालय नहीं बनाता वहां दुष्यंत संग्रहालय अपने आप में अनूठा है। क्या होशंगाबाद में भवानी प्रसाद मिश्र या बाबई में माखनलाल चतुर्वेदी,उज्जैन में श्रोत्रिय जी का संग्रहालय नहीं बनाया जाना चाहिए। नरेश मेहता से गजानंद माधव मुक्तिबोध जैसे साहित्यकार हमारे यहां हुए हैं उनके भी संग्रहालय नहीं है। राजुरकर राज का काम उल्लेखनीय तो है पर अभी वैसा नहीं है जैसा होना चाहिेए। ये साहित्यकारों का मंच तो बन गया है लेकिन अभी संग्रहालय नहीं बन पाया है। यहां दुष्यंत जी के जीवन वृत्त से संबंधित सारी चीजें होनी चाहिए। उनकी व्यक्तिगत उपयोग की वस्तुएं भी रखी जानी चाहिए। दुष्यंत जी की पुस्तकों और पांडुलिपियों का सेट बल्कि उन पर लिखी पुस्तकें और शोध भी रखे जाने चाहिए। उनकी रचना प्रक्रिया की कुछ व्यावहारिकताएं और वास्तविकताएं थीं उनका सूचनात्मक प्रस्तुतिकरण होना चाहिए। यह दूसरा भाग राजुरकर जी की बेटी विशाखा को पूरा करना है।

उन्होंने कहा कि हमारे यहां संग्रहालय की संस्कृति नहीं है। आईसलेंड में तो नाव का संग्रहालय बना हुआ है। जिस नाव से दक्षिण अमेरिका से चलकर लोग आईसलेंड पहुंचे थे। उस नाव को संरक्षित किया गया है। वहां लोग जाते हैं और वहां की संस्कृति को आत्मसात करते हैं।

कई शहरों में सिटी म्युजियम की परंपरा है । हर नगर का एक इतिहास है। रमेश शर्मा जी किताब लिख रहे हैं जो भारत के वैदिक इतिहास को बताएगी। उन सब चीजों को लेकर हमारी क्या तैयारी है। किस काल में जनजीवन कैसा था। किचिन कैसे थे घर कैसे थे। ये भी दर्शाया जाता है। विश्व के विकसित समाज अपनी उपलब्धियों का ही म्यूजियम नहीं बनाते वे अपनी लज्जा का भी म्यूजियम बनाते हैं। लिवरपूल में दास प्रथा का म्यूजियम बना है। जिसमें दासों के व्यापार को दर्शाया गया है। शेख्सपीयर का म्यूजियम सरकार की ओर से नहीं चलाया जाता। उसे मिला दान आयकर में छूट दिलाता है। यदि आप दान देंगे तो कर में छूट मिलेगी। मास्को में पुश्किन का म्यूजियम है उसे भी एक संस्थान चलाता है ।पुश्किन सरकार के समर्थक साहित्यकार माने जाते हैं लेकिन उनका संग्रहालय सरकार नहीं चलाती।  ये संग्रहालय कई पार्टनर, और सदस्य मिलकर चलाते हैं। मध्यप्रदेश में कालिदास संग्रहालय है। भोपाल के कुछ संग्रहालयों में स्टेट म्यूजियम, आदिवासी संग्रहालय, ओरछा में राम राजा म्यूजियम इस तरह के अच्छे प्रयास हैं। हमने वाणिज्यकर विभाग में रहते हुए डाक टिकिट का म्यूजियम बनाया था। हमें अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को सहेजकर रखना आना चाहिए।

हमारे देश में भारतीय पुरातत्व संग्रहालय विभाग ने लगभग 3800 स्थानों को संरक्षित किया है। जबकि ब्रिटेन छोटा सा देश है वहां बीस  हजार राष्ट्रीय संग्रहालय हैं। फ्रांस में चवालीस हजार संग्रहालय हैं। हमारे संविधान में संग्रहालय बनाने के लिए जो प्रावधान किए गए हैं उनमें इसे बनाना राज्य का कर्तव्य बताया गया है। लेकिन केवल उन्हीं संग्रहालयों को अनुमति दी जाती है जो संसद की निगाह में राष्ट्रीय महत्व के होते हैं हमारे देश के संविधान को ऐतिहासिक कहा जाता है पर उसमें राष्ट्रीय महत्व की शर्त रख दी गई है। जबकि दुनिया भर के सारे देशों में इनकी अनुमति देना राज्य का कर्तव्य होता है।इसमें संसद की घोषणा की क्या आवश्यकता है। कभी किसी ने ये कानून लिखा होगा पर हमने उस संस्कृति की बाधा को दूर नहीं किया।जब इस विषय पर चिंतन होगा तभी हमारे समाज में और मीडिया में कोई चेतना आएगी। मीडिया ही बहुत सारी चीजों को चलाता है। यदि मीडिया में डिबेट शुरु नहीं होगी तो हमारी संवेदना इन बातों को प्रस्तुत नहीं कर पाएगी।  

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