श्रमिकों की आवाज कौन बने

भारत सरकार की नीतियों को श्रमिक विरोधी बताते हुए देशव्यापी हड़ताल का आव्हान किया गया। हड़ताल लगभग असफल रही। इससे देश की गतिविधियों पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ा। जबकि इस हड़ताल में संगठित क्षेत्र के 25 लाख श्रमिकों की भागीदारी का दावा किया गया था। इस लिहाज से ये हड़ताल श्रमिक आंदोलनों की विदाई का दस्तावेज बन गया है। इसकी वजह ये है कि ये श्रमिक जिन क्षेत्रों से आते हैं वे क्षेत्र अब भारत की मुख्यधारा नहीं रहे हैं। बीएसएनल हो या सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक इनके समानांतर पूरा ढांचा कार्पोरेट सेक्टर में खड़ा हो चुका है। रेलवे जिस निजीकरण का विरोध कर रहा है वह कार्पोरेट सेक्टर के सहारे पूरी तरह यंत्रवत काम करने लगा है। ऐसे में हड़तालियों की बात कौन सुनेगा। हड़तालियों ने अपना समर्थन जुटाने के लिए असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को लुभाने के लिए न्यूनतम वेतन 21 हजार रुपए करने का नारा दिया। ये नारा वे दे रहे हैं जिनके वेतन पचास हजार रुपए से अधिक हैं और वे अपना वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर हड़ताल कर रहे हैं। संगठित क्षेत्र के पांच सात प्रतिशत कर्मचारी या श्रमिक यदि ये मांग करें कि नब्बे फीसदी नागरिकों का पेट काटकर आप हमारे वेतन भत्ते बढ़ा दें तो इसे कैसे न्यायोचित माना जा सकता है। फिर ये आवाज भी जनता की गरीबी दूर करने के नाम पर लगाई जाए तो इसे कैसे उचित ठहराया जाए। इसके बावजूद देश के श्रमिक संगठन अपनी हड़ताल को मजदूर की आवाज बता रहे हैं। इसे केन्द्र सरकार की हठधर्मिता के विरुद्ध संग्राम बताया जा रहा है। देश के कुछ मूर्ख बुद्धिजीवी श्रमिक संगठनों की इस मांग को जायज बता रहे हैं। देश का पूरा ढांचा बदल चुका है। इसके बावजूद कांग्रेस और उनके वामपंथी सहोदर अपना पुराना घिसा पिटा रिकार्ड बजाने में जुटे हुए हैं। डाक्टर मनमोहन सिंह जैसे उनके मार्गदर्शक कर्जमाफी जैसे आम जनता को ठगने वाले चुनावी वायदे पर चुप्पी साधे बैठे हैं। दरअसल देश बदल चुका है और उसे नए हालात को समझने वाले जन नेताओं की दरकार है। नई पीढ़ी के बीच से उभरने वाले नेता इस जरूरत को महसूस करें और अपनी नई भूमिका निभाएं तो देश का ज्यादा भला हो सकता है।

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