-आलोक सिंघई-
देश पर आक्रमण करने वाले लुटेरों से संग्राम का शंखनाद और उन पर फतह भारत भूमि के कण कण की विशेष पहचान है। इतिहास गवाह है कि जब जब विदेशी आक्रांताओं ने इसे हथियाने की जुर्रत की है उन्हें अंततः पराजित होकर भागना पड़ा है। अंग्रेजों, फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों, मुगलों,अफगानों,यूनानियों के बीच से अनेक आक्रांता तरह तरह के रूप धरकर हिंदुस्तान आते रहे लेकिन हिंदुत्व की सहिष्णु परंपरा के बीच उन्हें या तो लौट जाना पड़ा या फिर यहीं की संस्कृति में ढलकर समाहित हो जाना पड़ा है। जब भारत की तरुणाई किसी शासक की असलियत जान जाती है तो फिर वह उसकी विदाई के लिए अपनी जान भी दांव पर लगा देती है। ऐसे ही एक बहादुर की कहानियां आज भी तरुणाई की रगों में चेतना का संचार कर देती है। वह वीर योद्धा था बालाजी बाजीराव प्रथम। बरसों तक इस वीर योद्धा की चेतना को षड़यंत्र पूर्वक मुगल शासकों की ऐतिहासिक गाथाओं के बीच दबाकर रखा गया। कोशिश की गई कि हिंदुत्व का तेज कहीं मुगल वंशजों को नाराज न कर दे।इसके पीछे वोट की वह राजनीति थी जो सत्ता पाने के लिए अनिवार्य मानी जाती थी। इसके बावजूद सूर्य का प्रताप, बादलों की ओट हमेशा के लिए तो नहीं ढांप सकती। अंततः इस वीर योद्धा की यशोगाथा एक बार फिर देश की चेतना को एकसूत्र में बांधने की सुरलहरियां लेकर सामने आ गई है।
बालाजी बाजीराव पेशवा प्रथम को भले ही उनके ही परिजनों के आपसी द्वेष से जूझना पड़ा हो पर केवल बहादुरी और इंसानियत को अपना धर्म मानने वाले इस रणबांकुरे की सच्चाई अंततः सामने आ ही गई। उनकी बहादुर जीवन संगिनी यवन सुंदरी मस्तानी की प्रेमकथाओं ने आज की नई पीढ़ी को बेचैन कर दिया है। युवा मन ये सोचने को मजबूर है कि आखिर क्यों इस अविजित योद्धा को अपनी पारिवारिक कलह का दंश झेलना पडा।देश के वे क्या हालात थे जब इस तूफानी योद्धा की विजय यात्रा पर लू जैसे सामान्य रोग ने असमय ही विराम लगा दिया।
हिंदुत्व की आधारशिला कहे जाने वाले ज्योतिष शास्त्र में ऐसे नक्षत्रों की जीवनयात्रा समझने के लिए भरपूर प्रकाश डाला गया है। इस पैमाने पर सहज ही समझा जा सकता है कि बालाजी बाजीराव पेशवा जैसे योद्धा को यदि अपने ही राजघराने या अपने ही देशज शासकों का सहयोग मिला होता तो भारत का इतिहास चीनी राजवंशों से कहीं बेहतर मुकाम छू चुका होता। अंग्रेजों ने भारत की चेतना को कुंठित करने का जो षड़यंत्र रचा आजादी के बाद के शासकों ने उसे जारी रखकर अंग्रेजों के नमक का कर्ज भरपूर चुकाया। अंग्रेजों की इसी रणनीति की वजह से पौंड की यात्रा तो बदस्तूर जारी रही लेकिन भारतीय रुपए की दुर्गति निरंतर जारी रही। आज जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा भारतीय मुद्रा के खिलाफ रचे गए जिन षड़यंत्रों को पलटने का प्रयास कर रही है तब बाजीराव बल्लाल जैसे योद्धा के संदेश को नए संदर्भों में तरोताजा करना जरूरी हो गया है।
तेज दिमाग और कठोर कर्म की प्रतिमूर्ति बालाजी बाजीराव पेशवा दरअसल भारतीय प्रज्ञा की विशिष्ट पहचान रहे। जब दिसंबर 1737 में सिरोंज होते हुए भोपाल पहुंचे बाजीराव ने निजाम की मुगल सेना को चारों ओर से घेर लिया,उसकी रसद काट दी लगातार युद्धों से विशाल मुगल सेना को लाचार कर दिया तब 6 जनवरी 1738 को सीहोर के दोराहा में निजाम ने शाही मुहर लगाकर बाजीराव को मालवा,नर्मदा और चंबल तक का इलाका सौंपा और पचास लाख रुपए भेंट किए। इस युद्ध के बाद बाजीराव पेशवा का नाम पूरे हिंदुस्तान में स्थापित हो गया।समाजसेवी रवि चतुर्वेदी बताते हैं कई देशी विदेशी इतिहासकारों ने तब उन्हें लायन ऑफ इंडिया की उपाधि से विभूषित किया था। बाजीराव ने बीस वर्ष की उम्र में ये तय किया था कि जो विदेशी आक्रांता जहां से आए हैं उन्हें वापस वहीं तक खदेड़ना है। इस लक्ष्य को पाने में वे बड़ी हद तक सफल भी हुए। इसके बाद उन्होंने भारतीय संस्कृति के अनुरूप हिंदुस्तान गढ़ने का अभियान चलाया जो समय समय पर आज भी प्रकट होता रहता है।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम की कहानियों को ही भारतीय इतिहास साबित करने वाले षड़यंत्रकारियों ने 1720 से 1740 तक देश की अस्मिता स्थापित करने वाले पेशवा सरदार बाजीराव प्रथम के तेज को भुला देने की कोशिशें कीं। वामपंथी राजनेता जानते थे कि यदि हिंदुस्तान बाजीराव पेशवा की राह पर चल पड़ा तो विदेशी आक्रांताओं के उन वंशजों को हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ेगी जिन्हें लूटे हुए धन पर गुरछर्रे उड़ाने की लत लग चुकी है। यही वजह थी कि उन्होंने श्रीमती इंदिरा गांधी की मदद से धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द को संविधान में डलवा दिया। उनका प्रयास था कि सर्वधर्म समभाव जैसे संभ्रांत शब्द के सहारे वे अन्याय के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को कुचलने में सफल हो सकते हैं। विशाल भारत की जनता अपने हक की आवाज बुलंद न कर सके इसके लिए उन्होंने गरीब नवाज की विचारधारा को कौमी सद्भाव की चाशनी में लपेटकर परोसा। वास्तव में ये गरीबी को संरक्षित करने का ऐसा षड़यंत्र था जिसने भारत को कर्ज आधारित इकानामी बना दिया। वो तो भला हो विश्व बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक जैसी सूदखोर संस्थाओं का जिन्हें अपनी मूल राशि डूबती नजर आई और उसने आर्थिक सुधारों के नाम पर अपने प्रशिक्षित शासकों को सत्तासीन कराया। दस सालों तक डॉ.मनमोहन सिंह के रूप में देश को ऐसा शासक मिला जिसने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को जमीनी दिशा दिखाई। इसके बावजूद खैराती लोकतंत्र को आत्मनिर्भर देश में बदलना उनके बस में नहीं था। कांग्रेसी तो आज तक इन आर्थिक सुधारों के खिलाफ जूते खोलकर पीछे पड़े हैं।
नरेन्द्र मोदी के रूप में जब देश को ऐसा बेखौफ शासक मिला है जो विकास के नाम पर लूट के भौंडे षड़यंत्रों को बेनकाब करने में जुटा है तब बालाजी बाजीराव की चेतना एक नए रूप में उभरकर सामने आई है। मध्यभारत में बालाजी बाजीराव ने जिस सिंधिया परिवार को देश की पहचान स्थापित करने की जवाबदारी सौंपी थी उस परिवार के कुलदीपक ज्योतिरादित्य सिंधिया ने एक बार फिर देशविरोधी षड़यंत्रों के खिलाफ संघर्ष का शंखनाद किया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए लूट की इबारत लिखने वाले कमलनाथ जैसे षड़यंत्रकारी को सत्ताच्युत करवाकर सिंधिया ने हिंदुत्व आधारित सशक्त भारत को बुलंद करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। कृषि में आर्थिक सुधारों के माध्यम से नरेन्द्र मोदी यदि भारत को आत्मनिर्भर बनाने का अभियान चलाए हुए हैं तो मध्यप्रदेश एक बार फिर बालाजी बाजीराव बल्लाल की पेशवाई का अधूरा स्वप्न साकार कर रहा है। इस अधूरे स्वप्न को साकार करके ही मजबूत भारत और सुखी भारत की स्थापना की जा सकेगी।
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