विनीत नारायण
देश भर में पुलिस कमिश्नर प्रणाली को अपराध नियंत्रण की दवाई समझा जा रहा है जबकि हकीकत में जिन शहरों में पुलिस कमिश्नर प्रणाली को लागू किया गया है वहां पुलिस ने अपराध की पहचान करने का तो काम किया है लेकिन अपराध को नियंत्रित करने में पुलिस का तंत्र बुरी तरह असफल रहा है। देश में पुलिस प्रणाली, पुलिस अधिनियम 1861 पर आधारित है। आज भी ज्यादातर शहरों में पुलिस प्रणाली इसी अधिनियम से चलती है। लेकिन कुछ शहर पहले उत्तर प्रदेश में लखनऊ और नोयडा में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू की गई थी।दावा यह किया गया था कि इसमें अपराध को रोकने और कानून व्यवस्था सुधारने में लाभ होगा,पर असल में हुआ क्या। पुलिस व्यवस्था में पुलिस कमिश्नर सर्वोच्च पद होता है। वैसे ये व्यवस्था अंग्रेजों के जमाने की है जो तब कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में ही हुआ करती थी। जिसे धीरे धीरे और राज्यों में लाया गया।
भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 के भाग (4) के तहत हर जिलाधिकारी के पास पुलिस पर नियंत्रण रखने के कुछ अधिनियम होते हैं। साथ ही, दंड प्रक्रिया संहिता(सीआरपीसी) एक्जुकेटिव मैजिस्ट्रेट को कानून और व्यवस्था को विनियमित करने के लिए कुछ शक्तियां भी प्रदान करता है। साधारण शब्दों में कहा जाए तो पुलिस अधिकारी कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र नहीं है। वह आकस्मिक परिस्थितियों में डीएम या मंडल कमिश्नर या फिर शासन के आदेश के तहत ही कार्य करते हैं। परंतु पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू हो जाने से जिलाधिकारी और एग्जीक्यूटिव मैजिस्ट्रेट के अधिकार पुलिस अधिकारियों को ही मिल जाते हैं। जिससे वह किसी भी परिस्थिति में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र रहता है।
बड़े शहरों में अक्सर आपराधिक गतिविधियों की दर भी उच्च होती है। ज्यादातर आपातकालीन परिस्थितियों में लोग उग्र हो जाते हैं। क्योंकि पुलिस के पास तत्काल निर्णय लेने के अधिकार नहीं होते। कमिश्नर प्रणाली में पुलिस प्रतिबंधात्मक कार्रवाई के लिए खुद ही मैजिस्ट्रेट की भूमिका निभाती है। इस सिस्टम में पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी के पास सीआरपीसी के तहत कई अधिकार आ जाते हैं और वह कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र होता है। साथ ही साथ कमिश्नर सिस्टम लागू होने से पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही भी बढ़ जाती है।हर दिन के अंत में पुलिस कमिश्नर, जिला पुलिस अधीक्षक, पुलिस महानिदेशक को अपने कार्यों की रिपोर्ट अपर मुख्य सचिव (गृह मंत्रालय) को देनी होती है। इसके बाद ये रिपोर्ट मुख्य सचिव को दी जाती है।
पुलिस आयुक्त शहर में उपलब्ध स्टाफ का उपयोग अपराधों को सुलझाने, कानून और व्यवस्था को बनाए रखने, अपराधियों और असामाजिक लोगों की गिरफ्तारी, ट्रेफिक सुरक्षा आदि के लिए करता है। साथ ही साथ पुलिस कमिश्नर सिस्टम से त्वरित पुलिस प्रतिक्रिया, पुलिस जांच की उच्च गुणवत्ता सार्वजनिक शिकायतों के निवारण की उच्च संवेदनशीलता, प्रौद्योगिकी का अधिक से अधिक उपयोग आदि भी बढ़ जाता है।
उत्तर प्रदेश में नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन और उससे भड़की हिंसा के समय ये देखा गया था कि कई जिलों में एसएसपी व डीएम के बीच तालमेल नहीं था। इसीलिए भीड़ पर काबू पाने में वहां की पुलिस नाकामयाब रही। इसके बाद ही सुश्री मायावती के शासन के दौरान 2009 से लंबित पड़े इस प्रस्ताव को गंभीरता से लेते हुए योगी सरकार ने पुलिस कमिश्नर व्यवस्था को लागू करने का विचार बनाया। सवाल यह आता है कि इस व्यवस्था से क्या वास्तव में अपराध कम हुआ। जानकारों की मानें तो कुछ हद तक अपराध रोकने में ये व्यवस्था ठीक है जैसे दंगों के समय लाठीचार्ज करना हो तो मौके पर मौजूद पुलिस अधिकारी को डीएम से अनुमति नहीं लेनी पड़ेगी। इसके साथ ही कुछ अन्य धाराओं के तहत जैसे धारा 144 लगाने, कर्फ्यु लगाने, 151 में गिरफ्तार करने, 107।16 में चालान करने जैसे कई अधिकार भी सीधे पुलिस को मिल जाते हैं।
प्रायः देखा जाता है कि यदि किसी मुजरिम को गिरफ्तार किया जाता है तो साधारण पुलिस व्यवस्था में उसे 24 घंटों के भीतर डीएम के समक्ष पेश करना अनिवार्य होता है। दोनों पक्षों को सुनने के बाद डीएम के निर्णय पर ही मुजरिम दोषी है या नहीं ये तय होता है। लेकिन कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस के आला अधिकारी ही ये तय कर लेते हैं कि मुजरिम को जेल भेजा जाए या नहीं।
चौंकाने वाली बात ये है कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े के अनुसार जिन जिन शहरों में ये व्यवस्था लागू हुई है वहां प्रतिलाख व्यक्ति अपराध की दर में कोई कमी नहीं आई है। मिसाल के तौर पर जयपुर में 2011 में जब ये व्यवस्था लागू हुई उसके बाद से अपराध की दर में 50 प्रतिशत की दर तक बढ़ोत्तरी हुई है। 2009 के बाद से लुधियाना में यही आंकड़ा 30 प्रतिशत है। फरीदाबाद में 2010 के बाद से ये आंकड़ा 40 प्रतिशत से अधिक है। गुवाघाटी में 2015 में जब कमिश्नर व्यवस्था लागू हुई तो वहीं भी 50 प्रतिशत तक अपराध दर में वृद्धि हुई है।
ब्यूरो के आंकड़ों से ये पता चलता है कि कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए लोगों में से दोष सिद्धि दर में भी भारी गिरावट आई है। पुणे में 14.14 प्रतिशत, चेन्नई में 7.97 प्रतिशत, मुंबई में 16.36 प्रतिशत, दिल्ली में 17.20 प्रतिशत,बेंगलुरु में 17.32 वहीं इंदौर में जहां सामान्य पुलिस व्यवस्था है वहां इसकी दर 40.13 प्रतिशत है। यानि पुलिस कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस द्वारा नाहक गिरफ्तार किए गए लोगों की संख्या दोषियों से काफी अधिक है।
जिस तरह आनन फानन में सरकार ने बिना गंभीर विचार किए कृषि कानूनों को लागू करने के बाद उन्हें वापस लिया, उसी तरह देश के अन्य शहरों में पुलिस व्यवस्था में बदलाव लाने से पहले,सरकार को इस विषय में जानकार लोगों के सहयोग से इस विषय पर गंभीर चर्चा कर ही निर्णय लेना चाहिए। गृहमंत्री अमित शाह को विशेषज्ञों की एक टीम गठित कर इस बात पर अवश्य गौर करना चाहिए कि आंकड़ों को अनुसार पुलिस कमिश्नर व्यवस्था से अपराध घटे नहीं बल्कि बढ़े हैं और निर्दोष नागरिकों को नाहक प्रताड़ित किया गया है।
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