
आज से अड़सठ साल पहले भारत ने अपना संविधान लिखा और संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न गणतंत्रात्मक राज्य की अवधारणा को फलीभूत किया था। तब ये लगा था कि आजाद हिंदुस्तान तमाम सुधारों के साथ जन जन की आकांक्षाओं को पूरा कर सकेगा।इस दिशा में बहुत सारे प्रयास भी हुए। उनमें सफलता भी मिली। इसके बावजूद आज तक इस लोकतंत्र को वैश्विक कसौटियों पर खरा नहीं साबित किया जा सका है। इसकी सबसे बड़ी वजह थी समानांतर अर्थव्यवस्था। अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के बाद जो अंग्रेजपरस्त कांग्रेसी सरकारें आईं उन्होंने चोरी की अर्थव्यवस्था को ही बढ़ावा दिया। इसकी वजह उनकी वे अनैतिक संधियां थीं जो उन्होंने अंग्रेजों को खुश करने और कथित आजादी की जल्दबाजी में कीं थीं। इन संधियों में सबसे बड़ी भूमिका पं. जवाहर लाल नेहरू और उनके वकीलों के गिरोह ने निभाई थी। ये गिरोह सत्ता पाने की इतनी हड़बड़ी में था कि उसने पाकिस्तान विभाजन भी स्वीकार किया और जम्मू कश्मीर जैसे तमाम विवादों को भी अनसुलझा बनाए रखा। देश आज तक उन नासूरों को झेल रहा है। सत्ता हस्तांतरण के दस्तावेजों में जो शर्ते लिखीं गईं उनमें देश के आर्थिक संसाधनों पर ब्रिटेन का कब्जा बरकरार था। टाटा बिड़ला जैसी भारतीय कंपनियों में निवेश करके अंग्रेजों ने अपनी आय का स्रोत बनाए रखा। आगे चलकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी इसलिए किया गया ताकि यहां से कर्ज लेकर डूबत खातों की राशि बटोरकर लोग ब्रिटेन में जाकर बस सकें। ब्रिटिश पार्क आज भारत में समृद्धि की मिसाल माना जाता है जबकि वो यहां का धन लूटने वालों की बस्ती है। गणतंत्र के नाम पर अंग्रेजों से की गईं संधियों के संरक्षण का काम भी बखूबी किया गया। लोकतंत्र के नाम पर कांग्रेसियों ने अपने चपरासियों, हरवाहों को लोकतंत्र के शीर्ष पर बिठा दिया। बरसों तक देश यही छल झेलता रहा। जिसने चूं चपट की उसकी फाईल न्यायपालिका में बैठे अंकल जजों ने निपटा दी। लूट का कारोबार कार्यपालिका संभालती रही। आजादी के साढ़े छह दशक बीत जाने के बाद अब पहली बार महसूस हो रहा है कि देश एक नई दिशा में अग्रसर हो रहा है। वैसे तो आर्थिक सुधारों पर पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव की सरकार ने जो इबारत लिखी वो मील का पत्थर थी। इसके बावजूद कांग्रेसियों ने पच्चीस सालों तक उन सुधारों को लागू नहीं होने दिया। दस सालों तक प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहनसिंह ने कई मूलभूत सुधारों को लागू किया लेकिन समानांतर अर्थव्यवस्था के खिलाड़ियों ने उनकी सरकार को घोटालों की सरकार बना दिया। सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार को भी लगातार धमकियां दी जा रहीं हैं। नोटबंदी और जीएसटी से हलाकान वे तमाम चोर व्यापारी भी आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गरिया रहे हैं जिनकी चोरी की आदत अब उन्हें झमेले में डाल रही है। ऐसे चोर कांग्रेस में खूब फले फूले अब वे भाजपा में भी प्रमुख बने हुए हैं। आर्थिक सुधारों ने उनकी भी जान सांसत में फंसा रखी है। नोटबंदी यदि आपदा थी तो आरएसएस को उन तमाम आपदाओं के समान सेवा कार्य की तरह आर्थिक विकास की दिशा का मार्गदर्शन करना था। लेकिन समस्या ये थी कि आरएसएस के पास भी ऐसे स्वयंसेवक नहीं थे जो नए आर्थिक माहौल को समझ सकते और उसके अनुकूल मार्गदर्शन करते। यही वजह है कि तमाम प्रयासों के बावजूद देश की आय और रुपये की समृद्धि नहीं बढ़ पा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता संभालते वक्त कहा था कि वे देश के तमाम गैर उपयोगी कानूनों को हटा देना चाहते हैं। उनके कहने के बावजूद देश में वे तमाम कानून आज तक लागू हैं जिनके माध्यम से भारत की जड़ता को संरक्षित किया जाता रहा है। नियंत्रित अर्थव्यवस्था के दौर में बने तमाम कानून आज अप्रासंगिक हो चले हैं। देश मुक्त बाजार और उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था की पटरी पर दौड़ रहा है। ऐसे में भारत को नए कानूनों की जरूरत है। नए विचारस्रोतों की जरूरत है। इसलिए अड़सठवें गणतंत्र के अवसर पर सबसे जरूरी प्रयास उन तमाम कानूनों को बदल डालने की है जो भारतीय गणतंत्र के पैरों की बेड़ियां बन गए हैं। अरबों के कर्ज पर सांसें ले रही अर्थव्यवस्था को यदि ब्याजमुक्त बनाना है तो देश को नई करवट लेनी होगी। कानूनों का जाल काटना होगा। सरल फार्मूलों से देश को पूंजी उत्पादक बनाना होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया भर में भारत को व्यापारिक देश की छवि से रंगने का प्रयास कर रहे हैं। ये क्रांतिकारी दौर है।पर ये तभी सफल हो सकता है जब भारत में जातिवाद, संप्रदायवाद, नियंत्रणवाद और तमाम किस्म की बदमाशियों को धूल धूसरित कर दिया जाए। जब तक देश समाजवाद, साम्यवाद, उदारवाद जैसे मूर्खतापूर्ण विचारों के बीच झूलता रहेगा तब तक देश में आर्थिक मजबूती का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकेगा। लोकतंत्र के इस महापर्व पर भारत की जड़ता तोड़ने के ये प्रयास होंगे तो सत्ता की मौजूदा पीढ़ी का स्वप्न जल्दी पूरा हो सकेगा।
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