
भरतचन्द्र नायक……
लोककल्याणकारी राज्य में उत्पाद उत्पादकों, वितरकों और विचैलियों से आम उपभोक्ताओं को रक्षा कवच के लिए सरकारें वैद्यानिक कवच प्रदान करती है। उपभोक्ता संरक्षण कानूनों की रचना का यही उद्देश्य है। एमआरपी की व्यवस्था की गई, लेकिन एमआरपी की आड़ में ऐसी लूट आरंभ हो गई कि एमआरपी पर मनमाना रिवेट दिया जाने लगा। गोया एमआरपी भी लूट का जरिया बन गई। ऐसे में केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण मंत्रालय की यह पहल उत्साहवर्द्धक लगती है कि सरकार आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं के दाम तय करेगी। खुदरा बाजार में दाल, दूध, चीनी, खाद्य तेलों और दूसरी वस्तुओं की कीमतों को लेकर एक कड़े कानून की उम्मीद की जा रही है। आशा की जाती है कि मौजूदा हालात में पेक्ड और खुली वस्तुओं के मूल्यों का अंतर घट जायेगा। यदि यह होता है तो बाजार में मूल्यों को लेकर क्रांतिकारी बदलाव आयेगा। लेकिन देखने में आया है कि मूल्य निर्धारण का संकेत मिलते ही घी के उत्पादकों ने घी के दामों में 30 से 40 प्रतिशत मूल्य वृद्धि करके त्योहारों का स्वाद कसैला कर दिया है। यह बात तय है कि सिर्फ कानून ही इस धींगा मस्ती पर नियंत्रण नहीं कर सकता उपभौकता संरक्षण यदि ऐसा होता तो 1860 में बने कानून अपनी प्रासंगिकता नहीं खो देते। उपभोक्तावाद का पलड़ा बाजारवाद से भारी करना होगा। इसके लिए भी हमें राष्ट्र की चेतना को जगाना होगा। कानून के प्रति सम्मान की भावना और दंड का भय पैदा करना होगा। छत्रपति शिवाजी ने एक वक्त आधिकारियों को कहा उनकी आज्ञा के बिना दुर्ग का प्रवेश द्वार नहीं खोला जायेगा। इसी बीच छत्रपति के पुत्र ने प्रवेश द्वार खोलने की इच्छा व्यक्त की और सेना के अधिकारी ने महाराज के पुत्र की इच्छा पूरी कर दी। छत्रपति शिवाजी ने सेनापति और स्वयं के पुत्र को बंदी बनाकर न्यायपति के समक्ष पेश करने का आदेश दिया जहां दोनों को दंड मिला।
आर्थिक उदारीकरण से विश्व में आर्थिक प्रक्रिया तेज हुई है। विकास का तानाबाना बुना गया है। लेकिन जो भावना एकात्म मानवदर्शन में निहित है उसका प्रादुर्भाव न तो पूंजीवाद से होता दिखता है और न वामपंथ से। ‘‘सरवाईबिल आफ दी फिटेस्ट’’ की कहावत चरितार्थ हुई है। उत्पाद के उत्पादन की प्रक्रिया, इसमें शामिल अवयव, इनका मानव पर प्रभाव, इनकी लागत और इनका विक्रय मूल्य फैक्टरियों के सूचना पट पर हो यह ताकीद परोक्ष में कानून की भावना है। लेकिन देखने की बात है कि इसका पालन बिरले स्थान पर ही होता हैं हैरत की बात है यह ताकीद यदि तत्कालीन यूनियन कार्बाइट जैसे कारखाने ने भी अपनाई होती तो भोपाल के नाम दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी सदा के लिए नत्थी नहीं हो जाती। लाखों जिन्दगियां तबाही से बच जाती, उनके इलाज में सुविधा होती आज तक सरकारें और रसायन विश्लेषक इस बात की खोज कर रहे हैं कि यूनियन कारवाईट फैक्टरी से लीक गैस निकली और हजारों बेगुनाह लोगों को मौत की नींद सुला गई। उसका किस योग से उत्पादन हो गया और प्राण घातक गैसों से पीड़ित इन्सानों के लिए क्या उपचार कारगर होगा। अंधेरे में ही चिकित्सा जगत मरीजों का इलाज कर रहाह ै। जिस युग में हम पारदर्शिता की बात करते हैं उत्पादक अपने हितों की हिफाजत के लिए इन्सान के जीवन से खिलवाड़ करने में कतई गुरेज नहीं करते। उपभोक्तावाद पर बाजारवाद कितना शिंकजा कस चुका है यह इसकी एक मिसाल हैं।
मिलावट खोरी उद्योग बनी
भारत दुनिया में दुग्ध उत्पादन में शीर्ष पर है। यहां शाकाहार में दूध को पोषण आहार के रूप में प्रतिष्ठा है। दूध-दही अमृत माना जाता हैं देवताओं को भोग में इस्तेमाल होता है। शैशव का पोषण आहार है, लेकिन दूध में मिलावाट शहरों और गांवों में आम बात हो चुकी हैं पहले दूध में पानी मिलाने की शिकायत पर गौर होता था लेकिन अब पानी में दूध मिलाना आम हो चुका है और उपभोक्ता मौन है, क्योंकि जायें तो जायें कहाॅं?
फूड सिक्योरिटी एंड स्टेंडर्ड अथारिटी आफ इंडिया का अध्ययन बताता है कि 68 प्रतिशत दूध मिलावटी हैं इसमें 33 प्रतिशत वह दूध है जो कंपनियां ब्रांड के साथ पैकेट में बंद करके बेचती हैं। सवाल उठता है कि कानून और कानून के रखवाले होते हुए हम इस मिलावट खोरी को रोक क्या नहीं पा रहे हैं? दूध में डिटर्जेन्ट, काॅस्टिक सोडा, ग्लूकोज सफेद पेंट और रिफाइन्ड तेल की मिलावट पाई जाती है। यूरिया और ग्लूकोज मिलाकर बनाये गये दूध को भी जांच दलों ने पकड़ा है। 2013 में एक जनहित याचिका की सुप्रीम कोर्ट में सुनवायी हुई है। खंडपीठ ने कहा था कि दूध की मिलावट करने वालों को उम्र कैद दी जाना चाहिए। मानव स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वालों के विरूद्ध कड़े दंड के लिए राज्यों को कानून में संशोधन करना चाहिए। इसपर कुछ राज्यों उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा में अमल हुआ। उम्र कैद का संशोधन हुआ है, लेकिन अभी भी कुछ राज्यों में फुड सिक्यूरिटी एंड स्टेंडर्ड एक्ट में मिलावट पर अधिकतम 6 माह की सजा का प्रावधान है।
उपभोक्ता के हित में बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है। अनुचित व्यापार व्यवहार वाले झूठ विज्ञापनों की भरमार है। इसमें बड़े-बड़े किरदारों को ब्रांड ऐम्बेसेडर बनाकर भोलीभाली जनता को गुमराह किया जाता है। भारी रकम लेकर बड़े-बड़े फिल्मी सितारे, खिलाड़ी, प्रतिष्ठित व्यक्ति विज्ञापनों में अपनी साख और प्रतिष्ठा को बट्टा लगाने में नहीं शर्माते हैं। एक तेल के विज्ञापन पर जनहित याचिका में उत्पादक के साथ ब्रांड एम्बेसेडर को भी न्यायालय कड़ी चेतावनी दे चुका है, लेकिन चांदी की चमक में नैतिकता काफूर हो चुकी है।
सबसे दुखद और त्रासद बात यह है कि इन मिलवट खोरों के कारण राष्ट्र क नाम कलुषित हो रहा है। भारत की गिनती दुनिया के सर्वाधिक मिलावटखोर कुपोषित देशों में होने लगी है। खेत से लेकर बाजार तक खाद्य पदार्थाें को लगातार प्रदूषित करने की होड लगी है। हम धर्म-अधर्म को लाभ के कारण भूल चुके हैं। खैरात में भी मिलावट करके कौन से पुण्य कमा रहे हैं इस बात से भी व्यापारी उत्पादक तनिक भी भयभीत नही हैं। हाल ही में भोपाल में अतिवृष्टि से बाढ़ में निचली बसाहटों के रहवासी सबकुछ लुटा बैठे। राज्य सरकार ने पीड़ित परिवारों को पचास-पचास किलों राशन देकर राहत की व्यवस्था की, नागरिक आपूर्ति निगम ने तुरत-फुरत वितरण के लिए भण्डार खोल दिया। लेकिन पीड़ित परिवारों चेहरों पर शिकुन तब आ गई जब उन्होंने पाया कि गेहूॅ में मिट्टी के बाजाय मिट्टी के ढेले थे। राजधानी का मामला ठहरा। उच्च स्तरीय जांच का आदेश दिया गया। जांच कमेटी बैठी, सक्रिय हुई इसके बाद पता नही ंचला कि क्या हुआ। मिलावट से निपटने में सरकार, उपभोक्ता मंत्री की भी जिम्मेदारी है, लेकिन कंपनियां, उत्पादक, विक्रेता भी अपनी जिम्मेेवारी से मुकर नहीं सकते हैं।
मिलावट महीना और मौज
लोकतंत्र प्रशासन का सर्वोत्तम तंत्र है, लेकिन इसकी उदारता को लाचारी में बदला जा रहा है, जिससे प्रशासन बिगडै़ल हो गया है। कानून जनहित के संरक्षण के लिए होता है लेकिन वह विफल हो रहा है। जिन्हें उपभोक्ता कवच बनने का दायित्व है वे पहले उनकी फिक्र करते हैं जो हरमाह ‘‘महिना’’ इनाम तोहफा भेंट करते हैं। अदालतें जब तब कई फैसले सुनाकर उपभौक्ता को राहत पहुंचाती है, लेकिन अदालती प्रक्रिया भी कठिन और व्यय साध्य है। जब तक इसे सरल नहीं बनाया जाता न्याय पालिका से भी उपभोक्ता हित संरक्षण की अपेक्षा दिवा स्वप्न ही है।
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