नरवाई के नाम पर किसानों की प्रताड़ना

नरवाई प्रबंधन पर सरकार के कड़े फैसलों से मचा हाहाकार


सरकार ने नरवाई प्रबंधन पर कई कड़े फैसले लिए हैं। सरकार का कहना है कि नरवाई जलाने से जहां पर्यावरण प्रदूषण होता है वहीं मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी क्षीण हो जाती है। इसलिए एक मई के बाद यदि कोई किसान अपने खेतों में नरवाई जलाता पाया जाएगा तो उस पर कड़ी कार्रवाई करते हुए दंड वसूला जाएगा। यही नहीं ऐसे चिन्हित किसानों की किसान सम्मान निधि बंद कर दी जाएगी। समर्थन मूल्य पर उस किसान की फसल भी नहीं खरीदी जाएगी। इस तरह के कड़े प्रतिबंधात्मक कदमों से खेतों की नरवाई का प्रबंधन किया जाएगा। इससे जहां जमीन की उर्वरा शक्ति को बचाया जा सकेगा वहीं जानवरों के लिए भूसा भी बचाया जा सकेगा। कई जिला कलेक्टरों ने तो आगे बढ़कर किसानों से जुर्माना वसूलना भी शुरु कर दिया है। सरकार हर साल कृषि और विभाग और उसके सहयोगी संस्थानों पर लगभग पचास हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च करती है। कृषि प्रबंधन पर तीस हजार करोड़ रुपए, उपार्जन पर बीस हजार करोड़ रुपए ,खेती के मशीनीकरण पर लगभग दो सौ करोड़ रुपए, खर्च किए जाते हैं। इसके अलावा कृषि संबंधी कार्यों पर अन्य सहयोगी विभागों की राशि मिलाकर ये आंकड़ा एक लाख करोड़ रुपयों तक पहुंच जाता है। पिछले डेढ़ दशक में कृषि कर्मण अवार्ड जैसे पुरस्कार हासिल करके मध्यप्रदेश ने देश के कृषि क्षेत्र में डंका बजा दिया है। सिंचाई प्रबंधन पर सरकार हर साल बीस हजार करोड़ रुपयों से अधिक की राशि खर्च करती है। भारी धनराशि खर्च किए जाने और निजी क्षेत्र के इससे कई गुना अधिक निवेश से राज्य की लगभग साढ़े बारह लाख हेक्टेयर जमीनें सिंचित हो चुकी हैं। सरकार हर साल अपने बजट की बड़ी धनराशि सब्सिडी के रूप में किसानी कार्यों पर खर्च करती है। यही कारण है कि आज राज्य की ज्यादातर जमीनें सिंचित हो गई हैं। किसानों ने भी आगे बढ़कर दो से तीन फसलें लेना शुरु कर दिया है। फसल काटे जाने के बाद खेत खाली करने और अगली फसल बोने के बीच बहुत कम समय मिलता है। इतने समय में कृषि अवशेषों का सड़ना गलना संभव नहीं होता है। यही वजह है कि किसानों ने नरवाई जलाने की सस्ती प्रक्रिया अपना ली है। इससे खेत के अधिकतर कृषि अवशेष जल जाते हैं और किसान रोटावेटर चलाकर खेत में हल चला देता है। इस प्रक्रिया में खेत की मिट्टी भी काफी हद तक जल जाती है और कड़ी होती चली जाती है। सरकार और इससे जुड़ा तंत्र नरवाई जलाने से रोकने वाले सरकार के फैसले का समर्थन कर रहा है। ऊपरी तौर पर ये प्रयास सराहनीय भी नजर आते हैं। इसके विपरीत जब कृषि विभाग और सरकारी तंत्र के कार्यों का अवलोकन किया जाए तो गहरी निराशा हाथ लगती है। खेती भले ही निजी क्षेत्र में की जाती हो पर कृषि प्रबंधन का ठेका लेने वाले सरकार के विभाग अपना दायित्व निभाने में बुरी तरह असफल साबित हुए हैं। पिछले पच्चीस सालों में सरकार ने कृषि यंत्रीकरण पर ही लगभग पांच हजार करोड़ रुपयों से अधिक की धनराशि खर्च की है।इसके बावजूद जमीन की जुताई ,कटाई आदि में निजी क्षेत्र की मशीनें ही दायित्व संभाल रहीं हैं। हर साल पंजाब से आने वाले हार्वेस्टर फसलें तो काट देते हैं पर वे नरवाई का भूसा खेत में ही बिखरा देते हैं। कुछ जिला कलेक्टरों ने ऐसे हार्वेस्टर बंद करने और फसलों की कटाई के लिए सुपर सीडर और हैप्पी सीडर जैसी मशीनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने का अभियान चलाया है। बेशक ये नई मशीनें किसानों के लिए सहयोगी हैं सरकार इनका प्रमोशन भी कर रही है। इसके बावजूद सरकार अपनी कमजोरी को स्वीकार करने तैयार नहीं है। हर साल बजट की बड़ी धनराशि खर्च करने के बावजूद राज्य की खेती का मशीनीकरण फिसड्डी बना हुआ है। अपनी अकुशलता को छिपाने के लिए सरकार ने किसानों पर प्रतिबंध लगाना शुरु कर दिया है। ये कदम निश्चित ही किसानों के हित में नहीं है। यदि किसान दो या तीन फसलें लेकर अधिक खाद्यान्न का उत्पादन करना चाह रहा है तो उसे प्रोत्साहित किया जाना जरूरी है। उसे दंडित करके सरकार कृषि विपणन की अपनी अक्षमता को छिपाने का प्रयास अधिक कर रही है। सरकार को अपने फैसले पर नए संदर्भों में विचार करना होगा।

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