सत्ता के लिए राष्ट्र के दीर्धकालिक हित क्या वाकई महत्वहीन होते हैं।वस्तुतः संसदीय राजनीति का चरित्र कुछ ऐसा ही ढलता जा रहा है।इस समय देश में सरकारी कार्मिकों के लिए पुरानी पेंशन का मुद्दा खूब छाया हुआ है।गले तक कर्ज में डूबे पंजाब ने अपने 1.60 लाख कार्मिकों के लिए एनपीएस के स्थान पर पुरानी पेंशन बहाली के लिए कदम बढ़ाएं हैं।राजस्थान,छत्तीसगढ़ ,झारखंड पहले ही एनपीएस को अपने यहां बंद कर 1972 की पेंशन योजना को बहाल करने की घोषणा कर चुके है।मप्र में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वित्त विभाग को इस मामले का परीक्षण करने के लिये कहा है और देर सबेर मप्र भी अगले कुछ महीनों में अपने 4.5 लाख कर्मचारियों को पुरानी पेंशन बहाल करने वाला राज्य होगा।गुजरात में कांग्रेस एवं आप भी अपने वादों में इसे दोहरा रहे हैं।स्पष्ट है पुरानी पेंशन मुद्दा एक चुनावी हथकंडा बन गया है और इसकी बहाली में राजनीतिक दल सत्ता की चाबी अंतर्निहित मान चुके हैं।यह जानते समझते हुए भी कि सरकारी कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन देना सही मायनों में आर्थिक रूप से एक जोखिमपूर्ण नीति है।यह भी एक तरह से रेवड़ी संस्कृति ही है जिसका सामाजिक न्याय या सुरक्षा के साथ कोई तार्किक औऱ युक्तियुक्त संबंध नही है।2004 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 1972 के पेंशन उपबन्धों के स्थान पर भागीदारी केंद्रित एनपीएस योजना को आकार दिया था जिसे बाद में यूपीए सरकार ने भी परिवर्धित रूप से सशक्त बनाया।बंगाल को छोड़कर सभी राज्यों ने इसे अपने यहां लागू किया और आज भी सभी राज्यों एवं केंद्र के कार्मिकों के लिए यह लागू ही है।पुरानी पेंशन असल में 70 के दशक की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों की मांग पर निर्भर थी।यह रिटायरमेंट के समय अंतिम वेतन पर 50 फीसदी रकम को पेंशन के रूप में निर्धारित करती थी और कर्मचारी की मृत्यु उपरांत कुछ अंतर के बाद परिवार पेंशन में यानी पत्नी के नाम हो जाती हैं। यह वह दौर था जब वेतन आज की तरह ऊंचे नही थे।औसत आयु भी कम थी।इसमें कर्मचारियों को सीधे कुछ भी नही देना होता था जबकि एनपीएस में उन्हें 10 फीसद का अंशदान देना होता है।सरकार भी अपनी ओर से 14 फीसद जमा कर पेंशन फंड में अपना योगदान देतीं हैं।इस एनपीएस के स्थान पर कर्मचारियों द्वारा पुरानी पेंशन को बहाल करने के लिए संगठित रूप से देश भर में दबाव बनाया जा रहा है।सरकार में बैठे और बाहर सत्ता में आने को आतुर राजनीतिक दलों को लगता है कि कर्मचारियों के थोक वोट बैंक से उनकी किस्मत खुल सकती है, इसलिए वे इस योजना के पुराने एवं पश्चावर्ती दुष्परिणामों से वाकिफ होने के बाबजूद आगे बढ़ रहे है।ऐसा इसलिए क्योंकि हर दल को लगता है कि उसकी घोषणा से उस राज्य में तत्काल आर्थिक संकट खड़ा नही होगा इस स्थिति में 10 से 15 साल लगेंगे। इसलिए सत्ता के लिए 15 साल की कड़वी सच्चाई को आज क्यों स्वीकृति दी जाए।वस्तुतः पुरानी पेंशन उस समाजवादी सोच की उपज रही है जिसने राज्य की अवधारणा में नागरिकों को राज्य पर आश्रित बनाकर रखना चाहा है।आज भारत समाजवाद से आगे वैशविक आर्थिक शक्ति के रूप में अपनी जगह बना रहा है।1991 के बाद से जिन आर्थिक नीतियों पर देश आगे बढ़ा है वहां पुरानी पेंशन जैसे प्रकल्प स्वीकार नही हैं।सवाल यह भी कि 2004में इस पुरानी पेंशन को एनपीएस में बदलने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी?असल मे 1990 तक आते आते केंद्र एवं राज्यों की अधिकतर सरकार अपने कार्मिकों को समय पर वेतन एवं पेंशन देनें की स्थिति में नही रह गई थीं।58 साल में रिटायरमेंट की आयु 60 फिर कुछ मामलों में 62 औऱ 65 तक कर दी गई। और यह भी तथ्य है कि आज औसतन आयु के मामले में भी 15 से 20 बर्ष का इजाफा हुआ है।ऐसे में पुरानी पेंशन का बोझ करदाताओं के साथ अन्याय तो है ही साथ ही लोकधन के समावेशी वितरण पर भी सवाल उठाता है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के मुताबिक राज्यों के अपने राजस्व में पेंशन खर्च का हिस्सा तेजी से बढ़ रहा है। यह 1990 तक 8.7 फीसद था और 2020-21 तक बढ़कर करीब 26 फीसद पर आ चुका था। चुनावी लिहाज से अगर राज्य पुरानी पेंशन पर वापिस आते हैं तो परिणाम बहुत खतरनाक हो सकते हैं। यह राज्यों की खस्ताहाल वित्तीय स्थिति को और जर्जर कर देगा।
एसबीआई रिसर्च के आंकड़ों को देखे तो अधिकतर राज्य अपने कुल राजस्व संग्रहन का अधिकांश हिस्सा अपने कार्मिकों के वेतन,भत्ते,पेंशन पर खर्च कर रहे हैं। बिहार 58.9%उत्तराखंड 58.3%झारखंड 31.5%पश्चिम बंगाल 32.8% कुल राजस्व का खर्च सरकारी कार्मिकों पर खर्च हो रहा है।जिस राजस्थान ने एनपीएस को खत्म करने का निर्णय लिया है वहां हालात यह है कि कुल राजस्व के 58 हजार करोड़ में से 48 हजार करोड़ वेतन भत्तों औऱ 19 हजार करोड़ पेंशन पर खर्च करने पड़ते रहे हैं।उत्तरप्रदेश में कुल 6 लाख करोड़ के बजट में से 55 फीसद अपने कर्मचारियों के वेतन,पेंशन पर जा रहा है।पंजाब में पिछले पांच साल में 44 फीसद कर्ज बढ़ा है और वह अपने डेढ़ लाख करोड़ के बजट में से करीब 61 हजार करोड़ कर्मचारियों के वेतन पेंशन पर खर्च कर रही है।मप्र में भी करीब 52फीसद बजट की राशि इसी मद में व्यय की जा रही है।कुल मिलाकर सभी राज्यों की कहानी एक सी ही है।
बुनियादी सवाल यह है कि क्या यह आर्थिक सामाजिक न्याय के नजरिये से उचित है? देश मे करीब 12 करोड़ लोग 60 साल से ऊपर है जिनमें से 90 फीसद को किसी प्रकार की संस्थागत पेंशन नही मिलती है।साढ़े पांच करोड़ विधवा महिलाएं इस देश मे है जो अफ्रीका औऱ तंजानिया की कुल आबादी से अधिक हैं।इनमें से अधिकतर आर्थिक सुरक्षा कवच से बाहर है।दुरूह सरकारी तंत्र की दया पर इनमें से कुछ को ही 300 से 600 रुपए मासिक पेंशन मिलती है।देश मे करीब 3 करोड़ दिव्यांग भी है जिन्हें कमोबेश इसी राशि के समतुल्य पेंशन नसीब होती है।31 मार्च 2022 तक एनपीएस में केंद्र सरकार के 2283671 एवं बंगाल छोड़कर राज्यों के मिलाकर कुल 7860657 सरकारी कर्मचारी पंजीबद्ध हैं।यह संख्या 2004 के बाद सरकारी सेवा में आने वालों की है शेष इस तिथि से पहले के भी कार्यरत है जिन्हें पुरानी पेंशन योजना 1972 के तहत लाभ मिलने हैं।एनपीएस में कारपोरेट के 140492,असंगठित क्षेत के 2291660,स्वावलंबन क्षेत्र के 4186943 लोग भी शामिल हैं।अकेले सरकारी कार्मिकों का 7860657 करोड़ एनपीएस में जमा है।जो जीडीपी का करीब 2.4 फीसद है।चुनावी मुहाने पर खड़े राज्यों को लगता है कि वे इस मामले से चुनाव जीत सकते है लेकिन ताजा उत्तरप्रदेश ,उत्तराखंड के उदाहरण सामने है जहां भाजपा को विपक्षी दल इस वादे के बाबजूद हरा नही पाए हैं।बेहतर होगा केंद्र सरकार की तरह सभी राज्य सरकारे भी इस मांग को राष्ट्रीय हितों के साथ विश्लेषित करने का साहस दिखाएं।ऐसा नही होना चाहिये कि विपक्षी दल भाजपा के विरुद्ध इसे एक चुनावी हथियार के रूप में प्रयुक्त करें।राज्यों को यह भी सोचना होगा कि उन्होंने 2004 में इस एनपीएस को अपनाया ही क्यों था?देश में वास्तविक जरूरतमंदों को सामाजिक आर्थिक सुरक्षा का कवच कैसे उपलब्ध हो इस दिशा में चुनावी नही एक सर्वस्पर्शी औऱ समावेशी दृष्टि की आवश्यकता है।एक बार एनपीएस के दायरे में शामिल कुल कर्मचारियों की संख्या और वास्तविक जरूरतमंदों की संख्या का तुलनात्मक अध्ययन भी किया जाना चाहिए।
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