भारतीय जनता पार्टी ने मध्यप्रदेश में 39सीटों पर प्रत्याशी घोषित करके जिस आक्रामक रणनीति का परिचय दिया था उसी तर्ज पर उसने तीन नए मंत्री बनाकर कथित तौर पर डगमगाती नैया के छेद भी बंद कर दिए हैं। कहा जा रहा था कि विंध्य का ब्राह्मण मतदाता इस बार भाजपा से नाराज है और वह कमलनाथ कांग्रेस के साथ जाने के लिए तैयार है। राजनीतिक क्षेत्र के जानकार होने का दावा करने वाले कुछ लाल बुझक्कड़ी पंडितों की इस कहानी में कोई सिर पैर ही नहीं था। इसकी वजह थी कि राजेन्द्र शुक्ल मंत्री न बनाए जाने से कतई नाराज नहीं थे। उनके करीबियों को जिस तरह से बड़े ठेके देकर महत्वपूर्ण कार्यों की जवाबदारी दी गई थी ये उनके मंत्री रहते संभव नहीं था.पिछले विधानसभा चुनावों में विंध्य का इलाका एकजुट होकर भाजपा के साथ आया था। शिवराज जी के लंबे कार्यकाल के कारण राजनीतिक मेधा से लबरेज वहां के मतदाताओं में थोड़ी बेचैनी जरूर देखी जा रही थी उन्हें लगता था कि हमारे इलाके को उपेक्षित किया जा रहा है लेकिन जिस तरह के ठोस कार्यों में विंध्य के प्रमुख लोगों को सत्ता का सहोदर बनाया गया उसे जानकर विंध्य के मतदाता में कहीं कोई संशय नहीं बचा है। नारायण त्रिपाठी अलग विंध्य प्रदेश के राजनीतिक नारे को हवा देकर खुद का औचित्य सिद्ध कर रहे थे। ऐसे में कांग्रेस के हवा दिएजाने के बावजूद अलगाव की मांग परवान नहीं चढ़ पाई । इधर विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम ने विंध्य की कमान को मजबूती से थाम रखा है। ऐसे में विंध्य कहीं खिसकने वाला नहीं है।
बालाघाट और महाकौशल से संवाद करने वाले एक शिल्पी की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी। जबलपुर से अजय विश्नोई जिस तरह रह रहकर अपने राजनीतिक वनवास की कराह सुनाते रहे हैं उसे देखकर सात बार के विधायक और लोकप्रिय मंत्री रहे गौरीशंकर बिसेन को मंत्री बनाकर भेजा गया है। महाकौशल को भड़काने और भरमाने के प्रयासों के लिए बिसेन अकेले ही काफी हैं। भाजपा ने हितग्राही मूलक जिन योजनाओं की बौछार पूरे प्रदेश में की है उसका असर महाकौशल में भी पर्याप्त है।
उमा भारती अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते जिस तरह लोधी वोटों को लामबंद करने में जुटी हैं उसे केन्द्रीय मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल का अंदरूनी सपोर्ट मिलता रहा है। ऐसे में राहुल लोधी को राज्यमंत्री बनाकर भाजपा ने लोधी समाज की एक बड़ी आकांक्षा पूरी कर दी है।उमा भारती को सत्ता में भागीदारी का संदेश देने में भी ये प्रयास सफल रहा है।
दरअसल ये तीनों नियुक्तियां न तो मंत्रियों का जलवा बढ़ाने के लिए हैं और न ही उन नेताओं को इस नए पदभार से कोई लाभ मिलने वाला है। उन्हें तो उस ब्रांड असंतुलन को ठीक करने के लिए मैदान में उतारा गया है जो शिवराज सिंह चौहान के चेहरे के अति प्रचार से बिगड़ रहा है। चुनावी प्रचार के केन्द्र में शिवराज सिंह चौहान की छवि को भरपूर उभारा गया है। लगभग 20 सालों की सत्ता ने शिवराज जी को सामने आने का पूरा मौका दिया है। आगामी विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा की केन्द्रीय कमान ने राज्य भाजपा को भरपूर संसाधन मुहैया कराए हैं। ऐसे में तीन महत्वपूर्ण पदाधिकारियों को मैदान में उतारकर भाजपा हाईकमान ने लड़खड़ाते शिवराज ब्रांड को सहारा देने का जतन किया है। जिस तरह से कहा जा रहा है कि योजनाओं के हितग्राही मिलकर पार्टी को गुजरात जैसी बंपर जीत दिला सकते हैं तो ऐसी स्थिति में शिवराज की आड़ में सत्ता का उपभोग करते रहे लोग इस जीत को शिवराज की जीत बताने में जुट जाएंगे। तब पार्टी को ये चुनावी फील्डिंग काम आएगी।
बेशक तीनों मंत्री शिवराज के सहयोगी रहे हैं लेकिन राजनीतिक पतंग की डोर यदि थामकर न रखी जाए तो फिर ये मैदान में कोहराम मचाने लगती है। शिवराज जी के कार्यकाल को पार्टी में अलौकिक नहीं माना जाता है। वे मजबूरी का नाम महात्मा गांधी बनकर कार्य करते रहे हैं। ऐसे में तीन मंत्रियों का ब्रेक उनका भ्रम तोड़ने के लिए सहयोगी साबित होगा। शिवराज सिंह जिस लाबी की कठपुतली बनकर सरकार चलाते रहे हैं उसे शिकस्त देने की कोशिश करती कांग्रेस अपने दांत तुड़वा चुकी है। जाहिर है कि भाजपा ये गलती दुहराने वाली तो नहीं है।
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