- भरतचन्द्र नायक
भारतीय जनता पार्टी ने राजनीति के विशिष्ठ पड़ाव पर ऐसे समय जब तीन दशकों से केन्द्र में स्पष्ट बहुमत मिलना लगभग असंभव मान लिया गया 16 वी लोकसभा के चुनाव 2014 में प्रचार अभियान की कमान दूसरी पीढ़ी को सौंपी। संघ और पार्टी ने लीक से हटकर कमान सौंपी तब सभी विस्मित थे। चुनाव अभियान की कमान नरेन्द्र मोदी ने संभाली और पार्टी तथा मतदाताओं के बीच विश्वास का सेतु बनाने में सफलता पायी। लोकसभा चुनावों में पार्टी ने जीत का गणित लगाया नरेन्द्र मोदी ने उसे आसानी से पूरा कर प्रचंड बहुमत के साथ ऐसे राज्यों तक में पहुंच बनायी जहां जीत का आधार जाति और सम्प्रदाय था। इससे पार्टी के साम्प्रदायिक होने का जो ठप्पा सियासी दल लगाते थे नरेन्द्र मोदी ने उसे तोड़ डाला और वाराणसी और स्वयं लखनऊ से चुनाव जीतकर सभी को आश्चर्य चकित कर दिया। उन्होंने 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के समय अपने विश्वस्त साथी अमित शाह को केन्द्रीय मंत्री परिषद में शामिल होने की दावत दी लेकिन अमित शाह ने गुजरात में विधायक बने रहकर संगठन के कार्य में रूचि लेना बेहतर समझा। किंग बनने के बजाए उन्हें किंग मेकर की भूमिका में पाकर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष का ताज संगठन ने सौंपा। काम चुनौतीपूर्ण था, लेकिन 52 वर्षीय अमित शाह ने संगठन के अपने साथियों को नई तकनीक और प्रौद्योगिकी को आत्मसात कर संगठन के विस्तार में जुटने का आव्हान किया। महासदस्यता अभियान में मोबाइल से सदस्यता की शुरूआत का कौशल अपनाकर देश में 11 करोड़ से अधिक सदस्य बनाकर भारतीय जनता पार्टी को देश ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा राजनैतिक दल होने का गौरव हासिल करा दिया। हिन्दी भाषी राज्यों से लेकर पूर्वोत्तर, पश्चिमोत्तर राजयों और दक्षिण के सुदूरवर्ती राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की पहचान बना दी।
राष्ट्रवाद को समर्पित भारतीय जनता पार्टी को दुनिया का सबसे बडा राजनैतिक दल होने का गौरव हासिल कर चीन की वामपंथी पार्टी का दावा काफूूर कर दिया। हिन्दी भाषी सूबों से लेकर पूर्वोत्तर, पश्चिमोत्तर राज्यों और दक्षिण के सुदूरवर्ती राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का संगठन गढ़ दिया। नए सदस्यों को वैचारिक रूप से परिपक्व बनाने के लिए पं. दीनदयाल प्रशिक्षण महाअभियान के अंचल मे लाने का महत्वकांक्षी कार्यक्रम आरंभ हुआ और उसमें सफलता भी मिली।
भारतीय राजनीति में ऐसा दुर्लभ संयोग ही होता है जब शीर्ष पर वैचारिक साम्य बन पाता है। कांग्रेस में भी प्रथम राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री एक ही दल के थे लेकिन वैचारिक आधार पर सोमनाथ मंदिर के निर्माण को लेकर परस्पर विरूद्ध ध्रुवों पर थे लेकिन भाजपा के दो प्रमुख प्रधानमंत्री और पार्टी के राष्टीय अध्यक्ष अमित शाह की केमिस्ट्री ऐसी बनी कि परस्पर अटल विश्वास के धनी साबित हुए। अमित शाह के राज्यसभा चुनाव में जीत हासिल करने के बाद उन्हें केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर रक्षा मंत्रालय दिए जाने का सुझाव जोरदारी के साथ आया लेकिन अमित शाह की संगठन में असीमित रूचि और मिशन 2019 को ध्यान में रखकर अमित शाह ने स्वयं केन्द्रीय मंत्रीमंडल में शामिल होने से इंकार करके आज की युवा पीढी और सत्ता लोलुप राजनेताओं के समक्ष एक अनुकरणीय आदर्श उपस्थित हुआ है।
दरअसल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्टीय अध्यक्ष अमित शाह के वैचारिक साम्य का ही नतीजा है कि संगठन और सरकार के निर्णय समय पर होते है जिनसे राजनैतिक दल और कार्यकर्ता भी चैक जाते है। इसलिए इनके निर्णय के प्रति सदा कोतुहल बना रहता है और दोनों के बीच हुए निर्णय को संगठन आम सामूहिक स्वीकृति मानकर आत्मसात करता है। कमोवेश राष्टपति के चुनाव में प्रत्याशी को लेकर जब रामनाथ कोविंद की घोषणा की गयी उसकी उपयुक्तता को लेकर हर्ष मिश्रित आश्चर्य जनक प्रतिक्रिया देखी गयी। सत्ता और संगठन में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के बीच जो सहमति बनती है वहीं संगठन का अंतिम फैसला माना जाता है। किसी तीसरे की भूमिका नगण्य होती है। अलबत्ता सत्ता और संगठन के स्तर पर जो फैसला लिया जाता है उसकी जानकारी सरसंघचालक डाॅ मोहन भागवत को चर्चा के रूप में होती है। निर्णय लेने में उनकी भी भूमिका नहीं होती है। इससे हर फैसले में अंत तक गोपनीयता का निर्वाह किया जाता है। फैसले के अमल में कठिनाई अथवा अन्यथा कोई परिस्थिति पैदा होने पर वे जवाबदेही की सहर्ष स्वीकार करते है। इस तरह जवाबदेही का भाव बने रहने के साथ कठिनाई का स्पष्टीकरण भी देते है और बता देते है निर्णय दूरदर्शितापूर्ण और कठोर है। प्रसव पीडा तो होगी लेकिन नतीजा राष्ट के व्यापक हित में होगा। नोटबंदी होने पर चैतरफा हमले झेले लेकिन जो भरोसा उन्होंने जनता को दिया कि कालेधन पर चोट भ्रष्टाचार पर अंकुश और आतंकवाद में कमी आयेगी। ऐसा होता देखकर देश की जनता ने कष्टों को गंवारा किया और सत्ता और संगठन की नीयत पर भरोसा किया। गुजरात में विधायक बने रहते 2012 में बहन आनंदी बेन पटेल के मुख्यमंत्री बनने पर उनके कार्यकलाप से अमित शाह संतुष्ट नहीं थे, लेकिन आनंदी बेन पटेल की गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर उन्होंने कोई रूचि नहीं दिखायी क्योंकि उन्हें तो भाजपा संगठन का विस्तार और देश में भगवा परचम फहराना उनकी प्रतिबद्धता बन चुकी थी। इस मायने में यदि अमित शाह को चुनावी दांवपैच में माहिर होने, अपनी गुरूवात्कर्षण शक्ति से दूसरे दलों को समीप लाने में महारत होने के कारण उन्हें चुनाव जीतने का तंत्र मंत्र साधक कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनका कार्यकाल यह प्रमाणित भी करता है कि जिस राजनैतिक दल को साम्प्रदायिक कहकर कथित सेकुलरवादी राजनैतिक अस्पृष्य बना चुके थे आज उसका परचम डेढ दर्जन राज्यों भारत के 70 प्रतिशत भूभाग पर फहरा रहा है।
वाकया 8 अगस्त का था। राजनैतिक प्रेक्षकों ने देखा कि गुजरात में अमित शाह और केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की जीत प्रत्याषित थी ही लेकिन जिस कांग्रेस के पास सदन में 50 सदस्य थे और सोनिया गांधी के राजनैतिक सलाहकार अहमद भाई पटेल का जीतना आसान था कांग्रेस अपना घर संभालने में विवश दिखी। उसे अपने झुंड को सुरक्षित रखने के लिए कांग्रेस शासित कर्नाटक सरकार का संरक्षण लेना पडा। कहने की गरज ये कि अमित शाह ने नरेन्द्र मोदी के लक्ष्य कांग्रेस मुक्त भारत को पूरा करने में सारी शक्ति केन्द्रित कर दी है। अमित शाह के राज्यसभा में पहुंचने के साथ लोगों का सोचना है कि वे संसद भवन में प्रधानमंत्री के सबसे निकटतम और सबसे विश्वस्त व्यक्ति होंगे। ऐेसे लोंगों का यह सोच भी है कि उन्हें केन्द्र में रक्षामंत्री बनाकर संगठन की बागडोर केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री को सौंपी जा सकती है। लेकिन अमित शाह को आने वाले दिनों में गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव अहम होंगे और वे शायद ही संगठन से निकलकर सत्ता की पगडंडी पर कदम बढायेंगे। गुजरात के चुनाव में प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की साख पर गंभीर चुनौती होगी जिसे देखते हुए प्रधानमंत्री और संगठन शायद ही अमित शाह के प्रभार में परिवर्तन करे।
इतिहास पर नजर दौडाए तो 1925 में राष्ट्र निर्माण के अनुष्ठान के रूप में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सपना देखा था। उसे पूरा करने के लिए उपयुक्त तंत्र भी आवश्यक और अपेक्षित था। उपयुक्त तंत्र विकसित करने के लिए अटलजी और आडवाणी के करिश्मायी व्यक्तित्व को नहीं भुलाया जा सकता लेकिन उनकी सफलता आंशिक थी। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को इसका श्रेय मिलना ही चाहिए कि भारतीय गणतंत्र में आज सर्वोच्च पद पर राष्ट्रपति के रूप में रामनाथ कोविद, उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू और प्रधानमंत्री के पद पर नरेन्द्र मोदी विराजमान है। लोकसभा अध्यक्ष पद पर सुमित्रा महाजन है। इस पद पर रहकर वे पहले ही दलीय संबंध तोड चुकी है। लेकिन यह एक सुखद संयोग और कोतुहल जनक परिघटना है कि चारों राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की उपज है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयंसेवक है। भारतीय राजनीति में न तो इनकी परंपरागत पहचान है और न इनका कोई गाॅडफादर रहा है। स्वयंसेवक की पहचान और राष्ट्र को वैभव के चरम शिखर पर पहुंचाना इनकी प्रतिबद्धता जरूर रही है। इन्हें राष्ट्र ने जो गंभीर दायित्व सौपा है वह फूलों की सेज नहीं कांटो का ताज है। एक करोड पच्चीस लाख लोगों की निगाहे इनके हर कदम पर गढी हुई हैै। यह इनके लिए यहां स्वर्णिम अवसर है वहीं गंभीर चुनौती भी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चर्चा विश्व पटल पर हो रही है, जिसे कथित सेकुलरवादी साम्प्रदायिक बताते हुए अस्तांचल की ओर बढ रहे है।
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