-आलोक सिंघई-
पिछले 36 सालों से बीड़ी उद्योग के कथित सहकारीकरण और सुधारों ने राज्य के लाखों मजदूरों को लाचार बना दिया है ।जिन मजदूरों को साल भर बीड़ी बनाने का रोजगार मिलता था वह लगभग समाप्त हो गया है। राज्य को अपने श्रमबल से होने वाली आय समाप्त हो चुकी है। तंबाखू की खपत सिगरेट और गुटखे से जारी है अंग्रेजों की बनाई आईटीसी कंपनी अपनी सिगरेट बेचकर मुनाफा कमा रही है । तेंदूपत्ता मजदूरों को बोनस बांटने का शिगूफा छेड़कर पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और उसके बाद उनके अनुचरों ने सरकारों में शामिल होकर बीड़ी मजदूरों के साथ जो छल किया उसके पटाक्षेप का समय अब नजदीक आ गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आते ही जीरो बैलैंस वाले बैंक खाते खुलवाकर गरीब श्रमिकों को पहली बार बैंकों की चौखट तक पहुंचाया था। अब श्रमिकों के पंजीयन के बाद पीएफ खाते खोलकर मजदूरों का भविष्य सुरक्षित बनाने का प्रयास जारी है। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के मुताबिक देश में रोजगार की संख्या बढ़ी है,ऐसे में मध्यप्रदेश की डाक्टर मोहन यादव सरकार ने सागर में इन्वेस्टर्स समिट का आयोजन करके बीड़ी उद्योग को प्रबंधित करने का जो मन बनाया है वह तारीफ के काबिल लगता है।
तमाम प्रयासों के बावजूद लोगों में धूम्रपान की लत बरकार है । भारत के साथ पाकिस्तान, श्रीलंका,नेपाल, म्यांमार, जैसे कई पडौसी देश भी लोगों की धूम्रपान की जरूरतों को पूरी करने के लिए अपना बाजार खोले बैठे हैं । ऐसे में बीड़ी हमेशा से सिगरेट की राह में अडंगा बनी हुई है । मध्यप्रदेश इस मायने में सौभाग्यशाली है कि इसके जंगलों में तेंदूपत्ता बहुतायत से पाया जाता है। कथित सहकारीकरण के पहले राज्य के जंगलों से लगभग अस्सी लाख मानक बोरा तेंदूपत्ता तोड़ा जाता था। जब से लघुवनोपज संघ ने ये काम संभाला तबसे तेंदूपत्ते के संग्रहण में लगातार गिरवट आती रही है । आज संघ का संग्रहण लक्ष्य ही 16 लाख मानक बोरा बचा है । जंगलों का रखरखाव घटने से तेंदूपत्ते की गुणवत्ता भी धराशायी गई है। ये सारा षड़यंत्र कथित तौर पर आईटीसी कंपनी की छोटी सिगरेट को लाभ पहुंचाने की मंशा से रचा गया था।
स्वर्गीय अर्जुन सिंह जब खुद को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट कर रहे थे तब उन्होंने बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लुटियन गेंग को खुश करने के लिए छोटी सिगरेट का मार्ग प्रशस्त किया था।कांग्रेस के ही उनके करीबी बताते हैं कि कंपनी ने उन्हें अपना पार्टनर बना लिया था।ऐसे में राज्य को अपना कारोबार गंवाने की मंहगी कीमत चुकानी पड़ी। उनके बाद आए तमाम मुख्यमंत्रियों ने इस बर्रों के छत्ते में हाथ नहीं डाला। दिग्विजय सिंह जैसे पुतला पूजने वाले शासक हों या फिर शिवराज सिंह जैसी लंबी पारी खेलने वाले मुख्यमंत्री सभी साहब की लाबी का हाथ पकड़कर चलते रहे। अर्जुन सिंह से उपकृत स्वर्गीय सुंदरलाल पटवा हों या उनकी भजन मंडली के बाबूलाल गौर, कैलाश नारायण सारंग सभी ने सिगरेट की राह में अड़ंगा न लगाने की परिपाटी जारी रखी।बाद में तो विश्वास सारंग पर लघु वनोपज संघ में खुद को श्रमिक के तौर पर पंजीकृत करवाने का आरोप भी लगा। शिवराज सिंह चौहान और उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों की तो क्या बिसात थी कि वे कोई स्वतंत्र फैसला ले सकते। उनके मंत्रिमंडल में शामिल रहे पंडित गोपाल भार्गव ने दिग्विजय सिंह सरकार के सामने खूब उछलकूद मचाई और बीड़ी कारोबार को व्यवस्थित करने की नौटंकी भी की। दिग्विजय सिंह ने उन्हें बीड़ी कारोबार के अध्ययन के लिए कई राज्यों की सैर भी कराई इसके बाद वे भी सिगरेट लाबी की गोदी में जाकर बैठ गए। सत्ता में आने के बाद उन्होंने अपना मुंह बंद रखा। अब जबकि रोजगार के साधन बढ़ाने की मुहिम देश भर में चलाई जा रही है तब वे आगे आकर बीड़ी उद्योग की पुरानी सूरत लौटाने की आवाज उठाने लगे हैं।
जब अर्जुनसिंह जी इस कारोबार को लपेटना चाह रहे थे तब उनके वामपंथी सहयोगियों और मजदूर नेताओं ने खूब शोरगुल मचाया कि बीड़ी मजदूरों का शोषण किया जा रहा है। उन्हें ज्यादा मजदूरी मिलनी चाहिए। इस शोरगुल में उन्होंने बीड़ी मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी भी बढ़ा दी और तेंदूपत्ते के राष्ट्रीयकरण की आड़ में लघु वनोपज संघ के माध्यम से तेंदूपत्ते का कारोबार भी छीन लिया। कहा गया कि इस तेंदूपत्ते को बेचकर राज्य की आय बढ़ाई जाएगी और पत्ता संग्राहकों को बोनस भी बांटा जाएगा। तबसे लेकर हर साल बोनस बांटने की नौटंकी की जाती रही है। जब पत्ता एक्सपोर्ट होने लगा तो जिस बीड़ी मजदूर को साल भर रोजगार मिलता था वो छिन गया। मजदूरी बढ़ने से बीड़ी कारोबार की कमर टूट गई और यह धंधा पश्चिम बंगाल पहुंच गया।
बीड़ी सेठ तो मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के कोषाध्यक्ष भी हुआ करते थे लेकिन अर्जुन सिंह के सामने उनकी एक न चली। बीड़ी श्रमिकों के नेताओं ने शोषण और अत्याचारों की ऐसी कहानियां गढ़ीं और सुनाईं कि बीड़ी कारोबारियों को खलनायक बना दिया गया। जिन परिवारों ने अपनी पीढ़ियों की साधना के बल पर गांव गांव में अपनी शाखाएं खोलीं और सट्टेदार स्थापित करके बीड़ी बनवाने व उसे एक्सपोर्ट करने का कारोबार विकसित किया वह शनैःशनैः धराशायी हो गया। बेशक बीड़ी कारोबारियों के कई सट्टेदार शोषण करके बीड़ी छांट देते थे और इस छंटी हुई बीड़ी की मजदूरी काट लेते थे। इस बीड़ी को बाद में नकली लेवल लगाकर बाजार में पिछले दरवाजे से बेच दिया जाता था। शोषण के कई तरीके विकसित किए गए थे लेकिन उन्हें पूरी शह सरकारी तंत्र की थी। रिश्वत लेकर सरकारी अमला मजदूरों के शोषण की राह प्रशस्त करता रहा और मुनाफा कूटता रहा। निश्चित तौर पर शोषण रोकना सरकार की जवाबदारी थी। तब आनलाईन खातों की व्यवस्था भी नहीं थी। मजदूरी नकद दी जाती थी। ऐसे में मजदूरों खासतौर पर महिलाओं का शोषण भी आम था। इन्हें रोकने की सख्ती करने के बजाए फैक्टरी की सिगरेट बाजार में उतारकर पूरा कारोबार धराशायी कर दिया गया।
आज जब सभी धंधों के कार्पोरेटीकरण से निजीकरण की सीमाओं और सरकारीकरण की धूर्तताओं से अलग हटकर कारोबार को व्यवस्थित करने की सुविधा आ गई है। मजदूरी को व्यवस्थित करने की आनलाईन सुविधा आ गई है तब बीड़ी कारोबार पर नए संदर्भों में विचार किया जाना अनिवार्य हो गया है। सरकार जब एक क्लिक से किसान सम्मान निधि, लाड़ली बहना योजना जैसी बहुउद्देश्यीय योजनाएं सफलता पूर्वक चला रहीं हैं तब श्रमिकों को उनके खातों के साथ देश के पूंजी निर्माण में पार्टनर बनाना सरल हो गया है। बीड़ी कारोबार हो या असंगठित क्षेत्र का खेतीहर मजदूर सभी को आनलाईन प्लेटफार्म पर जोड़ना जरूरी है। मध्यप्रदेश से जो बीड़ी कारोबार पश्चिम बंगाल, या आंध्रप्रदेश शिफ्ट हो चुका है उसे एक बार फिर राज्य में स्थापित करना चुनौतीपूर्ण कार्य हो गया है।कथित सहकारीकरण का मॉडल फेल घोषित होने के बाद तो अब तय हो गया है कि बीडी़ का धंधे को कुचलकर राजनेताओं ने मजदूरों की रीढ़ तोड़ने का षडयंत्र किया था। बीड़ी कारोबारी परिवार से आए सागर के विधायक शैलैन्द्र जैन कहते हैं कि लंबी उपेक्षा के बाद तमाम बीड़ी कारोबारियों ने दूसरे धंधे शुरु कर दिए हैं और बीड़ी का कारोबार बंद कर दिया है ऐसे में इस कारोबार की पुरानी सूरत कैसै लौटाई जा सकती है। मुख्यमंत्री मोहन यादव ने सत्ता संभालते ही मिल श्रमिकों के कल्याण के लिए जो ठोस फैसले लिए थे उन्हें देखते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि खासतौर पर बुंदेलखंड के बीड़ी श्रमिकों के हित में भी वे बगैर किसी दबाव के फैसले ले सकेंगे। सागर में आयोजित इन्वेस्टर समिट में कम से कम यह एक ठोस फैसला लिए जाने की तो उम्मीद की ही जा सकती है।
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