भोपाल,14 मार्च,(प्रेस सूचना केन्द्र)। मोदी अमित शाह की जोड़ी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्यसभा में भेजने का फैसला लेकर भारतीय राजनीति के परंपरावादी युग का अंत कर दिया है। इसके साथ ही चंद मुद्दों के इर्द गिर्द चकरघिन्नी बनी राजनीति की इबारतें भी वाशिंग मशीन के ड्रायर में रखे गीले कपड़ों के समान सींलन मुक्त होने लगीं हैं। इस एक अकेले मूव ने न केवल कांग्रेस बल्कि भारतीय जनता पार्टी के भी पिछलग्गू राजनेताओं को हतप्रभ कर दिया है। स्वर्गीय कुशाभाऊ ठाकरे ने कांग्रेसी राजनीति के शीर्ष दिनों में भी कर्मठ कार्यकर्ताओं की फौज जुटाकर जो संगठन खड़ा किया था वह आज सिफारिशी भाजपाईयों से भर गया है। चौदह सालों के शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल में जो भाजपा चमचों की भी़ड़ बनकर रह गई थी वह सिंधिया के आगमन से उत्साहित तो है लेकिन उसमें भी भविष्य को लेकर संशय के स्वर उभर रहे हैं।
लगभग बीस सालों तक कांग्रेस की राजनीति को शीर्ष मंच पर करीब से देखने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का राजनीतिक प्रशिक्षण बहुत लंबा रहा है। बचपन से राजघराने में जन्म लेने के बाद आधुनिक राजनीति के पुरोधा स्वर्गीय माधवराव सिंधिया की सफल राजनीति को करीब से देखने वाले ज्योतिरादित्य को जनसेवा का पाठ अपने खानदान से मिला है। उनकी दादी स्वर्गीय विजयराजे सिंधिया ने जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी में बदले एक नए राजनीतिक दल को अपने राजघराने की विरासत से पाला पोसा था। वीर शिवाजी जिस तरह आधुनिक महाराष्ट्र की राजनीति की पहचान रहे हैं। मध्यप्रदेश में यही पहचान आज भी बालाजी बाजीराव पेशवा द्वितीय की कर्मठता से है। परम प्रतापी राजा भोज द्वितीय के शासन की जो सुगंध मध्यप्रदेश के स्मृतिपटल पर आज भी अंकित है उसे चिरस्थायी बनाने का काम बालाजी बाजीराव पेशवा ने किया था। पेशवा ने ही ग्वालियर में सिंधिया वंशजों को सल्तनत सौंपी थी। इसके बाद सिंधिया घराने के कई राजाओं ने उस राजनीति को आगे बढ़ाया।
राजमाता विजयाराजे सिंधिया इस राजनीतिक गौरव की मशाल लेकर ही राजनीति में आईं थीं। उनके ऐश्वर्य और विरासत से ईर्ष्या करने वाली श्रीमती इंदिरा गांधी ने सिंधिया राजघराने को मटियामेट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लोकतंत्र और स्वाधीनता की दुहाई देकर अंग्रेजों की पिछलग्गू कांग्रेस का नेतृत्व करते हुए श्रीमती गांधी ने भारतीय राजनीति के तमाम ठिए ठिकानों को ध्वस्त करने का अभियान चलाया था। उनके कुछ सिपाहसालारों ने जिस तरह की कहानियां गढ़ीं उस पर अमल करते श्रीमती इंदिरागांधी ने सिंधिया सल्तनत को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एसपी बनाकर भेजे गए स्वर्गीय अयोध्यानाथ पाठक को लगातार सात गैलेन्ट्री अवार्ड इसी सोच का सबूत हैं। इस दमन चक्र का ही नतीजा था कि चंबल घाटी डकैतों के आतंक से थर्राती रही। श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के निधन के बाद भी भारतीय जनता पार्टी ने चंबल में सामाजिक न्याय की बड़ी लड़ाई लड़ी। उमा भारती के नेतृत्व में बनी भाजपा की सरकार तक ये परंपरा जारी रही। शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा ने डकैती उन्मूलन के नाम पर खेती को सिंचित करने का जो अभियान चलाया उससे न केवल चंबल बल्कि धार झाबुआ के आदिवासी अंचल में भी अपराधों का ग्राफ गिरा था।
इस सबके बावजूद मध्यप्रदेश की राजनीति में आर्थिक विषयों के जानकार नेतृत्व की जरूरत महसूस की जाती रही है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी राजनीतिक पारी शुरु करने से पहले आधुनिक अर्थशास्त्र की जो तैयारी की वह अब तक चलती रही राजनीति में फिट नहीं बैठती है। कांग्रेस की राजनीति तो इसके लिए बिल्कुल ही बोगस है। कांग्रेस गरीबी को संरक्षित करने की जिस राजनीति के तहत समाज को बांटने की विचारधारा लेकर चलती है उससे मध्यप्रदेश कभी गुजरात जैसा या उससे भी आधुनिक राज्य नहीं बन सकता है। दिग्विजय सिंह का बंटाढ़ार शासनकाल रहा हो या फिर शिवराज सिंह चौहान का कर्ज लेकर खैरात बांटने वाला दीर्घ शासनकाल सभी में प्रदेश की जनता की भरपूर उपेक्षा की गई। योजनाओं के नाम पर खैरात बांटकर वोट खरीदने की इस शैली का अंत कभी न कभी तो होना ही था। ये पहल कौन करता। कमलनाथ को उद्योगपति के रूप में प्रचारित करने वाला वर्ग राजनीति की इसी पाठशाला से आता है। बैंकों से कर्ज लेकर घाटे के उद्योग स्थापित करने वाली फर्जी उद्योगपतियों की लाबी इस राजनीति की सूत्रधार है। इस राजनीति से देश को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकानामी बना पाना किसी भी तरह संभव नहीं है।
देश में धनाड्य राजनीति की इस उड़ान का पायलट कोई आर्थिक विषयों का जानकार ही हो सकता है। भाजपा के प्रवक्ता के रूप में काम करने वाले डायचे बैंक के पूर्व प्रबंध निदेशक जफर इस्लाम ने ज्योतिरादित्य सिंधिया में वे क्षमताएं देखीं और उन्हें भाजपा की राजनीति की तरफ मोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया। भाजपा को उनकी दादी राजमाता सिंधिया ने सिंधिया सल्तनत की बागडोर से सींचा था। उनकी बुआएं श्रीमती यशोधरा राजे सिंधिया और राजस्थान की मुख्यमंत्री रहीं वसुंधरा राजे सिंधिया ने इस विरासत को सहेजकर रखा था। यशोधरा जी जब मध्यप्रदेश की उद्योगमंत्री थीं तो उन्होंने विश्व भर में फैले औद्योगिक घरानों को प्रदेश से जोड़ने का सफल अभियान चलाया था। शिवराज सिंह चौहान को संरक्षण देने वाली लाबी को ये पसंद नहीं था और उन्होंने इस अभियान को धराशायी कर दिया।
कांग्रेस हो या भाजपा दोनों में इंदिरागांधी के बैंकों के राष्ट्रीयकरण वाले अभियान से लूट करने वाले दलालों का वर्चस्व रहा है। इस लाबी को कमलनाथ अनुकूल लगते हैं लेकिन ज्योतिरादित्य खटकते हैं। कांग्रेस की सरकार बनाने में मध्यभारत से लगभग चौबीस विधायकों का साथ रहा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया से जुड़े यही विधायक और पूर्व मंत्री आज कमलनाथ सरकार के पतन की वजह बन रहे हैं। मध्यप्रदेश को यदि देश की नई अर्थनीति के साथ कदमताल करना है तो उसे कमलनाथ सरकार से मुक्ति पाना ही होगा। कमलनाथ सरकार के पतन के बाद जो भी नेतृत्व उभरेगा उसमें सिंधिया का असर जरूर रहेगा। ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्यसभा में भेजने के बाद भाजपा चाहे नरेन्द्र सिंह तोमर को प्रदेश की कमान थमाए या फिर उमा भारती या कैलाश विजयवर्गीय को ,शिवराज, नरोत्तम मिश्रा या बीडी शर्मा कोई भी हो ये लीडरशिप प्रदेश में मोदी सरकार की नीतियों को लागू करने में सफल साबित होगी।
जाहिर सी बात है कि कर्ज आधारित अर्थव्यवस्था की राजनीति की पैरवी करने वाले गमले में उगे राजनेता प्रदेश की साढ़े सात करोड़ जनता की अपेक्षाओं को अब तक पूरा नहीं कर पाए हैं। कमलनाथ तो छिंदवाड़ा के ही मुख्यमंत्री बनकर रह गए। उनके कार्यकाल में सरकारी क्षेत्र को जिस तरह लूट का अड़्डा बना दिया गया उससे जनता में भारी निराशा है। शिवराज सरकार की सारी कल्याणकारी योजनाओं को बंद करके कमलनाथ जिस सस्ती बिजली का ढिंडोरा पीट रहे हैं वह जनता के लिए मंहगा सौदा है। शिवराज सिंह चौहान की खैराती राजनीति की तरह ये भी मीठा जहर बनकर जनता को लुभा रहा है। जाहिर है कि ऐसे में आर्थिक विकास की मूलभूत राजनीति करने वालों का वर्चस्व बढ़ना इन ठलुओं और बोगस राजनेताओं को भला कैसे रुचेगा। वे भले ही खफा होते रहें लेकिन इतना तो तय है कि मध्यप्रदेश ने एक नई राजनीति की दिशा में अपने कदम बढ़ा लिये हैं। दिग्गी के चमचे इसे गद्दारी कहें या शिवराज विभीषण की उपमा दें लेकिन बदलाव की ये बयार फिलहाल थमने वाली नहीं है।
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