– भरतचन्द्र नायक
क्षेत्रीय दल यदि आज की सियासत में अपनी प्रासंगिकता खो रहे है और उनकी क्षरित विश्वसनीयता से जनता में अलोकप्रियता के चरम पर पहुंच रहे है तो इसके लिए उनकी वैचारिक संकीर्णता और अवसरवादिता को ही खोट दिया जा सकता है। सीमावर्ती राज्य जम्मू कश्मीर में हुए विधानसभा चुनाव में जब किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला भारतीय जनता पार्टी ने व्यापक राष्ट्रीय हित में तत्कालीन पीडीपी अध्यक्ष मुफ्ती मोहम्मद सईद से गठबंधन स्वीकार कर लिया। दो विपरीत ध्रुवों के मिलन पर सियासतदार हैरत में तो पड़ गए लेकिन उम्मीद थी कि मुफ्ती के नेतृत्व में पीडीपी संस्कारित होगी। पीडीपी के कार्यकर्ताओं पर लगाम भी कसी गयी लेकिन फिर भी उनकी अलगाववादियों से मोहब्बत तो जारी रही। अकस्मात मुफ्ती मोहम्मद सईद खुदा को प्यारे होने पर फिर भाजपा पीडीपी सरकार पर संकट आया लेकिन उनकी पुत्री मेहबूबा ने अपने वालिद की गद्दी संभाली और मुख्यमंत्री पद से गठबंधन की सियासत जारी रखी। भाजपा जैसे कट्टर राष्ट्रवादी दल का पीडीपी से साथ केर बेर का मिलन था लेकिन आजादी के बाद से ही जिस तरह सूबे में अलगाववाद को शेख अब्दुल्ला के समय से समय समय पर हवा दी गयी उस प्रभाव को डायलूट करने का प्रयास, जम्मू के साथ हो रहे पक्षपात को समाप्त करने, विस्थापित कश्मीरी पंडितों की पुनर्वास को ध्यान में रखकर भारतीय जनता पार्टी ने कड़वी दवा स्वीकार की। गंभीर मर्ज में अक्सर कड़वी दवा को सेवन करना कभी कभी अपरिहार्य हो जाता है। जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान पोषित आतंकवाद का दौर जारी रहने पर भी जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री मेहबूबा ने कई अवसरों पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशास्ति में कहा कि देश को नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व दुर्लभ अवसर है और वे जम्मू कश्मीर समस्या का समाधान करने में कामयाब होंगे। इसी दरम्यान मोस्ट वांटेड आतंकवादी बुरहानवानी को मुठभेड़ में समाप्त कर सुरक्षा बलों ने कामयाबी हासिल की और पाकिस्तान की शह और हुर्रियत नेताओं के संरक्षण में बुरहानवानी का महिमा मंडन शुरू हो गया। सुरक्षा बलों को पत्थरबाजी का निशाना बनाना आरंभ हो गया। अलगाववाद की गूंज का नेशनल कांफ्रेस के नेता उमर अब्दुल्ला ने अलगाववादियों के सुर में सुर मिलाकर एक मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद की शपथ के बाद भी भारतीय अखण्डता को दरकिनार रखा और पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाकर बेहयायी से वतन परस्ती को लज्जित कर दिया। दरअसल अब्दुल्ला परिवार की इससे बड़ी अहसान फरामोशी भी दूसरी नहीं हो सकती। फिर उमर अब्दुल्ला को दोष देना इसलिए फिजूल है क्योंकि उनके वालिद डाॅ. फारूख अब्दुल्ला तो पाकिस्तान की भाषा बोलने लगे। वे भूल गए कि उन्होंने केन्द्रीय मुख्यमंत्री के रूप में भी संविधान की शपथ ली है। इतने चुनावों में जम्मू कश्मीर की जनता संविधान को सर्वोच्च रखा है और जम्मू कश्मीर के अंतिम रूप से भारत में विलय को स्वीकार किया है लेकिन ताज्जुब की बात यह हुई कि अलगाव और आतंक में जूझ रहे भारत की बुद्धिजीवी जनता ने जब 370 के अनुच्छेद 35 ए की प्रासंगिकता पर सवाल उठाया तो मेहबूबा मुफ्ती ने भी वही राग अलापाते हुए कह दिया कि इस अनुच्छेद 35 ए को हटाने पर सूबे में तिरंगा झंडा साधने वाला नहीं मिलेगा। वे भूल गयी कि कभी शेख अब्दुल्ला ने इससे कम लेकिन मिलते जुलते अलफाज बोलने की खता की थी और उन्हें जेल की हवा खाना पडी थी। इसके पीछे का मनोविज्ञान समझना कठिन नहीं है। वास्तविकता यही है कि पीडीपी के कार्यकर्ता शुरू से ही अलगाववाद की रस्मों में रचे पचे थे। मुफ्ती मोहम्मद सईद की जानते थे लेकिन वे उन्हें सुधरने का मौका देते थे और उनकी गुस्ताखी गंवारा करते थे। आज उन्हीं कार्यकर्ताओं को राष्ट्रवाद से जुडा आदर्श बेमानी है क्योंकि वे इसे वोटों की दृष्टि से पीडीपी के हित में घातक मानते है। उनके रिश्ते पहले भी अलगाववादियों के साथ थे और आज भी उन्हें अलगाववादियों के विरूद्ध की जा रही केन्द्र सरकार की कार्यवाही रास नहीं आ रही है। उनका न तो राष्ट्रवाद से कोई प्रेम है और न गठबंधन में साथ भाजपा के प्रति मोहब्बत का रिश्ता है। अलबत्ता उन्होंने मुफ्ती मोहम्मद सईद भी जीते जी साथ दिया और खुली बगावत नहीं की लेकिन अब उनका हौसला बढा है। इसी का नतीजा है कि मुख्यमंत्री मेहबूबा के सुर बदल गए और उन्हें अलगाववादियों के समर्थन की चिंता सताने लगी।
राजनैतिक अवसरवादिता इसी को कहते है कि जिसका सबूत पीडीपी और उसकी नेत्री मेहबूबा ने दे दिया है। अब उन्हें भरोसा हो गया है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जम्मू कश्मीर में यथास्थितिवाद ज्यादा दिन बर्दाश्त नहीं करेंगे। यदि राष्ट्रवाद के ज्वार ने जोर पकड़ा तो पीडीपी का वोट बैंक तहस नहस हो जायेगा। वे भूलती है कि देश में आतंकवाद का विस्मिल्ला पहली बार उनकी बहन के अपहरण के रूप में मुफ्ती परिवार ने ही भुगता है, लेकिन कुर्सी की बलिहारी समय बदला और मुफ्ती परिवार की बेटी मेहबूबा के तेवर और तासीर बदल गयी।
राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने सूबों के साथ इंसाफी दिखाते हुए उम्मीद जतायी है कि विकास के लिए मिलने वाली सहायता राशि विकास में लगे। इस प्रयास का असर यह हुआ कि सरकार और बिचैलियों के गठजोड़ पर आंच आयी है। केन्द्र की पूर्ववर्ती सरकारे जम्मू कश्मीर की सल्तनत की मंुह मांगी मुराद पूरी करती रही है और कभी हिसाब किताब नहीं पूछा गया। नतीजा सूबे में जनता की बदहाली, बिचैलियों ने विदेशों में जागीरे खड़ी कर ली। लोकधन बर्बादी पर मोदी सरकार की कड़ाई जम्मू कश्मीर के राजनैतिक दलों और सियासतदारों पर भारी पडी है। अलगावादी नेताओं को जिस तरह सीधे सीधे पाक परस्त साबित किया गया और उनकी अवाम के शोषण की कहानियां बाहर आयी है जम्मू कश्मीर की सियासत में भूकंप के झटके आ रहे है। अलगाववादियों की दुकाने उठना और विकास के धन की जांच पड़ताल सूबे की सियासत को ऐसा दंश है कि वे सहन नहीं कर पा रहे है। जिस पर नरेन्द्र मोदी को अवाम की बधाई मिलना थी उसको सियासतदार उल्टा प्रचारित कर अलगाववाद को हवा पानी परोस रहे है। हाल के दिनों में वित्तीय प्रबंधन की लगाम कसी जाने पर सियासी ठेकेदारों और नेताओं पर अचूकवार होने से तिलमिला गए है। उन्हें अपनी गांठ खाली होने की फिक्र है। मुल्क, सूबे की खुशहाली की नहीं।
नरेन्द्र मोदी को भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ताना ताल्लुक बढ़ने की कितनी अभिलाषा है इसका संकेत इसी बात से मिलता है कि प्रधानमंत्री मोदी विदेशी दौरा के अंतिम पड़ाव में पाकिस्तान पहुंचे और नवाज शरीफ के मेहमान बने। उनकी माताजी को साड़ी भेंट दी और पाकिस्तान को मोहब्बत का पैगाम दिया। लेकिन पाकिस्तान ने रोग नेशन का सबूत दिया। बातचीत के चलते सीमा का उल्लंघन भी किया और आतंकवाद को विदेश नीति बनाकर सारी दुनिया में जग हंसाई करायी। ऐसे में मोदी ने स्पष्ट कहा कि आतंकवाद और दोस्ती, भारत को दहशत का दंश और सियासी चर्चा साथ साथ नहीं चल सकती है लेकिन उमर अब्दुल्ला और मेहबूबा मुफ्ती को चिंता राष्ट्र की नहीं चंद वोटों और कुसी की है। ये अलगावाद परस्ती दिखाकर राष्ट्रीय सुरक्षा में छेदकर रहे है और जो बात पाकिस्तान कहने का साहस नहीं कर सकता उसके स्वर भी निकाल रहे है। मोदी का यह स्टेंड एक दम सही है। द्विपक्षीय मामले में न तो कोई बिचैलिया होगा और न तीसरा पक्ष होगा। आतंकवाद को समाप्त करने के लिए पहली बार एनडीए सरकार ने सुरक्षा बलों को छूट दी। अलगाववादियों को मिलने वाली सहायता के स्त्रोत बंद कर दिए है। यह एक सुनामी है जिससे विदेशी धन पर गुलछर्रे उड़ाने वाले बिचैलिया और राजनेता अचेत होकर प्रलाप कर रहे है। गिलानी परिवार पर कसी गयी मुस्कें बहुतों को नागवार गुजरी है। इसके बाद मेहबूबा मुफ्ती ने जिस तरह अपने डूबते सियासी जहाज के भविष्य से आहत होकर टिप्पणी की है उससे केन्द्र सरकार को भी समझ लेनी चाहिए कि मेहबूबा मुफ्ती और उनके साथ गठबंधन का भविष्य का द्वार बंद हो चुका है। पीडीपी की डगर कठिन है। मोदी का बहुआयामी अजेंडा स्थाई समाधान सिद्ध होगा।
– भरतचन्द्र नायक
एलआईजी ए 58, ई 6 अरेरा कालोनी, भोपाल
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