गांधीवाद के बोझ से कराहती कांग्रेस

आम चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस में आत्ममंथन का दौर शुरु हो गया है। राहुल गांधी का कहना है कि कांग्रेस की बागडोर अब परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को संभालनी चाहिए। चुनावी भाषणों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस के परिवारवाद को जिस तरह देश के लिए घातक बताया उस पर जनता ने गंभीरता से विचार किया। खुद को इस परिवारवाद से अलग दिखाने के लिए भाजपा ने तो कई बड़े दिग्गजों और उनके परिजनों के भी टिकिट काट दिए। अपने चुनावी इंटरव्यू में अमित शाह ने बार बार कहा कि आप नहीं जान सकते भाजपा का अगला अध्यक्ष कौन होगा लेकिन कांग्रेस में तो सबको मालूम रहता है कि अगला अध्यक्ष गांधी परिवार का ही कोई बेटा बेटी होगा। ये बात कांग्रेस पर सौ फीसदी सही भी उतरती है। कांग्रेस के भीतर से इसे लेकर काफी आक्रोश पनपता रहा है। कांग्रेस के कई नेता तो खुलकर बोलते रहे हैं कि कांग्रेस में अनुकंपा नियुक्तियों का दौर समाप्त होना चाहिए। मध्यप्रदेश कांग्रेस में सभी बड़े दिग्गज गांधी परिवार से असहमत रहे हैं। स्वर्गीय अर्जुनसिंह ने तो तिवारी कांग्रेस बनाकर विद्रोह का शंखनाद किया था। उनके चेले रहे दिग्विजय सिंह भी कांग्रेस परिवार का दंश झेल चुके हैं। सिंधिया राजवंश पर इंदिरागांधी के प्रहार के कारण ही तो प्रदेश में आधुनिक भाजपा की नींव पड़ी थी। दरअसल में नेहरू गांधी खानदान का हस्तक्षेप देश की राजनीति में इतना प्रभावी रहा है कि कोई भी क्षेत्रीय या राष्ट्रीय नेता इस परिवार की कोटरी के खिलाफ सिर नहीं उठा सका है। जब जिसने अपना वजूद बढ़ाने का प्रयास किया उसे राजनीति के मैदान से ही विदा होना पड़ा। यही वजह है कि नेहरू गांधी खानदान भारत की राजनीति का एजेंडा तय करने की एकमात्र धुरी रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह पीव्ही नरसिंम्हाराव सरकार की आर्थिक नीतियों पर अमल शुरु किया उससे पूर्व प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह की सोच ही साकार हुई है। आर्थिक सुधारों ने देश में समानांतर अर्थव्यवस्था को समाप्त करने की दिशा में बड़ी दूरी तय कर ली है।विशाल भारत तेजी से अर्थव्यवस्था के नए नए मुकाम हासिल करता जा रहा है।ऐसे में कांग्रेस की कथित गांधीवादी सोच की कोई जरूरत शेष नहीं रह गई है। यह सोच देश को आत्मनिर्भर बनाने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा रही है। महात्मा गांधी तो ग्राम स्वराज की बात करते थे लेकिन कांग्रेस ने उसे नेहरू गांधी राज में तब्दील कर दिया। ऐसे में किसी भी राजनेता के बस की बात नहीं रही कि वो कांग्रेस को इस लौह आवरण से मुक्त करा सके। यही वजह है कि कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने भाजपा को आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई। मध्यप्रदेश में तो शिवराज सिंह सरकार इतना लंबा सफर केवल इसलिए तय कर सकी क्योंकि उसे कांग्रेस के दिग्गजों ने ही सहारा दे रखा था। जब शिवराज की भाजपा कांग्रेस से भी आगे बढ़कर कथित गांधीवादी नीतियों की गुलाम बन गई तो उससे प्रदेश को निजात दिलाने के लिए भाजपा के भीतर से ही बदलाव की बयार महसूस की गई। उससे बड़ी समस्या तो आज महसूस की जा रही है जब वक्त है बदलाव का नारा साकार करने के बावजूद मध्यप्रदेश में वही पुरातन पंथी कांग्रेस का दौर लौट आया है। मुख्यमंत्री कमलनाथ के हाथों में ही संगठन की कमान है और वे उसी पोंगापंथी कांग्रेस की तस्वीर साकार कर रहे हैं जिसे प्रदेश ने बेचैनी से भरकर सत्ता से बाहर धकेला था। संगठन का ताना बाना बुनने के लिए कमलनाथ ने चोर दरवाजा खोल दिया है। उन्होंने तबादलों और पोस्टिंग का जो काला कारोबार शुरु किया उसकी वजह से प्रदेश का विकास ठप पड़ गया है। दलालों की फौज फोन कर करके भ्रष्ट अफसरों को मनचाही पोस्टिंग का न्यौता भेज रही है।लोग चंदा देकर पोस्टिंग नहीं पाना चाहते क्योंकि प्रदेश सरकार ने आर्थिक संसाधनों की व्यवस्था नहीं की है। कमलनाथ की सोच जिन दलालों को संगठन के तौर पर एकजुट कर रही है उसे ही वे समाज के नीति नियंता मानते हैं।कमलनाथ को करीब से जानने वाले बताते हैं कि वे समाज में धौंस डपट से संसाधनों पर कब्जा जमाने वालों को ही लीडर मानते हैं। यही वजह है कि भाजपा और कांग्रेस के तमाम दलाल कांग्रेस के बैनर पर एकजुट होने लगे हैं। कमलनाथ की सोच सही है या गलत इस पर विचार न करें तो भी ये तो तय है कि वे अपनी सोच के आधार पर संगठन का एक ढांचा गढ़ रहे हैं। भाजपा से विशाल संगठन से दो दो हाथ करने के लिए कांग्रेस को लड़ने वाले योद्धाओं की जरूरत है। ये जरूरत कमलनाथ पूरी कर रहे हैं। समस्या ये आ रही है कि शोभा ओझा, नरेन्द्र सलूजा,आर.के.मिगलानी या प्रवीण कक्कड़ जैसे लोग जिस संगठन के नाम पर तबादले पोस्टिंग का कारोबार चला रहे हैं वे वास्तव में जनसेवा के विचार से कोई वास्ता नहीं रखते। अब ऐसे लोगों की भीड़ जुटाकर जनहितकारी कांग्रेस तो नहीं बनाई जा सकती। भाजपा में आज भी जब अपना घर फूंककर समाजसेवा करने वाली पीढ़ी जिंदा है तब ऐसी चंदाखोरों की कांग्रेस की जरूरत क्या है। शिवराज सिंह चौहान ने सेवाभावी भाजपा को भले ही प्राथमिकता न दी हो लेकिन उन्होंने इसे समाप्त भी नहीं किया। कमलनाथ कांग्रेस तो सेवाभावी कार्यकर्ताओं और नागरिकों को ही धकियाकर घर बिठाने में जुट गई है। इसमें राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश के बाद खलल पड़ रहा है। कमलनाथ को उद्योगपति के रूप में प्रचारित किया गया था। सत्ता में आने के बाद वे तबादला और पोस्टिंग पति साबित हो रहे हैं। उनकी सरकार ने कृषि, उद्योग, सार्वजनिक क्षेत्र सभी का भट्टा बिठा दिया है। वैमनस्य से भरे कमलनाथ को प्रदेश के तमाम क्षेत्रों से जुड़े लोग चोर नजर आते हैं। उनका कहना है कि पिछली सरकार खजाना खाली करके गई है। जबकि वे स्वयं सत्ता में आने के बाद प्रदेश के नाम पर दस हजार करोड का लोन ले चुके हैं। प्रदेश की नियमित आय चार हजार करोड़ से अधिक है जिसमें से 3200 करोड़ रुपया वेतन में बंट जाता है। बाकी रकम ब्याज सुविधाओं आदि में खत्म हो जाती है। ये स्थिति पिछली सरकार के कार्यकाल में भी थी और विकास योजनाओं के लिए शिवराज सरकार ने भी धड़ाधड़ कर्ज लिया था। प्रदेश की उत्पादकता धराशायी होने के कारण ये स्थितियां निर्मित हुई हैं। कमलनाथ कहते रहे हैं कि आप लोग मौजूदा काम छोड़कर कोई नए धंधे कर लीजिए। जाहिर है कि देश में चल रही आर्थिक सुधारों की बयार में ये अभीष्ठ भी है। इसके बावजूद लोग क्या करें, कैसे करें इसका मार्गदर्शन देने में कमलनाथ सरकार बुरी तरह असफल साबित हुई है। वे स्वयं कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं इसलिए कांग्रेस भी नेतृत्व विहीनता का दौर झेल रही है। कांग्रेस के भीतर किसी नेता का कद इतना बड़ा नहीं कि वो कमलनाथ को उनकी नाकामियों के लिए डंडा दिखा सके। ऐसे में कांग्रेस के भीतर से चल रही नेतृत्व की बयार कुछ मार्गदर्शन जरूर कर सकती है। राहुल गांधी यदि सच में देश को बदला हुआ देखना चाहते हैं तो उन्हें पद छोड़ने की झूठी रट को छोड़कर कांग्रेस से दूरियां बनानी होंगी। कमलनाथ जैसे लकीर पर चलने वाले नेताओं के बजाए यदि वे कांग्रेस का नया ढांचा खड़ा करने में सक्षम नेताओं को अवसर देंगे तो वे एक मजबूत संगठन जरूर खड़ा कर सकते हैं। यदि वे कांग्रेस को अपना जेबी संगठन बनाने की ही लीक पर चलते रहे तो तय है कि धीरे धीरे प्रदेश की जनता में पनप रहा आक्रोश सैलाब बनकर कांग्रेस की सरकारों को खदेड़ देगा। तब सुधारों का अवसर नहीं बचेगा। गांधी के नाम पर शोषणवादी नीतियों की खेती कर रही कांग्रेस को अपने गिरेबान में झांककर देखना होगा और सुधारों को अमली जामा भी पहनाना पड़ेगा।

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