बगैर प्रसाद कैसे मिले आशीर्वाद

मध्यप्रदेश सरकार ने लोकप्रियता बटोरने के लिए आपकी सरकार जनता के द्वार कार्यक्रम शुरु किया है। इस कार्यक्रम के माध्यम से सरकारी अफसर केम्प लगाकर जन समस्याओं का निदान करेंगे।नई बोतल में पुरानी शराब की तरह सरकार का ये कार्यक्रम जनता के बीच संवाद कायम करने का प्रयास है।प्रदेश की अधिसंख्य आबादी ने कांग्रेस को सत्ता नहीं सौंपी है। भाजपा को मिले मतों की संख्या कांग्रेस को मिली मत संख्या से अधिक है। जाहिर है कि जनता का बहुत बड़ा तबका कांग्रेस की नीतियों से इत्तेफाक नहीं रखता है। इसके बावजूद कांग्रेस सीटों के गणित की वजह से सत्ता में आ गई है।यही वजह है कि सरकार की नीतियों के प्रति जनता के बीच संतोष का भाव अब तक नहीं पनप पाया है।मुख्यमंत्री कमलनाथ ये बात अच्छी तरह जानते हैं। यही वजह है कि वे सत्ता का संचालन राज्य मंत्रालय में बैठकर ही चला रहे हैं। उन्हें मालूम है कि जब तक वे जनता को कुछ चमत्कार करके नहीं दिखा सकते तब तक जनता के बीच जाने पर उनका स्वागत फीके अंदाज में ही किया जाएगा। यही वजह है कि उनकी सरकार समस्याओं का इलाज करने के बजाए उन पर हाथ फेरने का उपाय अधिक कर रही है। सरकारी तंत्र जनता की समस्याओं के निदान के लिए जवाबदार है और उसके लिए सरकारी व्यवस्था ने बाकायदा बारह मासी दफ्तर लगाकर तैनात किया है। इसके बावजूद जनता की समस्याएं नहीं सुलझ पाती हैं। इसकी वजह सरकारी अफसरों और कर्मचारियों की लापरवाही और लालफीताशाही जिम्मेदार है। इसका समाधान अधिकाधिक योजनाओं को सरकारी तंत्र से मुक्ति दिलाकर ही किया जा सकता है। सरकार इसका समाधान उसी सरकारी तंत्र पर निर्भर होकर करना चाह रही है। राजीव गांधी की पंचायती राज व्यवस्था इसी सरकारी तंत्र को बाईपास करने का प्रयास था। पूर्व वर्ती दिग्विजय सिंह की सरकार ने भी इसी तरह की योजना चलाकर गांव गांव जाने का प्रयास किया था। वह योजना भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण बन गई थी। बुरी तरह असफल उस योजना की वजह से ही राज्य में भाजपा की सरकार का उदय हुआ था। पंद्रह सालों की भाजपा सरकार इस योजना से इतनी डरी हुई थी कि शिवराज सिंह चौहान ने कभी दुबारा अफसरों को बाईपास करने का साहस नहीं किया। वे अपनी सरकार अफसरों पर ही आश्रित रहकर चलाते रहे। यही वजह थी कि उनकी सरकार के कार्यकाल में भाजपा के कार्यकर्ता और नेता हमेशा शिकायत करते रहे कि अफसर हमारी बात नहीं सुनते हैं। कमलनाथ ने सरकार में आते ही अफसरों पर शिकंजा कसना शुरु कर दिया। तबादलों की बयार लाकर उन्होंने पहले तो अफसरों की जड़ें ढीली कीं और फिर कार्यकर्ताओं की शिकायतों पर उन्हें फुटबाल बना दिया। आज ये हालत है कि भारी चंदा देकर मनचाही पोस्टिंग पर पहुंचे अफसर को भी भरोसा नहीं कि वो अपनी पोस्टिंग पर बना रहेगा। एक अदना सा कार्यकर्ता यदि उसके कामकाज से असंतुष्ट होता है तो अफसर को उसकी पोस्टिंग से हटा दिया जाता है। सरकार अपनी इस नीति से अफसरशाही को लोकशाही में बदलने का प्रयास कर रही है। बरसों पुराने ये प्रयास बार बार असफल रहे हैं। अफसरों के चयन की प्रक्रिया और लोकतंत्र का ढर्रा इतना बिगड़ चुका है कि अब इसे कारगर प्रशासन का रूप दे पाना असंभव है। इसके बावजूद कमलनाथ प्रदेश में तीस साल पुराने सरकारीकरण को सफल बनाने का प्रयास कर रहे हैं। जो व्यवस्था प्रदेश और देश के विकास के लिए अनुत्पादक साबित हो चुकी है कमलनाथ उसे सफल होता दिखाने का प्रयास कर रहे हैं।मध्यप्रदेश राज्य अपनी इस अनुत्पादक व्यवस्था पर हर महीने तीन हजार दो सौ करोड़ रुपए खर्च करता है।वेतनमान बढ़ाए जाने के बाद इस व्यवस्था पर खर्च और भी ज्यादा बढ़ गया है। इसकी तुलना में राज्य को होने वाली मासिक आय घटी है। राजनैतिक चंदा वसूली की वजह से खजाने को होने वाली आय पर चोट पहुंची है। सरकार का लक्ष्य है कि इस कवायद से वह उस राजस्व को एकत्रित कर पाने में सफल होगी जो आज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा है। राज्य के बजट में टैक्स का आकलन भी बढ़ाकर किया गया है। राज्य सरकार यदि फिजूलखर्ची रोकने में सफल होती तो वह जनता के बीच अपनी लोकप्रियता बढ़ा सकती थी। फिलहाल तो सरकारी कवायद का सीधा असर जनता की जेब पर पड़ रहा है। सरकारी उठापटक का खमियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। जिस तरह खाद्य वस्तुओं के सैंपल भरे जा रहे हैं और इसकी आड़ में भारी चंदा वसूली की जा रही है उसका बोझ अंतिम पंक्ति में पड़े आम नागरिक को उठाना पड़ रहा है। शायद यही लोकतंत्र की वह मंहगी कीमत है जो आम जनता को भुगतनी पड़ रही है।अगस्त का महीना आजादी के आकलन का महीना माना जाता है। जनता जाति, धर्म, संप्रदाय, बाजारवाद के जिन मुद्दों के बीच उलझी है उसके बीच वह इन मूलभूत मुद्दों का चिंतन आमतौर पर नहीं कर पाती है। सरकार को और राजनेताओं को इस विषय पर चिंतन जरूर करना चाहिए। फिलहाल तो सरकार का ये प्रयास होना चाहिए कि वो जनता के भरोसे को कैसे कायम रख पाती है। 

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