आज भारत के इतिहास में गौरव पूर्ण दिन हैं जिसमे सुप्रीम कोर्ट ने समलैंकिता को पूरी तरह से मान्यता दे दी. धारा377 को हटा दिया हैं जिससे अब पुरानी मान्यताओं को समाप्त कर दिया हैं .इसका तात्पर्य अब समान लिंग के पुरुष और महिलाये बेफिक्र होकर शारीरिक सम्बन्ध बना सकती /सकते हैं . हमारी समाज में तीन प्रकार के लोग होते हैं आदरणीय /महानुभाव /गणमान्य .इसका मतलब समाज देश परिवार में गणमान्यों को अधिक इज़्ज़त मिलेगी ! ये कैसा न्याय व्यवस्था हैं .जिस मुद्दे पर सरकार को बचाव करना था वहां चुप्पी साधी और जिस पर कोर्ट ने आदेश दिया उसको उलट दिया .
मनुष्य का जन्म उसके अधीन नहीं हैं .उसका जन्म एक दुर्घटनाजन्य घटना हैं .उसका जन्म उसके मुताबिक नहीं होता .जन्म विकृति का सूचक हैं .कारण प्रकृति एक स्वाभाविक क्रिया हैं .प्रकृति (नेचर )और स्वभाव (हैबिट )में अंतर होता हैं .प्रकति का बदलना असंभव और स्वभाव स्थितिजन्य परिवर्तनशील हैं ,इसलिए हमारा जन्म वैध नहीं हैं ,हम अवैध संतान हैं .जो अपने मन मुताबिक जन्म न ले सके उसे क्या कहेंगे ? हमारा जन्म पिता के गर्भ से नहीं हुआ ,माता के गर्भ से हुआ .इसीलिए माता प्रकृति हैं और पिता विकृति हैं .पर धार्मिक सामाजिक मान्यता इसी पर आधारित हैं .संतान उतपत्ति के लिए नर मादा की आवश्यकता होती ही हैं .चाहे मानव हो या जानवर .जानवर अनचाहे काम वासना की पूर्ती करते हैं पर सन्तानोपत्ति के लिए मादा की जरुरत ही होगी .हां जानवरों में कुछ मर्यादा /सीमायें होती हैं पर मनुष्य विवेकवान होने से जानवर से भी हीन हैं .वर्तमान में कामवासना एक रोग हो गया हैं कामी पुरुष रोगी इसीलिए कामाग्नि को शांत करने के लिए प्राकृतिक और अप्राकृतिक संयोगों को तलाशता फिरता हैं .अप्राकृतिक संयोग एक अपराध के साथ अधार्मिक और असामाजिकता हैं .रोग के लिए हीनयोग, अतियोग और मिथ्या योग होता हैं जैसे वर्षा ऋतू में कम वर्षा होना ,या अतिवर्षा होना या वर्ष में ठण्ड या गर्मी पड़ना .ये रोगी होने के लक्षण हैं या रोग होने के .
आज समलैंगिकता पर बहस चल रही हैं न्यायालय में कोई भी जीते या हारे .तर्क बहुत होते हैं अंतहीन होते हैं और विवाद का अंत सुखद नहीं होता हैं .एक सत्य होता हैं और असत्य के अनेकों लिए विवाद और तर्क की जरुरत होती हैं .समलैंगिकता का अर्थ नर नर और नारी नारी में संयोग .उनके समर्थको से जानना चाहता हूँ की क्या वे अपने परिवार में इस धारणा को स्वीकार करेंगे ?क्या वे अपने माँ पिता भाई बहिनो में इस प्रकार के प्रेम या बंधन को स्वीकार करेंगे ?इस प्रकार के बंधन की जीवन रेखा कितनी होती हैं या होगी ? क्या आजतक किसी भी साहित्य में स्त्रियों के समान पुरुषों के सौंदर्य का वर्णन किया गया हैं?मात्र काम वासना ही एकपक्ष हैं या सन्तानोपत्ति .यदि संतान चाहिए हैं तो स्त्री का होना अनिवार्य हैं .बिना स्त्री के संतान उत्पत्ति नहीं हो सकती ,स्त्री का अंतिम सुख उससे शिशु होने से और उसके द्वारा स्तनपान कराने में जो सुखानुभूति होती हैं क्या वह नारी नारी के साथ संभव हैं .? पुरुष पुरुष में कितना सुख की अभिलाषा पूर्ण हो सकती हैं ?
उस समलैंगकिता वाले युगल से यह जानना चाहता हूँ कि समाज में वे स्वयं स्थापित हो सकते हैं या यदि उनके परिवार का कोई सदस्य उनकी बहिन या भाई को वे सामाजिकता देंगे .उनसे उनके पुत्र या पुत्रियों के जन्म की उम्मीद की जाना बेमानी होगी .क्या वे यदि बहुत बड़े महानगर में रहते हैं अनजान शहर में अपरिचित स्थान पर अपने आपको स्थापित कर सकेंगे और उनको कितना सम्मान आपस में या समाज से मिलेगा .ये सब कल्पना लोक में रहने की बात हैं जमीनी हकीकत का सामना कठिन होता हैं .
क्या यह सब नैतिकता को स्वीकार्य हैं क्या ये सब करना प्राकृतिक हैं या अप्राकृतिक .ये सब अनुमान वे अपने परिवार और परिवारजनों से नहीं समझ सकते हैं .हमारी समाज ऐसे लोगों को हीन दृष्टि से देखते हैं . कामाग्नि एक अनिवार्यता हैं और एक वय के बाद कोई भी उससे बच नहीं सकता .पहले वह चोरी छिपे कुछ कृत्य करेगा या उनको दबाएगा या बलात्कार करेगा . इसीलिए एक उम्र के बाद शादी विवाह किया जाता हैं .और शादी करना वैध माना जाता हैं से संतान पैदा करना होता हैं जो वैध/अवैध माना जाता हैं सामाजिक व्यवस्थाओं में .अब जब नर नर और नारी नारी का संयोग होगा तो वे कुंठाग्रस्त होकर मानसिक रुग्णता से ग्रसित होंगे .उनको जिस सुख की आकांक्षा होती हैं वह समान प्रकृति में नहीं मिलेंगी .उन्हें विकृति से सुखानुभूति होंगी अन्यथा वे रुग्ण होंगे या अपराधी बन जायेंगे
हमारे धार्मिक ग्रंथों में इन बातों पर अधिक ज़ोर नहीं दिया गया ,उन ग्रंथों में प्राकृतिक जीवन शैली जीने पर जोर दिया .अब कोई शिखंडी का उदाहरण देकर अपनी बात पर जोर दे रहे हैं पर यह जानना जरुरी हैं की यह यदि प्राकृतिक कृत्य होता तो उन्हें न्यायलय जाने की क्यों जरुरत पड़ती .
इस बात में कोई तथ्य नहीं हैं की यह उनके मौलिक अधिकारों का हनन हैं .इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं हैं की आप क्या करते हैं कैसे करते हैं और क्यों करते हैं पर यदि वे स्वयं आइना के सामने खड़े हो या अपने परिवार या समाज को उजागर करे तब उनकी स्थिति बहुत सम्मानीय नहीं होगी या वे आबादी नियंत्रण में अपना योगदान दे रहे हैं .
क्या वे अपने परिवार के सदस्यों को भी बढ़ावा दे रहे हैं या वे चाहेंगे की वे लोग भी समाज में गणमान्य माने जाए आदरणीय को सामाजिक स्वीकृति हैं पर गणमान्य को नहीं .
दुर्जनम सज्जनं कर्तुरमुपायो न ही भूतले !
अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिनिन्द्रियम भवेत् !!
ऐसा कोई उपाय नहीं हैं जिससे दुर्जन मनुष्य सज्जन बन सकते हो ,क्योकि गुदा को चाहे सैकड़ों बार धोया जाय फिर भी वह मुख नहीं बन सकती .
विषयों के पीछे सब भाग रहे हैं
जिसमे विष हैं उसे चाह रहे हैं
विष के स्वाद को चखने के बाद
विषपान ही करना होगा जीवन भर
न्यायालय से मान्यता मिलने से क्या कोई
व्यवस्था बदल जाएंगी
आदरणीय होने में हित हैं
गणमान्य तिरस्कृत होते हैं और रहेंगे
डॉक्टर अरविन्द जैन संस्थापक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,नियर दी मार्ट होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल 09425006753
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