नोटबंदी पर खामोशी घातक

नोटबंदी का एक साल पूरा होने के बाद भी देश में तू तू मैं मैं का दौर चल रहा है। भारत जैसे विशाल देश में नोटबंदी का फैसला एक बड़ी चुनौती रहा है। डा. नरसिम्हाराव की सरकार ने जब 1991 में मुक्त बाजार व्यवस्था लागू की तब वह भयाक्रांत थी। उसे भय था कि इससे कहीं देश की जनता भड़क न जाए। आजादी के बाद से जो देश नियोजित की गई अर्थव्यवस्था का दंश झेल रहा हो भला उसे खुले आसमान की सर्द हवाएं कैसे बर्दाश्त हो सकती हैं।इसके बावजूद देश ने नरसिम्हाराव की मंशा को समझा और उनकी सरकार को अपना आशीर्वाद दिया। उनके वित्तमंत्री डा मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री बनकर उसी नीति को आगे बढ़ाया। व्यापारी और कारोबारी सभी खामोशी से इस बदलाव को देख रहे थे। इसकी वजह ये थी कि विकास के नाम पर आर्थिक जंजाल में फंसे देशवासियो को उम्मीद थी कि पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकारों ने जातिवाद, संप्रदायवाद के नाम पर जिन फोकटियों को उनके सिर लाद दिया है कम से कम अब उनसे मुक्ति मिल जाएगी। लेकिन आज नोटबंदी के एक साल पूरा होने पर वे महसूस कर रहे हैं कि उन्हें अपेक्षित लाभ नहीं मिल सका है। नोटबंदी लागू होने के बाद बाजार से पुराने नोट तो गायब हो गए पर नए नोट बाजार में सप्लाई नहीं हो पाए। यही वजह थी कि बाजार में चलने वाली रोजमर्रा की उपभोकता वस्तुओं के खरीददार ही नहीं बचे। एक झटके से घरों में रखा पैसा तो खाते तक पहुंचा पर नोट के अभाव में लोगों ने खरीददारी बंद कर दी। अब जबकि नोटबंदी के समर्थन में आंकड़े सामने आ गए हैं तब ये कहा जा सकता है कि नोटबंदी ने लाभ तो पहुंचाया पर उतना नहीं जितने का अनुमान था। इसके बावजूद आज कांग्रेस के साथ भाजपा के सद्सय भी सरकार और खासतौर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गाली दे रहे हैं।प्रधानमंत्री की ये बात भी सही है कि पहले केन्द्र सरकार एक रुपया भेजती थी तो 85 पैसे जनता तक पहुंचते थे। अब एक रुपया सीधा जनता के खाते में पहुंचता है। सबसे बड़ी बात तो ये कि समानांतर अर्थव्यवस्था में मौजूद काला धन अपने मालिक के नाम पर बैंकों में पहुंचा। लोगों ने भले ही फर्जी खातों से रकम जमा कराई हो पर अब उस रकम पर टैक्स वसूली का मार्ग प्रशस्त हो गया है। भाजपा को अपने इस महाअभियान पर लगातार बोलना चाहिए था। लोगों को बताना था कि वे बदली परिस्थिति में क्या करें। लोगों की कठिनाई दूर होती तो वे ही नोट बंदी के ब्रांड एंबेसेडर बन गए होते। वे ही नोटबंदी को सफल बनाते। भाजपा ने एक साल पूरा होने पर नोटबंदी के फायदे गिनाना शुरु किया है। राज्यों में शासन कर रही उनकी सरकारें भी नोटबंदी पर असमंजस के हालात से जूझ रहीं हैं। भाजपा की राज्य इकाइयों ने यदि समय रहते मैदानी मोर्चा संभाला होता तो उन्हें इन हालात का सामना नहीं करना पड़ता जिनसे देश आज जूझ रहा है। भाजपा को इन बदले हालात पर खुलकर जनता का साथ देना चाहिए। जनता का साथ पाने का इससे अच्छा मौका उसे फिर कभी नहीं मिल पाएगा। कमोबेश यही स्थिति जीएसटी की है। जीएसटी पर भी भाजपा बोलने से कतरा रही है। भाजपा कैडर बेस पार्टी है। इसके बावजूद उसका कैडर नोटबंदी और जीएसटी को समझाने में बुरी तरह असफल साबित हो रहा है।यदि उसकी जगह कांग्रेस की सरकार होती तो लोग अब तक उसके कार्यकर्ताओं को गली कूंचों में धुन रहे होते। भाजपा को अपनी पूरी क्षमता के साथ जनता से संवाद करना होगा। उसे अपने फर्जी और थोपे हुए नेताओं से मुक्ति पानी होगी। जमीनी नेताओं को विश्वास में लेना होगा। उन्हें नोटबंदी और जीएसटी पर प्रशिक्षण देना होंगे। तब जाकर उन्हें मैदानी मोर्चा संभालना होगा। अभी चुनाव को वक्त है।यदि समय रहते भाजपा ने अपना दायित्व ठीक तरह से निभाया तो उसे देश के जनमानस का वैसा ही प्यार मिलता रहेगा जैसा देश ने मोदी सरकार को चुनते वक्त बरसाया था।

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