भोपाल, 03 जून(प्रेस इंफार्मेशन सेंटर ). जिन लावारिस लाशों का पता ठिकाना पुलिस भी नहीं जानती राजधानी का एक आवारा मसीहा उन्हें सद्गति देकर पुण्य बटोर रहा है। उसके पुण्य भंडार को भरने में ऐसे सैकड़ों समाजसेवी जुटे हैं जिन्हें आम लोग नहीं जानते। हर दिन बीमार जरूरतमंदों को भोजन मुहैया कराना और लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करना उसकी दिनचर्या ही बन गई है। जनसंवेदना नाम की जिस संस्था को उन्होंने समाज में अनोखी पहचान दिलाई है उसमें कई चिकित्सक, पुलिस कर्मी, व्यापारी, उद्योगपति, इंजीनियर, लेखक और सामान्य लोग भी जुड़े हैं। हर दिन वे स्वेच्छा से संस्था को भोजन और कफन दफन की राशि मुहैया कराते हैं। लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब राधेश्याम अग्रवाल नाम के ये समाजसेवी कहते हैं कि जनसहयोग ने मेरा जीवन सफल बना दिया है। गुमनाम लोगों की अंतिम यात्रा का बेहतर उपसंहार देखकर उन्हें लगता है कि यही एक समृद्ध समाज की गारंटी है।
सत्तर वर्षीय राधेश्याम अग्रवाल हर दिन सुबह घर से नाश्ता करके निकलते हैं और जेल पहाड़ी स्थित अपनी संस्था के दफ्तर पहुंच जाते हैं। विभिन्न पुलिस थानों और अस्पतालों से जो जानकारियां आती हैं उसके अनुसार वे धनराशि मुहैया कराते हैं। ये दानराशि जुटाने के लिए वे दिन भर समाजसेवियों से जाकर मिलते हैं और उन्हें इस पुण्य कार्य से जोड़ते हैं। संस्था से जुड़े स्वयंसेवी और विभिन्न लोग इस दौरान दफ्तर आकर भी मिलते रहते हैं। संस्था के अभियान को जिस लगन से वे सफल बनाते रहे हैं उन्हें देखकर हर व्यक्ति नतमस्तक हो जाता है।
आमतौर पर श्रेष्ठिवर्ग में पूजा, और अपने प्रतिष्ठान के प्रति लगाव देखा जाता है, लेकिन राधेश्याम अग्रवाल के लिए तो लाशों की अंतिम क्रिया ही पूजा है ।वे लगभग अठारह सालों से ये पुण्य कार्य कर रहे हैं और कभी विश्राम नहीं करते। वे कहते हैं कि हर दिन जरूरत मंदों को भूख लगती है और हर दिन कहीं न कहीं जीवन की डोर यमराज के हाथों में जा अटकती है। वे कहते हैं कि एक दुर्घटना में बाल बाल बचने के बाद उन्होंने संकल्प किया था कि वे किसी भी गुमनाम इंसान को लावारिस होकर नहीं जाने देंगे। उन्हें इस कार्य की प्रेरणा देने का काम मेडीकोलीगल एक्सपर्ट डॉक्टर डी.के.सत्पथी ने किया था। तब वे अपराध संवाददाता के रूप में उनके पास खबर लेने जाते थे। डाक्टर सत्पथी ने उन्हें बताया कि जिन लावारिस लाशों का वे पोस्टमार्टम करते हैं उनका अंतिम संस्कार पुलिस के लिए बड़ी समस्या होता है। यदि कोई समाजसेवी ये बीड़ा उठा ले तो बेगुनाह लोगों को भी बैकुंठयात्रा कराई जा सकती है। इसी विचार ने आगे चलकर जनसंवेदना संस्था को जन्म दिया और आज यह एक विशाल नेटवर्क का रूप ले चुकी है। हजारों दानदाता इससे जुड़कर अपना भी जन्म सफल बना रहे हैं और लावारिस मरने वालों के लिए आशा की किरण बन गए हैं।
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