जीएसटी से मिली विकास की गारंटी

– भरतचन्द्र नायक
गत सप्ताह जीएसटी परिषद ने अठासी वस्तुओं और सेवाओं पर टेक्स के रेट में कटौती कर घरेलु उपभोक्ता उत्पाद के मूल्य में सात आठ प्रतिशत तक उपभोक्ताओं राहत पहुंचाने का अपना मंतव्य जाहिर कर दिया है। इन वस्तुओं और सेवाओं पर 28 प्रतिशत जीएसटी था जिसे घटाकर 18 प्रतिशत और 12 प्रतिशत तक कर दिया है। टेक्स की दरों में कमी का लाभ उपभोक्ता को मिले इसमें दो राय नहीं है, लेकिन इसमें भी अगर मगर लगाकर उत्पादक राहत से उपभोक्ताओं को वंचित कर देते हैं। हांलाकि ऐसी दशा में समस्या से निपटने के लिए भी केंद्र सरकार ने मुनाफा विरोधी प्राधिकरण एन्टी प्राफिटियरिंग निकाय की व्यवस्था की है और उसने पिछले अवसर पर टेक्स घटने पर उत्पाद को और वितरकों को आगाह भी किया था। उसने पुराने एमआरपी पर संशोधित एमआरपी रेपर पर लिखकर घटे हुए टेक्स लाभ ग्राहकों को पहुंचाने को कहा था, लेकिन सामान्य तह ऐसी राहत महसूस नहीं की गई। टेक्स में राहत दिये जाने से केंद्र सरकार पर 70 हजार करोड़ रू. का बोझ पड़ा है। केंद्र सरकार ने 14 प्रतिशत राजस्व नहीं बढ़ने पर राज्यों को पांच साल की भरपाई का भरोसा दिया है। अच्छा है कि इस बार कुछ उत्पादकों ने स्वयं स्फूर्त होकर घरेलु उपभोक्ता वस्तुओं पर टेक्स घटती का लाभ उपभोक्ता को देने की घोषणा की है। ऐसा करने वालों में गोदरेज, एलजी इंडिया, पेनासोनिक इंडिया, जैसे संस्थान अग्रणी हैं। उद्योग जगत की इस सदस्यता का दूसरे उत्पादकों को अनुकरण कर समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व बोध दिखाना चाहिए। इसके साथ इन संस्थानों ने केंद्र से अपेक्षा की है कि विदेशों से आयात किये जाने वाले घरेलु सामान एप्लाएंसज पर लगने वाला आयात शुल्क बढ़ाया जाए। इसे बढ़ाकर घरेलु उद्योगों को केंद्र सरकार प्रोत्साहित करें। ऐसे समय जब विकसित देश संरक्षणवाद का सहारा ले रहे हैं भारत सरकार को भी देशी उद्योगों की आकांक्षा के अनुरूप आयात नीति में संशोधन करके उद्योगों को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।

जीएसटी को आरंभ हुए एक साल हो चुका है। जीएसटी राजस्व संग्रह में धीरे-धरे स्थिरता परिलक्षित हो रही है। औसतन यह राजस्व संग्रह 95 हजार करोड़ तक पहुंच चुका है। जनता अपेक्षा करती है कि अमुक वस्तु पर टेक्स कम हो। इसके अनुरूप जीएसटी परिषद विचार भी करती है। जब टेक्स में कटौती की जाती है तो सियासत शुरू हो जाती है। लेकिन असलियत यह है कि टेक्स कटौती को सियासी हथकंडा नहीं कहा जा सकता। क्यांेकि इसका दारोमदार जीएसटी परिषद पर है, जिसमें राज्यों की भी केंद्र के साथ भागीदारी है। जीएसटी परिषद वास्तव में भारतीय संघवाद का सबसे बड़ा प्रतीक है। जिसने जीएसटी को अल्प समय में पटरी पर लाकर जनता और उत्पादकों को कमोवेश सत्रह बेरियरों की बेड़ी से मुक्ति दिला दी है। परिवहन की रफ्तार बढ़ा दी है। इन डेढ़ दर्जन टेक्सों के बदले में जीएसटी जैसा एकीकृत टेक्स लगा है जिसकी प्रक्रिया को लेकर हौआ खड़ा किया जा रहा था, लेकिन परिषद ने नियमों का सरलीकरण करके इसे सुगम, सरल और आसान बना दिया है। फिर जो डेढ़ दर्जन टेक्स समाप्त हुए हैं वे मिलाकर बत्तीस प्रतिशत होते थे। जबकि जीएसटी की सबसे अधिक दर 28 प्रतिशत है।

जीएसटी को लेकर राजनैतिक दलों को शिकायत है और वे एक ही स्लेव में सभी वस्तुओं और सेवाओं को शामिल करना चाहते हैं जो न तो उचित है और न संभव है। इस लिए जीएसटी को लेकर उद्योग जगत और उपभोक्ताओं में फैलाये जा रहे भ्रम से बचा जाना चाहिए। आखिर तीन दशकों के विचार विमर्ष के बाद ही 1 जुलाई 2017 से जीएसटी अमल में आया है। राज्यों की शिकायत दूर करते हुए मोदी सरकार ने आने वाले 5 वर्षों तक राज्यों को क्षतिपूर्ति करने का भरोसा दिलाया है और इस आश्वासन पर अमल भी शुरू हो गया है। दरअसल यूीपए सरकार के दौरान तो कांग्रेस ने राज्यों को क्षतिपूर्ति देना असंभव बताकर हाथ खीच लिऐ थे। इसलिए कांग्रेस को तो जीएसटी प्रणाली में मीनमेख निकालने का नैतिक अधिकार नहीं है।
जीएसटी टेक्स निर्धारण के लिए पांच श्रेणियां मौजूदा है। माना जा रहा है कि इतनी अधिक श्रेणियों जब कभी भटकाव पैदा करती है। इसका उपाय खोजने के बारे में परिषद में गहन विचार विमर्ष बताता है कि आने वाले दिनों में पांच श्रेणियों की जगह तीन स्लेव शेष रहेंगे, लेकिन इसमें जल्दवाजी नहीं की जा सकती क्योंकि इससे राज्यों को मिलने वला राजस्व जुड़ा है, राज्यों की आम सहमति आवश्यक होगी। पूर्व वित्तमंत्री श्री पी. चिदंबरम जो यूपीए सरकार में प्रभावशाली मंत्री रहे। जीएसटी के अमल के असमर्थ रहे हैं अब आपत्ति इस बात पर कह रहे हैं कि जिन 88 वस्तु सेवाओं पर टेक्स घटाया गया। वह 2017 में भी घटाया जाना संभव था। अब इसका सटीक उत्तर तो यही हो सकता है कि टेक्स कम करने अथवा बढ़ाने में किसी विशेष राजनैतिक दल अथवा जैसा चिदम्बरम का आरोप है, अकेली भाजपा ही उत्तरदायी नहीं है। परिषद में प्रतिनिधित्व करने वाले राज्यों का पूरा हस्तक्षेप है और सहमति से ही फैसला लिया जाता है। इसलिए जनता बीच में भाजपा को लाना बेमानी है। अर्थशास्त्री ही नहीं समाज शास्त्री और आमजन जनता है कि सरकारों का संचालन टेक्स कराधान और उसके संग्रह पर निर्भर रहता है। इसलिए सीधी सी बात है कि जीएसटी कराधान की शुरूआत ही इस सोच के साथ हुई कि इससे राज्यों और केंद्र को आर्थिक क्षति न पहुंचने पाये। जैसे-जैसे जीएसटी कराधान में स्थिरता आती गई। सोच विचार के साथ वस्तु और सेवा पर लगने वाले टेक्स पर रियायत देने पर परिषद ने विचार आरंभ किया और यह सिलसिला जारी रहेगा। एक वर्ष में 384 वस्तुओं पर से टेक्स कम किया गया है। अब चूंकि जीएसटी का कर संग्रह 95 हजार करोड़ रू. तक औसतन पहुंच गया है। जीएसटी करों में राहत देने पर परिषद विचार करने में सक्षम होगी। इससे उपभोक्ता वस्तुओं के दामों में कमी आना निश्चित है। इससे मुद्रास्फीति भी घटेगी। राज्यों की क्षतिपूर्ति करने में श्री नरेंद्र मोदी सरकार की सदाशयता प्रशंसनीय कही जाएगी। क्योंकि यूपीए सरकार में जब सेंट्रल सेल्स टेक्स तीन से दो प्रतिशत किया था। डाॅ. मनमोहन सिंह सरकार ने राज्यों को वायदा किया था कि राज्यों के नुकसान की केंद्र भरपाई करेगा। परंतु यूपीए सरकार वायदे से मुकर गई और उसने 2011-12 की क्षतिपूर्ति कभी नहीं की।

मजे की बात है कि अब जनता जीएसटी को मूल्य स्थिरता का माध्यम मानने लगी है। यही कारण है कि पेट्रोलियम उत्पादों की अस्थिर कीमतों से चिन्तित उपभोक्ता डीजल, पेट्रोल को भी जीएसटी के नेट में लाने की मांग करने लगे हैं। उपभोक्ताओं का मानना है कि यदि डीजल पेट्रोल जीएसटी कराधान के अंतर्गत लाया गया तो वास्तव में उपभोक्ता अच्छे दिनों का अहसास जरूर करेंगे। यह भी धारणा बनाई जा रही है कि दरों में कमी चुनावी आहट को सुनकर हो रही है और व्यापरी घरानों की आकांक्षा पूरी की जा रही है लेकिन वास्तव में यह सोच सियासत का बदरूप चेहरा है। जीएसटी जैसे ऐतिहासिक आर्थिक क्रांतिकारी सुधार को चुनावी नजरिये से देखना कतई उचित नहीं है।

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