सुरिंदर सूद
किसानों की समस्याओं पर गठित एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय आयोग (नैशनल कमीशन ऑन फार्मर्स) ने कृषि क्षेत्र को राज्य सूची से स्थानांतरित कर समवर्ती सूची में रखने की सिफारिश की थी। अफसोस की बात है कि इस महत्त्वपूर्ण सिफारिश पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है, जितनी जरूरत थी। कृषि विषय अगर समवर्ती सूची में लाया जाता है तो इससे कृषि एवं किसानों से जुड़े मसलों पर केंद्र सरकार अपेक्षाकृत अधिक निर्णायक कदम उठा पाएगी, साथ ही राज्य सरकारों के अधिकारों पर भी कोई खास असर नहीं होगा। फिलहाल केंद्र को उन कृषि विकास एवं किसानों के लिए कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए भी राज्य सरकारों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिनका वित्त पोषण यह स्वयं कर रहा है।
वास्तव में कृषि क्षेत्र को राज्य सरकार की मर्जी पर छोडऩा भारत सरकार अधिनियम, 1935 की ‘देन’ कही जा सकती है। उस समय इसके पीछे तर्क यह दिया गया था कि चूंकि, कृषि क्षेत्र विशेष पेशा है और मुख्य तौर पर स्थानीय कृषि-पारिस्थितिकी वातावरण और मूल स्थानों पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है, इसलिए प्रांतीय सरकारें इस क्षेत्र की बेहतर देखभाल कर सकती हैं। उन दिनों कृषि कार्य केवल खाद्य जरूरतें पूरी करने के लिए किए होते थे और खाद्यान्न की खरीद-बिक्री सीमित स्तर पर होती थी। किसानों से जुड़ीं समस्याएं भी स्थानीय स्तर तक ही सीमित थीं।
आधुनिक समय में परिस्थितियां काफी बदल गई हैं। आधुनिक समय में कृषि क्षेत्रीय सीमाओं में बंधा नहीं रह गया है और अब राज्यों के बीच व्यापारिक सौदे इसका हिस्सा बन गए हैं। इतना ही नहीं, कृषि अब अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों खासकर व्यापार, उद्योग और सेवा से भी जुड़ गया है। अब कोई एक राज्य कृषि के संबंध में कोई निर्णय लेता है तो इसका प्रभाव दूसरे राज्यों की कृषि-अर्थव्यवस्था पर भी देखा जाता है। लिहाजा कृषि क्षेत्रों पर राज्यों के बेरोकटोक नियंत्रण से समस्याएं खड़ी हो रही हैं और इनका प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
स्वामीनाथन समिति की पांचवीं और अंतिम रिपोर्ट अक्टूबर 2006 में जारी हुई थी, जिसमें कृषि को समवर्ती सूची में स्थानांतरित करने का प्रस्ताव दिया गया था। रिपोर्ट में इस ओर ध्यान दिलाया गया था कि फसलों का समर्थन मूल्य, संस्थागत साख और कृषि-जिंस कारोबार-घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय- आदि से जुड़े निर्णय केंद्र सरकार द्वारा लिए जाते हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण कानून, जिनका कृषि क्षेत्र पर व्यापक असर पड़ा है, संसद ने बनाए हैं, जो केंद्र की देख-रेख में काम करते हैं। पौधे की नस्लों की सुरक्षा एवं किसानों के अधिकार कानून, जैविक विविधता कानून और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं। इनके अलावा ग्रामीण ढांचा, सिंचाई एवं अन्य कृषि विकास कार्यक्रमों के लिए ज्यादातर राशि केंद्र ही मुहैया कराता है। आयोग ने कहा, ‘कृषि समवर्ती सूची में आने से किसानों की सेवा और कृषि की संरक्षा केंद्र एवं राज्य दोनों का उत्तरदायित्व बन जाएंगे।’
कृषि को समवर्ती सूची में लाने की सिफारिश के पीछे कुछ और कारण भी हैं। कुछ राज्य सरकारों के असहयोग करने से किसानों की समस्याएं दूर करने एवं उनकी आय बढ़ाने के लिए शुरू की गईं केंद्र की कुछ योजनाएं अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही हैं। उदाहरण के लिए फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम किसान) और प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम आशा) कुछ ऐसी ही योजनाएं हैं, जिनका पूर्ण लाभ नहीं मिल पा रहा है। इतना ही नहीं, कृषि विपणन, जमीन पट्टा, अनुबंध आधारित कृषि आदि से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण सुधार भी कुछ खास बदलाव नहीं ला पा रहे हैं। एक बार फिर कुछ राज्यों का असहयोग इसके लिए जिम्मेदार रहा है।
किसानों की आय दोगुनी करने की संभावनाएं तलाशने के लिए गठित दलवाई समिति ने भी कृषि विपणन को समवर्ती सूची में रखने पर जोर दिया है। समिति के अनुसार इससे कृषि मंडियों में व्यापक सुधार, इनकी परिचालन क्षमता में इजाफा और ग्रामीण विपणन तंत्र के विस्तार में केंद्र सरकार को आसानी होगी। दलवाई समिति की रिपोर्ट ने कृषि को समवर्ती सूची में स्थानांतरित करने की दलील और मजबूत कर दी है। इससे पहले भी किसी विषय को एक सूची से दूसरी सूची में डालने के लिए संविधान में संशोधन हो चुके हैं। उदाहरण के लिए 1976 में 42वें संशोधन में वन एवं वन्यजीव सुरक्षा सहित पांच विषय राज्य से निकालकर समवर्ती सूची में डाल दिए गए। विषय की महत्ता और इससे मिलने वाले संभावित लाभों को देखते हुए सभी राजनीतिक दलों को कृषि को राज्य सूची से स्थानांतरित कर समवर्ती सूची में रखने के लिए एक और संविधान संशोधन को समर्थन देना चाहिए। कृषि और किसान दोनों इससे लाभान्वित होंगे।
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