लोअर क्लास की चोटी

रजनीश जैन

चोटी कटवा घूम रहा है। स्त्रियों से उनकी अमूल्य निधि छीनने। लटें, गेसू, ज़ुल्फें, केश, घटाऐं ही तो हैं जो पुरुषों की कल्पना में असल स्त्रीधन है।…इसीलिए इसे केशराशि भी कहा गया। यही एक ऐसी राशि है जो सरकार के सारे प्रतिबंधात्मक कदमों के बाद बढ़ने से नहीं रुकती। विभिन्न वित्तवर्गों की स्त्रियों के पास केशराशि अलग अलग मात्रा में मौजूद होती है। ऐसी इकलौती राशि भी है जो विलोम प्रकृति रखती है। जो स्त्री जितनी विपन्न होगी उसके पास केशराशि की अधिक मात्रा होगी।स्त्री के अमीर होते जाने का एक संकेत यह भी है कि उनकी केशराशि उसी तदात्म्य में सीमित होती जाती है। अमीरी में केशराशि को छोटा किंतु सुघढ़ बगीचे की तरहा कृत्रिम विन्यास दिये जाने के प्रयास होते हैं।
गरीब स्त्रियों के पास प्रचुर मात्रा में केशराशि होती है लेकिन गाजरघास की तरह अस्त व्यस्त और बेतरतीब। ‘बिनु पानी साबुन बिना’ सुभाव तो निर्मल हो सकता है। लेकिन जल और साबुन के अभाव में निम्न मध्यमवर्गीय केशराशियों में इससे एक जैवविविधता से भरा वनप्रदेश निर्मित होता है। बिल्कुल सतपुड़ा के घने जंगलों की तरहा। ‘घुस सको तो घुसो इनमें, धँस सको तो धँसो इनमें,घुस न पाती हवा जिनमें…ऊंघते अनमने जंगल’। इस वन में कंघी कभी घुसाई या धँसाई नहीं जाती।उपलब्धता के आधार पर तेल की तहें चढ़ाई जाती हैं। इतना तगड़ा बंदोबस्त होता है कि बारिश का पानी भी तहों को न भेद पाये।
इस वनीकृत केशराशि में विचरण करने वाला प्रमुख प्राणी जूँ नामक कीट होता है जो अपनी असीमित प्रजनन क्षमता से इन वनों को व्यापक रूप से खसखस के दानों सदृश्य अपनी भावी संततियों की असंख्य मात्रा से आच्छादित कर देता है। इस प्राणी की एक मात्र प्राकृतिक शत्रु वनप्रांत की स्वामिनी की माता, भगिनी, सखी , पुत्रियां ही होती हैं जो एक दूसरे के वनों में अपने तीक्ष्ण नखों से इन प्राणियों का शिकार करने एक के पीछे एक बैठ जाती हैं। शिकार की खोज में कटार जैसी निगाहें और पैनी होकर अभियान चलाती हैं। सूक्ष्म पगडंडियों की अभ्यस्त होते ही जूँ मिलने लगते हैं जिन्हें एहतियात से खींच कर पहले हथेली पर रखकर साईज इत्यादि का मुआयना किया जाता है। फिर दोनों अंगूठों के मध्य दबाकर ‘पिट्ट’ की ध्वनि का श्रवण किया जाता है। स्त्रीस्वभाव में हिंसात्मक तत्व का सर्वोत्तम दर्शन ‘जूँ आखेट’ में ही होते हैं। इस पर शोध होना आवश्यक है कि नाखूनों के बीच दबाकर जूँ को पिचलते वक्त उनके दिमाग में किसका प्रतिबिंब होता है। पति , समाज , व्यवस्था या अपने सपनों में से किसकी हत्या इतनी निर्दयता से कर रही होती हैं वे उस वक्त! जूँ को प्राणदंड देने की इस सुखद और अनंत संतुष्टि देने वाली इस प्रकिया में इतना आनंद होता है कि इसे बहुधा घंटों तक तल्लीनता से किया जाता है। इस प्रक्रिया को यदि पड़ोसिनों की निंदाचर्चा के साथ संपन्न किया जाये तो समय का भान नहीं होता। आईंस्टीन का सापेक्षता के सिद्धांत के आदर्श उदाहरण की तरह। …हालांकि जूँ के निरंतर शिकार की इस परंपरा का सबसे नायाब पहलू यह है कि प्रतिदिन शिकार किए जाने पर भी जूँ की तादाद कभी घटती नहीं और आनंदप्राप्ति का स्रोत शाश्वत अजस्र बना रहता है।
यह पूरा शिरोधार्य पारिस्थितिकी तंत्र हरेक वन की तरह ही अर्से में इकट्ठा हो गयी अवशिष्ट सामग्री के सड़ने से दुर्गंध युक्त भी हो जाता है लेकिन केशरमणी इस दुर्गंध की इतनी अभ्यस्त होती है कि उसे यह सुगंध ही प्रतीत होती है। कभी कोई प्रेमातुर केशराशि की तैलीय चमक के आकर्षण में निकट आकर गेसुओं की खुशबू से मदहोश होने के फेर में बेहोश होने लगे तब रमणी अपने केशतेल पर शक करती है और गांव के बनिए से भृंगराज की जगह इसबार डाबर आँवला केशतेल की डिमांड करती है।आखिर ब्रांड की बात ही और होती है। बढ़ी हुई कीमत का बोझ या तो ‘वे’ भुगतें या दूकानदार।
मितरों, …ऊपर यह पर्यावरणीय जानकारियां इस वजह से समझना जरूरी थीं कि इन्हीं में ‘चोटी कटवा ‘ का रहस्य छुपा है। यह कृत्य न अंधविश्वास है न अपराध। यह उक्त पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन से उपजा उपचार है। बरसाती पानी केशराशि में अतिक्रमण कर चिकट,गंदगी वगैरह से मिलकर दुर्गंध और खुजली पैदा करता है। अमीरों में इसे फंगल इंफेक्शन या रूसी कहा जाता है। जब यह असहनीय हो जाती है तो रमणियों को अपने केश त्यागने की तीव्र इच्छा होती होगी। खुली हवा में सांस लेने की प्राकृतिक इच्छा सासें और समाज नहीं रोक सकतीं। नाई से बाल कटाने की परंपरा बनाई नहीं, ब्यूटीपार्लर का कांसेप्ट पिछड़े इलाकों में पहुंचा नहीं, पहुंच गया है तो मुफ्त में ऊगे बाल कटाने के दो सौ रुपया कौन दे। इसलिए चोटीकाटने का यह कार्य लुकछिप कर किये गये कई घरेलू कार्यों में से ही एक है।
…दक्षिण में तिरुपति के मंदिर की परंपरा को देखिए। वहां दान में बाल अर्पित करके सफाचट निकल कर भक्तजन आते हैं। इनमें बड़ी तादाद में नारियां भी होती हैं जो धर्म के ही प्रताप से सिर पर खुली हवा के प्रछन्न झोंकों का लुत्फ लेती हैं। बुंदेली में कहावत है ‘जुंआ लगे न लीख मुंडा सबसे ठीक।’ समाज की लादी परंपरा की दवा उन्होंने धार्मिक कर्मकांड में ही ढूंढ़ ली। लोहे को लोहे से काट लिया। पर उत्तर भारत में तिरुपतिबालाजी नहीं हैं। बाल प्रचुरता से हैं। बाल चोटियां बनते हैं और चोटियां कट रही हैं। हल साबुन, शैंपू,कंघी, स्नान , वस्त्रों की सफाई, स्वच्छता में छिपा है पर गरीब की अर्थव्यवस्था आड़े आ जाती है।…घरों में कैद लोअर क्लास महिला क्या करे?…परिवार पाले या बाल संवारे। तो बाल और चोटी लोअर क्लास की ही समस्या है वहीं कटेगी। सदियों से कट रही है, दिख आज रही है।
(रजनीश जैन, सागर)

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