भाजपा को भारी पड़ा सिंधिया पर हमला करना

भोपाल,(डॉ.अजय खेमरिया)। ग्वालियर चंबल संभागों में कुल मिलाकर 34 विधानसभा की सीट्स है इस बार यहां बीजेपी को जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ा है 2013 की तुलना में 13 सीट बीजेपी ने गंवा दी बसपा को भी एक सीट का नुकसान हुआ है।मुरैना ओऱ अशोकनगर जिलों में बीजेपी का सफाया हो गया।चुनाव परिणाम के आंकड़ो को अगर खंगाला जाए तो कुछ मोटे कारण निकलकर सामने आते है बीजेपी की इस पराजय के:
(1)एट्रोसिटी एक्ट
(2)खराब प्रत्याशी चयन
(3)बीजेपी का संगठन स्तर पर उदासीनता
(4)चुनाव प्रबन्धन के नाम पर कोई मैकेनिज्म का न होना जैसा 2003,2008,2013 में नजर आता था।
(5)बीजेपी का पहली बार कांग्रेस कल्चर में अवतरित होना जहाँ हर सीट पर बीजेपी ने बीजेपी को हराया।

सबसे पहले बात श्योपुर जिले की जहां बीजेपी के दुर्गालाल विजयवर्गीय बुरी तरह हारे है श्योपूर सीट से यहां कांग्रेस का टिकट सिंधिया जी के विरोध के बाबजूद बसपा से आये बाबू जंडेल मीणा को मिला पहली बार मीणा जाति ने यहां एकजुट होकर वोट किया जो लगभग 45 हजार है संख्या में। कांग्रेस के नेता चाह कर भी बाबू जंडेल का नुकसान नही कर पाये।मीणा के अलावा मुस्लिम और दलित आदिवासी भी कांग्रेस की बम्पर जीत का आधार बनें।इसके अलावा पूरी बीजेपी ने भी दुर्गालाल को निपटाने का काम किया, बीजेपी के लगभग सभी नेता टिकट बदलबाने के लिये अंतिम समय तक लगे रहे लेकिन पार्टी ने टिकट नही बदला परिणाम सामने है।संभव है टिकट बदलने से यहां इतनी बड़ी हार न हो पाती।जिले की दूसरी सीट है विजयपुर यहां जो उलटफेर हुआ वह कतई चौकाने वाला नही है कांग्रेस के कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष रामनिवास रावत की हार पहले से ही तय थी वे खुद साल भर पहले ही क्षेत्र छोड़कर सबलगढ में सक्रिय थे लेकिन ऐनवक्त पर उनका टिकट नही बदला गया।रामनिवास रावत की हार उनके ही जमाये सिस्टम ने भी तय कर दी बसपा से लड़े बीजेपी नेता बाबूलाल मेवरा को लेकर चरचा थी वे रामनिवास के सबलगढ़ जाते ही कांग्रेस टिकट पर विजयपुर से लड़ सकते है लेकिन सब कुछ गड़बड़ा गया और बाबूलाल मेवरा हाथी की सवारी कर गए यही एक बड़ा फ़ेक्टर रहा रामनिवास रावत की हार का ।आमने सामने की फाइट में वे लगातार दो बार बीजेपी के सीताराम को हराते आ रहे थे लेकिन इस बार बीजेपी के नाराज वोटर और कार्यकर्ताओं की फ़ौज बाबूलाल के साथ जुट गई और दोनो को विरोधी लॉबी सीताराम को जीता ले गई।रामनिवास के लिये जीवन का सबसे बड़ा सदमा है क्योंकि वे इस सरकार में सिंधिया कोटे से सबसे ताकतवर मंत्री होते महेंद्र सिंह कालूखेड़ा के निधन के बाद रामनिवास ही उनके विकल्प थे लेकिन उनकी हार ने खुद के साथ सिंधिया का गणित भी बिगाड़ दिया।रामनिवास की अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1993 की सरकार में वे मंत्री रह चुके है।उनकी हार का बुनियादी कारण 5 बार की एन्टीनकम्बेंसी ही है।

(1)अब मुरैना जिले की चर्चा करें तो सबसे पहली सीट है सबलगढ।
सबलगढ़ में बीजेपी प्रत्याशी चयन में भूल कर गई एक ही परिवार मेहरबान रावत को 30 साल से लगातार टिकट आबंटन नुकसानदेह साबित हुआ।एक ही रावत केंडिडेट होने के बाबजूद बीजेपी का तीसरे नम्बर पर रहना परिवार की खिलाफत का फैक्टर क्रिएट करता है यहां से कांग्रेस ने कुशबाह जाति पर दांव खेला जो सफल साबित हुआ कमलनाथ के प्रभावी भूमिका में होने से सुरेश चौधरी परिवार की नाराजगी भी कम हो गई सवर्ण खासकर ब्राह्मण,वैश्य,ठाकुर शुरू से ही मेहरबान रावत के विरुद्ध थे पहले उन्होंने बसपा को सपोर्ट किया फिर कुछ लोग कांग्रेस के पक्ष में आये नतीजतन बीजेपी के साथ केवल रावत और अन्य परम्परागत कैडर वोट रह गए यहां जादोन्न ठाकुरों,ब्राह्मण,और वैश्य वर्ग ने बीजेपी को अपना समर्थन नही दिया।एट्रोसिटी से ज्यादा रिएक्शन रावत परिवार के विरुद्ध था पार्टी अगर यहाँ बीरसिंह रावत,कमल रावत,या बादशाह रावत को टिकट देती तो शायद ये परिणाम नही आता ।बीजेपी के जिलाध्यक्ष खुद यहां से दावेदार थे।सीपी शर्मा,विनोद जादोन्न जैसे नेता मैनेज किये जा सकते थे पर संगठन सिर्फ नाम का नजर आया।पिछला चुनाव मेहरबान सिंह ये कहकर जीते थे कि ये उनका अंतिम चुनाव है इसके बाबजूद पार्टी ने बदलाब की जगह इसी परिवार को टिकट देकर रावत समाज मे भी अपना बेस गंवा दिया।

(2)जिले की दूसरी सीट है जोरा।पहली बार बीजेपी के सूबेदार सिंह रजौधा जीते थे यहाँ2013 में उनकी हार हुई है इसके बाबजूद इस सीट पर बीजेपी के पास रजौधा का कोई विकल्प नही था पिछले चुनाव में उन्हें जिन त्यागी ब्राह्मणो ने खुलकर सहयोग किया था वे इस बार बनबारी शर्मा के साथ हो गए जो 2013 में नजदीकी मुकाबले में हार गए थे इसके अलावा किरार वोटर का एकमुश्त बसपा के मनीराम के साथ जाना भी यहॉ बीजेपी के लिये नुकसान कर गया।कैलारस और जोरा के व्यापारी वर्ग में भी बीजेपी का वोट कट गया ,कुशवाह वोट सबलगढ़ के कुशबाह के चलते कांग्रेस की तरफ गया इस तरह बीजेपी के रजौधा बाहर हो गए।

(3)मुरैना की सीट पर मंत्री रुस्तम सिंह की हार पर किसी को आश्चर्य नही है मुरैना में दीवार पर मोटे हरूफ में लिखी इस हार को अनपढ भी पढ़ रहा था पर बीजेपी ने जानकर भी क्यों नही पढा ?ये समझ से परे है।ब्राह्मण, वैश्य दोनो समाज निजी रूप से रुस्तम सिंह के खिलाफ थी अगर रुस्तम सिंह की जगह हमीर पटेल या अनिल गोयल बीजेपी केंडिडेट होते तो मामला उलट सकता था यहां सबसे बड़ा फैक्टर रुस्तम सिंह ही थे ।

(4)सुमावली की सीट पर बीजेपी के पास अजब सिंह कुशवाह के अलावा कोई अच्छा विकल्प नही था उन्होंने टक्कर भी ठीक दी लेकिन किरार और ब्राह्मण वोटर बीजेपी को उस अनुपात में नही मिला जितना जीत के लिये आवश्यक था किसानों की कर्जमाफी यहां एक फैक्टर रही है।दलित वोट भी बड़ी संख्या में बसपा से कटकर कांग्रेस की तरफ चला गया।

(5)अंबाह में बीजेपी को सीधा नुकसान ब्राह्मण और ठाकुर बिरादरी ने पहुचाया इन्ही ने नेहा किन्नर को लड़ाया एट्रोसिटी का यहाँ ज्यादा असर था फिर व्यापारी वर्ग ने भी अंबाह पोरसा में बीजेपी का साथ नही दिया।

(6)दिमनी में कांग्रेस का केंडिडेट बहुत एक्टिव था उसे सभी वर्गों का समर्थन मिला है बीजेपी यहां भी केंडिडेट के मामले में चूक कर गई अगर ब्राह्मण चेहरे या फिर केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर के बेटे को लड़ाया जाता तो परिणाम बदल सकता था यहाँ तोमर ठाकुरों ने भी इस बार बीजेपी का विरोध किया है।एट्रोसिटी यहां भी एक बड़ा फैक्टर रहा है।

*मुरैना जिले में बीजेपी की इस पराजय का मूल कारण है दो बड़ी जातियों की नाराजगी ब्राह्मण और वैश्य। 2013 और 2018 में बीजेपी ने किसी भी ब्राह्मण को टिकट नही दी जबकि काँग्रेस ने इस बार 6 मे से 2 सीटों पर ब्राह्मणो को उतारा।वैश्य जाति में केएस के मालिक रमेश गर्ग की नाराजगी ने मुरैना,अंबाह,सबलगढ़ ओऱ जोरा सीटों पर खेल खराब कर दिया।बीजेपी का संगठन पूरे चुनाव में तमाशबीन नजर आया भगवान और केंडिडेट भरोसे हुए सभी जगह चुनाव।गुर्जर तो बीजेपी के परम्परागत रूप से यहां विरोधी थे ही।साथ ही बसपा का कोर वोटर पूरे जिले में कांग्रेस की तरफ ट्रांसफर हुआ और 2 अप्रेल की घटना के बाद सबसे ज्यादा पुलिस केस और जेल इस जिले में ब्राह्मण,वैश्य,ठाकुरों ने ही झेले थे इन सभी सम्मिलित कारणों ने जिले से बीजेपी के सफाये की पटकथा लिख दी थी।

……………….भिण्ड……………. .
(1)भिण्ड की पराजय अप्रत्याशित नही है जिस तरह से अंतिम समय मे यहां टिकट फाइनल किया गया वह हार का कारण साबित हुआ बसपा प्रत्याशी संजू कुशबाह 5 साल से सक्रिय थे विधायक नरेंद्र कुशबाह के बागी होने,कांग्रेस के ब्राह्मण केंडिडेट आने से भिण्ड का पूरा गणित ही बीजेपी के खिलाफ हो गया था।90 फीसदी संगठन नरेंद्र कुशबाह के साथ था जो सिर्फ बीजेपी को हराने के लिये मैदान में थे।कांग्रेस की ठाकुर लॉबी ने भी चौधरी साब को हराने के लिये मेहनत की ।खुद चौधरी अपना पारिवारिक वजूद बरकरार नही रख पाए।भिण्ड की सीट पर चंबल में अकेली सीट थी जहां बसपा का वोट उसके साथ मजबूती से जुड़ा रहा।

(2)अटेर की सीट पर बीजेपी के अरविंद भदौरिया इस बार जीतने में इसलिये सफल रहे क्योंकि यहां कांग्रेस और ब्राह्मण लॉबी में हेमन्त कटारे की जमकर खिलाफत की वहीँ भदौरिया बैल्ट में 2013 और उपचुनाव की तरह भीतरघात नही हो पाया,भाजपा के बड़े नेताओं की कम से कम भदौरिया ठाकुरों ने नही सुनी इसके अलावा हेमन्त का लगातार क्षेत्र से गायब रहना, उनका खराब व्यवहार भी उनकी हार का आधार बना है।

(3)मेहगांव की सीट पर ओपीएस भदौरिया की जीत पहले से ही तय थी पिछली बार वे नजदीकी मुकाबले में हारे थे बीजेपी ने यहां भी केंडिडेट चयन में चूक की अच्छा होता यहाँ केपीएस भदौरिया को टिकट दी जाती वे अपने धनबल से भदौरिया वोटर्स में डिवीजन करा लेते बल्कि अन्य समाज का वोट भी ले सकते थे।राकेश शुक्ला इस मल्टी कास्ट सीट पर पहले दिन से ही फिट नही थे बसपा ने कौशल तिवारी को टिकट देकर उनकी सँभाबना और कमजोर कर दी। लोधी बघेल गुर्जर जैसी जातियों का समर्थन बीजेपी को नही मिला।राकेश शुक्ला 2013 में निर्दलीय लड़े थे उन्हें इसके बाबजूद बीजेपी टिकट देना गलत निर्णय साबित हुआ।

(4)गोहद में भी केंडिडेट का सिलेक्शन गलत साबित हुआ चुनाव पूर्व एट्रोसिटी का सबसे ज्यादा हल्ला इसी सीट पर था कोई भी लाल सिंह आर्य की जीत की बात स्वीकार्य करने तैयार नही था।यहां विशुद रूप से एट्रोसिटी और माई के लाल फैक्टर ने बीजेपी को हराया है।

(5)लहार की सीट पर डॉ गोविंद सिंह की जीत पहले से ही तय थी उनका जीवंत सम्पर्क इसका आधार है बीजेपी के रसाल सिंह अच्छे केंडिडेट थे लेकिन गुड्डू शर्मा ने बगाबत कर बीजेपी की सँभाबना को खत्म कर दिया गुड्डू शर्मा की बगाबत गोविंद सिंह को जिताने के लिये ही थी जिसे आसानी से हर कोई समझ रहा था।
भिण्ड जिले में ऐसा पहली बार हुआ है जब कोई ब्राह्मण विधायक चुनकर नही आया है।बीजेपी के दोनों केंडिडेट राकेश शुक्ला और राकेश चौधरी दोनो हार गए और रमेश दुबे को जिस काम के लिये टिकट दी गई थी उसे उन्होंने भी पूरा कर दिया। इसी तरह मुरैना जिले में भी पहली बार हुआ है जब कोई ठाकुर विधानसभा नही पहुँचा है।
भिण्ड-मुरैना में बीजेपी की हार एट्रोसिटी, माई के लाल,खराब केन्डिडेचर के चलते हुई है।मुरैना में ब्राह्मण,वैश्य,ठाकुर,जाटव गुर्जर,किरार, जातियां उसके खिलाफ रही है।
भिण्ड में ठाकुर,वैश्य,जाटव,ब्राह्मणो के अलावा बघेल,लोधी,कौरव ने भी बीजेपी का साथ नही दिया।सिंधिया का आक्रमक प्रचार और बीजेपी का अतिशय रक्षात्मक रुख भी हार के ठोस कारणों में एक है।

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