न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्ज़ा देना उचित

क्या आपको पता है संविधान ने किसान को क्या अधिकार दिए हैं? एमएसपी को कानूनी दर्जा देने से क्या होगा किसानों को फायदा, क्योंकि कोर्ट भी कर चुका है किसानों को संविधानिक अधिकार देने की तरफदारी.. पढ़िए इस लेख में

शुभम कुमार

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने पहले वित्त बजट भाषण में उल्लेख किया था कि केंद्र सरकार 2022 तक किसानों की आय को दोगुनी करने का इरादा रखती है। नीति आयोग ने इसे लेकर 2017 में एक शोध पत्र भी जारी किया था, जिसमें सरकार किसानों की आय वृद्धि के लिए कौन से कदम उठाएगी इसका पूरा ब्यौरा था। सरकार ने फसल बीमा पॉलिसी, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), मिट्टी स्वास्थ्य कार्ड, इनपुट प्रबंधन, प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना, प्रधान मंत्री फसल बीमा योजना, जैसे किसानों के लिए विभिन्न फायदेमंद नीतियां शुरू की हैं। हालांकि, किसानों के लिए सबसे बड़ी बाधा इन नीतियों का गैर-प्रवर्तन या अनुचित कार्यान्वयन रही है। चिंता की बात यह है कि इतने प्रयासों के बाद भी देश के अधिकतर किसानों के लिए खेती करना एक दर्दनाक अनुभव है।

आर्थिक सर्वेक्षण (2017-18) के अनुसार कृषि क्षेत्र में 2.1% की वृद्धि होने की संभावना है, जबकि औद्योगिक क्षेत्र में 4.4% और सेवा क्षेत्र में 8.3% पर बढ़ने की संभावना है। कृषि क्षेत्र में धीमी विकास दर एक चिंता का विषय है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी-2015-16) के आंकड़ों के मुताबिक कृषि क्षेत्र में 11,370 लोगों ने आत्महत्या की थी। पिछले दो वर्षों से नए आंकड़े जारी नहीं हुए। एनसीआरबी के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि कृषि मजदूरों में आत्महत्या की दर में उछाल आया है, जो की चिंता का विषय है। इसके पीछे मुख्य कारण कृषि गतिविधियों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव है, यानी सूखे या बाढ़ के कारण फसल का बर्बाद होना है। हाल ही में ”कृषि और अन्य ग्रामीण श्रमिकों (संरक्षण और कल्याण) विधेयक, 2018” को राज्य सभा में पेश किया गया है। इस विधेयक का मुख्य लक्ष्य है कृषि और ग्रामीण श्रमिकों को शोषण के खिलाफ सुरक्षात्मक और कल्याणकारी उपाय प्रदान करना।

1960 के दशक में, हरित क्रांति ने कृषि क्षेत्र में बहुत सकारात्मक प्रभाव डाला और कृषि के आधुनिक तरीकों के साथ फसल उपज में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। हरित क्रांति के बाद सरकार ने सरकार और किसानों को सीधे जोड़ने के लिए एक चैनल स्थापित करने पर काम किया, ताकि किसानों को अपनी फसलों के लिए वाजिब न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल सके। हालांकि, बहुत से इलाकों में किसानों की अभी भी विनियमित थोक बाजारों तक पहुंच नहीं है और इसके कारण वे न्यूनतम समर्थन मूल्य की तुलना से कम दरों पर स्थानीय बाजारों में अपनी फसल बेचते हैं। एक शोध के अनुसार यह पाया गया है कि केवल 9.14% किसान अपनी फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य से अवगत हैं और भारत में केवल 6% किसान अपनी फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त करने में सक्षम हैं, बाकी किसान अपनी फसल को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य की तुलना से कम कीमत पर बेचते हैं। इसी बिंदु पर ग़ौर करते हुए 2016 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने ‘डॉ गणेश उपाध्याय बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया’ मामले में केंद्र सरकार और राज्य सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा प्रदान करने के लिए एक उपयुक्त कानून लाने का सुझाव दिया था। कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) ने भी अपने शोध के उपरांत केंद्र सरकार से सिफ़ारिश की है कि एक क़ानून द्वारा किसानों को अपने उत्पाद को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचने का कानूनी अधिकार प्रदान करना चाहिए।

अखिल भारतीय किसान संघ समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) के नेतृत्व में अधिकांश किसान भारत भर में लंबे समय से विरोध कर रहे हैं। किसानों की मुख्य मांग यह रही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की जाए और इसे कानूनी दर्ज़ा दिया जाए। हाल ही में दो सांसद, श्री राजू शेट्टी और श्री के. के. रागेश, ने लोक सभा और राज्य सभा में ”किसानों को कृषि वस्तुओं के लिए गारण्टी लाभकारी न्यूनतम समर्थन मूल्यों का अधिकार विधेयक, 2018” (विधेयक) पेश किया है। यह विधेयक उत्तराखंड उच्च न्यायलय के फैसले और CACP की सिफारिशों के उपरोक्त सुझावों के साथ समन्वय में है। एआईकेएससीसी द्वारा दलील के अनुसार यह विधेयक किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य को ”कानूनी अधिकार” के रूप में दावा करने और शिकायत निवारण तंत्र भी प्रदान करेगा। विधेयक को कई प्रमुख क्षेत्रीय दलों से व्यापक स्वीकृति और समर्थन मिला है। यह विधेयक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में उपभोक्ताओं के संरक्षण के लिए आवश्यक वस्तुओं अधिनियम, 1955 या उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 जैसे क़ानून बहुत पहले से हैं। लेकिन किसानों के अधिकार और उनके संरक्षण के लिए ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है। 2001 में खाद्य और कृषि संगठन सम्मेलन के दौरान खाद्य और कृषि के लिए संयंत्र आनुवांशिक संसाधनों पर अंतर्राष्ट्रीय संधि को मंजूरी दे दी गई थी, जिसके पश्चात भारत ने संयंत्र किस्मों और किसानों के अधिकार अधिनियम, 2001 पारित किया, जिससे प्रजनकों और किसानों के अधिकारों को मान्यता दी गयी। इसी प्रकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार देना बहुत आवश्यक है क्यों कि कल्पना कीजिये कि भारत के संविधान में अनुच्छेद 32 नहीं होता, मसलन अगर मौलिक अधिकारों का हनन होता और उनके संरक्षण के लिए अगर कोई उपाय नहीं होता तो मौलिक अधिकार अप्रभावी हो जाते। उल्लंघनों के मामले में किसी भी कानूनी सहारे के बिना किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देना संवैधानिक उपचार के अधिकार के बिना संविधान से तुलना की जा सकती है।

बात अगर किसानों के संवैधानिक अधिकारों की करें तो भारत का संविधान स्पष्ट रूप से किसानों को कोई अधिकार नहीं देता है। परन्तु भारतीय संविधान का भाग IV (अनुच्छेद 36-51) राज्य नीतियों के निर्देशक सिद्धांतों (डीपीएसपी) से संबंधित है, जो राज्य के सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को दर्शाते हैं। राज्य डीपीएसपी के निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत प्रत्येक नागरिक की सामाजिक और आर्थिक स्थिति सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय उपाय करती है। ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे नगर निगम के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के अहसास के लिए आजीविका का अधिकार आवश्यक है। उपर्युक्त संवैधानिक प्रावधानों, उच्चतम न्यायालय एवं उत्तराखंड उच्च न्यायालय के फैसले को पढ़ा जाए तो यह साफ़ है की किसानों को अपनी गरिमा की रक्षा के लिए आजीविका के पर्याप्त साधनों को सुरक्षित करने के लिए कुछ कानूनी अधिकार दिया जाना चाहिए, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित है अगर संविधान के अनुच्छेद 38(2) और अनुच्छेद 39(अ) को संयुक्त तौर से पढ़ें तो यह साफ़ हो जाएगा कि राज्य असमानता को खत्म करने और नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधनों को सुरक्षित करने के अवसर प्रदान करने के लिए आवश्यक उपाय करेगा। उपर्युक्त संवैधानिक प्रावधानों, उच्चतम न्यायालय एवं उत्तराखंड उच्च न्यायालय के फैसले को पढ़ा जाए तो यह साफ़ है की किसानों को अपनी गरिमा की रक्षा के लिए आजीविका के पर्याप्त साधनों को सुरक्षित करने के लिए कुछ कानूनी अधिकार दिया जाना चाहिए, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित है। साथ ही साथ किसानों को शोषण से बचाने के लिए एक सुरक्षा तंत्र प्रदान करने की स्पष्ट आवश्यकता है।

-लेखक डॉ राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, लखनऊ के छात्र हैं।

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