भोपाल, ११ अगस्त। जिस म० प्र० राज्य सूचना आयोग पर प्रदेश भर में सूचना का अधिकार अधिनियम का पालन करवाने की जिम्मेदारी है, उसी ने मनमानी व्याख्या, कार्यवाही तथा टाल-मटोल करते हुए इस अधिकार का माखौल बना रखा है। स्वाभाविक रूप से ही, उसकी यही प्रवृत्ति प्रदेश भर के सरकारी कार्यालयों में तेजी से फैल रही है। परिणाम यह हो रहा है सूचना के अधिकार के तहत् सूचना प्राप्त करने के इच्छुक लोगों का यह अधिकार अवरुद्ध हो रहा है।
आयोग के अपने कार्यालय में सूचना को प्रदान करने का आवेदन लगाये जाने पर आयोग कभी दलील देता है कि चाही गयी जानकारी का विवरण स्पष्ट नहीं है, जबकि वह बिल्कुल स्पष्ट होती है; तो कभी यह दावा कर देता है कि माँगी गयी जानकारी उपलब्ध ही नहीं है जबकि वह कार्यालय की सम्बन्धित नस्ती में ही मौजूद रहती है।
हाल ही में आयोग ने एक ऐसी ही कारस्तानी सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध संस्था ‘सजग’ के अध्यक्ष डॉ० ज्योति प्रकाश के साथ की। डॉ० ज्योति प्रकाश ने विगत् ११ जुलाई को आयोग से सूचना-अधिकार के तहत् ग्यारह बिन्दुओं पर जानकारी माँगी थी। पर आयोग के लोक सूचना अधिकारी पराग करकरे ने उनके इस स्पष्ट आवेदन को सिरे से नकार दिया और चाही गयी ग्यारह में से एक भी जानकारी उपलब्ध नहीं करायी। २५ जुलाई २०१६ के अपने पत्र में आयोग के लोक सूचना अधिकारी ने इतनी भर दलील दी कि स्पष्ट विशिष्टताओं के अभाव में माँगी गयी जानकारी तक पहुँच पाना सम्भव नहीं है। जबकि आवेदन की भाषा एकदम साफ-सुथरी है और उसके माध्यम से माँगी गयी जानकारी की विशिष्टताएँ भी अपने आप में बिल्कुल स्पष्ट हैं। लेकिन हाँ, इसमें एक पेंच भी है। वह यह कि माँगी गयी जानकारी की विशिष्टताएँ अपने आप में यह स्पष्ट करती हैं कि उनके प्रकट हो जाने पर आयोग की कार्य-शैली में व्याप्त सारी दबी-छिपी अधिनियम-विरोधी मनमानियों और काली करतूतों की पोल भी खुल जायेगी।
यहाँ यह उल्लेख करना महत्व-पूर्ण है कि ऐसा लचर कारण बतला कर सूचना देने से मना किये जाने से हैरान हो कर डॉ० ज्योति प्रकाश ने १ अगस्त २०१६ को पूरे मामले की विस्तृत लिखित शिकायत मुख्य सूचना आयुक्त से की है। इसमें उन्होंने आयोग के मुखिया से पूछा भी है कि उसके आवेदन और उसके माध्यम से माँगी गयी जानकारी के विवरण का कौन सा हिस्सा उन्हें समझ में नहीं आता है? इसी के साथ इस शिकायत में मुख्य सूचना आयुक्त से यह भी माँग की गयी है कि ऐसा बेहूदा बहाना बना कर जानकारी देने से मना करने वाले अपने लोक सूचना अधिकारी को वह आयोग से निकाल बाहर करें।
आयोग की नीयत के खोटों की गम्भीरता तो यहाँ तक है कि आयोग में चल रहे अपील के किसी प्रकरण में पीठासीन आयुक्त द्वारा लिखी गयी आदेशिका की नकल माँगने पर भी यही लचर दलील ठोक दी जाती है कि वह नस्ती में उपलब्ध नहीं है। जबकि, ऐसा हो ही नहीं सकता है कि पेशी के हो जाने के हफ़्तों बाद भी पीठासीन आयुक्त की आदेशिका सम्बन्धित नस्ती में मौजूद नहीं हो। क्योंकि सुनवाई का विवरण दर्ज करने वाली आदेशिका तो, कायदे से, सुनवाई वाले दिन ही लिखी जाती है। उल्लेखनीय है कि मुख्य सूचना आयुक्त द्वारा की जाने वाली सुनवाई तक पर भी ऐसा हीला-हवाला किया जा चुका है।
तो क्या आयुक्त उनके द्वारा की गयी सुनवाई का विवरण दर्ज करने वाली आदेशिका सुनवाई वाले दिन नहीं लिखते हैं और फिर हफ़्तों बाद आदेशिका लिख कर उसमें उसके लिखने की पिछली तारीख दर्ज कर देते हैं ताकि कागज पर विधि-विधान का पालन किया जाना दिखा दिया जाये? और, क्या वे विधि-विरुद्ध तरीके से बाद मेंफुरसत से लिखी ऐसी आदेशिका में तथ्यों से मेल नहीं खाने वाली मन-मानी लिखत तक दर्ज कर देते हैं? मजेदार बात यह है कि ठोस आधारों पर शिकायत करने पर कथित रूप से गुम-शुदा रहने वाली ऐसी आदेशिका अचानक कहीं से प्रकट भी हो जाती है। यानि, उसकी नकल उपलब्ध करा दी जाती है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि बीच की अवधि में आदेशिका कहाँ और कैसे और क्यों गायब रही?
उल्लेखनीय यह है कि ये, धोखे या चूक से, होने वाली गिनती की घटनाएँ नहीं हैं। ये तो आयोग की नीयत के इक्के-दुक्के नमूने भर हैं। खुद डॉ० ज्योति प्रकाश के साथ ऐसा केवल एक बार नहीं घटा है। इससे पहले का उनका सबसे ताजा अनुभव मार्च २०१६ का है। तब २९ मार्च के उनके एक और आवेदन के साथ भी यही व्यवहार किया गया था। आयोग कार्यालय की अन्दरूनी नीयत पर गम्भीर सवाल खड़ा करने वाली इस घटना की पहले तो मौखिक शिकायत की गयी और फिर लिखित शिकायत भीमुख्य सूचना आयुक्त के पास ११ जुलाई २०१६ को दर्ज करायी जा चुकी है। किन्तु, ऐसा लगता है कि आयोग के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी है।
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