खरगोन में पुलिस अधीक्षक सिद्धार्थ चौधरी जब दंगाईयों को तलवारबाजी से रोक रहे थे तो किसी दंगाई ने उन पर गोली चला दी। ये तो संयोग ही था कि गोली उनके पैर में लगी। चौधरी मध्यप्रदेश पुलिस के एक जांबाज अफसर हैं। सहृदयता और कर्तव्यनिष्ठा उनमें कूट कूटकर भरी है। ऐसे बेशकीमती अफसर के खिलाफ यदि प्रदेश का ही कोई नौजवान नफरत का खेल खेलने लगे तो निश्चित रूप से ये चिंता की बात है। ये न केवल पुलिस बल्कि समूचे प्रशासनिक तंत्र और सरकार के लिए भी खतरे की घंटी है। आप इसे जातीय उन्माद, आतंकवाद, नक्सलवाद या धर्मांधता कहकर खारिज नहीं कर सकते। आप इसे बहके हुए युवाओं की गलती कहकर दबा भी नहीं सकते। यदि इस घटना से प्रदेश ने मुंह चुराने की कोशिश की तो निश्चित तौर पर हम भविष्य में किसी बड़ी घटना को फलित होने का अवसर प्रदान कर रहे हैं।
कश्मीर में आजादी के बाद से नेहरू के वंशजों ने कांग्रेस के बैनर तले जो खून की होली खेली उसने कश्मीर की तरुणाई को बरसों पीछे धकेल दिया था। हजारों युवाओं ने अपनी जान गंवाई और महिलाओं का सुहाग उजड़ गया। अलगाववादियों के हौसले इतने बुलंद हो गए थे कि वे सशस्त्र सेना पर हमला करने से भी नही चूकते थे। सैनिक कैम्पों पर बम फेंकना या सैनिकों को झांपड़ मार देना वहां आम बात थी। सैनिकों की मजबूरी ये थी कि वे बगैर आदेश के गोली नहीं चला सकते थे। सेना के ही कई अफसर ऐसे मामलों में कोर्ट मार्शल को अपनी ही सेना के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करते थे। वजह साफ थी कि तत्कालीन सत्ताधीशों के चरण चूमकर वे प्रमोशन पाते रहते थे। जब मौजूदा राष्ट्रवादी सरकार ने कश्मीर की समस्या को समाधान के अंजाम तक पहुंचाने का फैसला कर लिया तब जाकर कश्मीर को देश की मुख्यधारा में लाने का ख्वाब साकार हो सका है।
जब सेना का रुतबा धूल धूसरित कर दिया गया था तब असम के एक मेजर ने अलगाववादियों को सबक सिखाने का नायाब तरीका ढूंढ़ निकाला। उपचुनाव के दौरान चार पांच सौ लोगों की भीड़ ने सेना की टुकड़ी को घेर लिया और पथराव करने लगे। इस बीच सेना के कंपनी कमांडर लीतुल गोगोई ने एक उपद्रवी को पकड़ा और सेना की जीप के बोनट पर बांध दिया। उस जीप के पीछे चल रही बख्तरबंद गाड़ी से चेतावनी दी जा रही थी कि उपद्रवियों का यही हाल होगा। उसे नौ गांवों में इसी तरह घुमाया गया। चुनाव कराने गई टीम को सकुशल बाहर निकाल लाने वाले इस उपाय की दुनिया भर में तारीफ की गई। तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला ने इसे अत्याचार बताकर सैन्य अफसर पर कोर्ट आफ इंक्वायरी कराने का दबाव बनाया। हालांकि जांच में अफसर को बेकसूर करार दिया गया। इस तरह के उपाय समाज में दंगा भड़काने वालों के विरुद्ध किए जाते हैं तो भले ही इनकी निंदा की जाए पर ये अपरिहार्य होते हैं। खरगोन में दंगा भड़काने वालों के बीच से भी अफसर पर गोली चलाने वाले शख्श को खोज निकालना और उसे सरे चौराहे गोली मारकर दंडित करना जरूरी हो गया है।
दरअसल कानून को अपने घर की मुर्गी मानने का मुगालता एक दिन में ही नहीं पनपा है। बरसों से सरकारी अफसरों और पुलिस के लोगों ने जिस तरह से शोषकों और अत्याचारियों को पनाह देने का सोच अपना रखा है उसकी सजा सिद्धार्थ चौधरी जैसे युवा अफसरों को भुगतनी पड़ रही है। आज के युवा अफसरों ने भले ही कोई अपराध नहीं किया हो लेकिन बरसों से एसडीएम कार्यालयों, तहसीलियों,पुलिस थानों में चंदा वसूली का खुला खेल चल रहा है उसके कारण प्रशासनिक न्याय तंत्र का खौफ खत्म हो गया है। सरकारी नौकरियों में अफसरों को वेतन और पेंशन मिलने के बावजूद कई अफसर चंदा वसूली को ही अपनी मुख्य ड्यूटी समझते हैं। उनके पास जानकारी तो होती है कि किसी आपराधिक घटना के पीछे मास्टर माइंड कौन है लेकिन वे उनके गिरेबान पर हाथ नहीं डालते। यही वजह है कि जब ये संरक्षित अपराधी पुलिस या कानून पर ही हाथ डालने लगते हैं तो हाहाकार मच जाता है।
खरगोन में उपद्रव फैलाने वालों पर अंकुश लगाने के लिए सरकार ने सख्त आपरेशन चलाया है लेकिन उपद्रवियों के घर तोड़ देने और उन्हें जेलों में भर देने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है. धार्मिक पाखंडों की आड़ में पल रहे इस अपराध बोध को सार्वजनिक मंचों पर दंडित करने की जरूरत है।
दमोह के कुंडलपुर में लाखों करोड़ों रुपयों की दानराशि हड़पने का ख्वाब देखने वाले चंद ठगों ने जब पंचकल्याणक महोत्सव के दौरान बखेड़ा खड़ा करने और पदाधिकारियों से मारपीट करने का जो प्रयास किया उसे लेकर पुलिस ने कुछ लोगों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज की। चंद लोग तो पुलिस की निगाह में आ गए लेकिन युवाओं को भड़काकर मारपीट के लिए उकसाने वाले कुछ असली अपराधी पुलिस के रिकार्ड में नहीं दर्ज हो पाए। आज वही अपराधी नए नए षड़यंत्र रचने का काम कर रहे हैं। पुलिस का मुखबिर तंत्र इतना ढीला है कि न तो वो उन्हें उजागर कर पा रहा है न ही उन्हें दंडित करके भविष्य के खतरों की सुरक्षा का प्रबंध कर पा रहा है। एक अपराधी ने तो अपने निवास पर बैठक बुलाकर कमेटी के तख्तापलट की साजिश भी रची लेकिन पुलिस इसे महज राजनीतिक दांव पेंच मान रही है। जबकि आरोपियों के विरुद्ध तीर्थ क्षेत्र में ठगी करने का इतिहास पहले से उजागर है। अब यदि ऐसे अपराधियों पर समय रहते कोई अंकुश नहीं लगाया जाएगा तो जाहिर है कि भविष्य में किसी बड़ी घटना की संभावना खारिज नहीं की जा सकती।
ऐसा नहीं कि इन असामाजिक तत्वों के विरुद्ध कार्रवाई के लिए पुलिस को किसी अपराध के घटित होने का इंतजार करना पड़े। अपराधियों की खोज और उन्हें निरंतर नसीहत देने का काम पुलिस की जवाबदारी में पहले से ही शामिल है। इसके लिए तीन दशकों पहले पत्रकारों के नेटवर्क को पुलिस के साथ जोड़ा गया था लेकिन चंद आपराधिक तत्वों ने पत्रकारों के इस नेटवर्क में अपराधियों को भर दिया। नतीजतन हालात वही ढाक के तीन पात होकर रह गए।
खरगोन में सिद्धार्थ चौधरी पर हमले ने एक बार फिर पुलिस और प्रशासन को सावधान किया है। कमलनाथ जैसे भौंदू राजनेता ने तो अपनी राजनीति को चमकाने के लिए पत्रकारों को खलनायक बताने का अभियान चला दिया था। मौजूदा शिवराज सिंह चौहान की सरकार समाज के सूचना तंत्र को संवारने के बजाए उसे कचराघर बनाने का काम करती रही है। पिछले विधानसभा चुनावों में शिवराज सरकार की शर्मनाक हार के बावजूद सूचना तंत्र का महत्व भाजपा के कर्णधार नहीं समझ सके । अब जबकि प्रदेश गहरे आर्थिक संकटों से जूझ रहा है। कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है। विकास योजनाओं के लिए पूंजी जुटाना टेढ़ी खीर हो गया है तब जरूरी है कि सामाजिक विद्वेष फैलाने वाले ठगों की पहचान करके उन्हें निर्मूल किया जाए। पूंजी का सफल निर्माण तभी संभव है जब शासन तंत्र के एक हाथ में योजनाओं का खाका हो और दूसरे हाथ में दंड का शमशीर,तभी मध्यप्रदेश को आधुनिक भारत का सफल प्रदेश बनाया जा सकता है।
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