अगर हम अपनी कंपनियों, सार्वजनिक शोध और नियमन में जरूरी बदलाव करें तो इनोवेशन पर आधारित एक ऐसा औषधि उद्योग तैयार कर सकते हैं जो दुनिया को पीछे छोड़ देगा।
भोपाल, 10 जून (प्रेस इंफार्मेशन सेंटर). प्रभावी नैशनल इनोवेशन सिस्टम कायम करने के लिए हमें बीते 70 वर्षों की सबसे सफल आर्थिक घटनाओं से सबक लेना होगा। जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, सिंगापुर और चीन इसके उदाहरण हैं। इन सभी देशों ने इनोवेशन की क्षमता विकसित करने की एक प्रक्रिया का पालन किया। एक प्रतिस्पर्धी उद्योग तैयार किया गया फिर गहरी तकनीकी क्षमता, उसके पश्चात आंतरिक शोध एवं विकास तथा अंत में सरकारी स्तर पर शोध और विकास किया गया।
हम फार्मा सेक्टर में दुनिया को पछाड़ने वाला इनोवेशन कर सकते हैं। यह एक ऐसा उद्योग है जिसमें हम शोध एवं विकास में वैश्विक स्तर का निवेश कर सकते हैं। हमने यह नतीजा कैसे निकाला? दरअसल यह जानकारी उन टिप्पणियों का नतीजा है जो फार्मा सेक्टर में इनोवेशन को लेकर बंद दरवाजों के पीछे हुई एक बैठक में निकलीं। इस बैठक में फार्मा उद्योग के कुछ सर्वाधिक जानकार लोग, विद्वान, सरकार के लोग आदि शामिल थे। इसका आयोजन सेंटर फॉर टेक्नॉलजी इनोवेशन ऐंड इकनॉमिक रिसर्च तथा अनंत सेंटर ने किया था।
कंपनियों के सामने चुनौती यह है कि भारतीय फार्मा उद्योग एक सफल क्षेत्र है। 50 वर्ष पहले जहां हम विदेशी कंपनियों और ब्रांड पर निर्भर रहते थे, वहीं अब हमने एक बड़ा और जीवंत फार्मा सेक्टर तैयार किया है जहां उद्यमिता शक्ति से भरपूर भारतीय कारोबारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मुकाबला कर रहे हैं। आकार के मामले में हम 10 फीसदी हिस्सेदारी के साथ दुनिया में तीसरे स्थान पर हैं लेकिन 42 अरब डॉलर की बिक्री के साथ हम मूल्य में 14वें स्थान पर हैं और हमारी हिस्सेदारी केवल 1.5 फीसदी है।
फार्मा उद्योग की आकांक्षा 2030 तक अपना आकार तीन गुना करने की है। इसमें इनोवेशन का योगदान होगा। परंतु इसके लिए पूरी व्यवस्था बनानी होगी। इसकी शुरुआत शोध एवं विकास में निवेश से होनी चाहिए। अमेरिका, जापान, जर्मनी, स्विट्जरलैंड और ब्रिटेन में बड़ी-बड़ी फार्मास्युटिकल कंपनियां हैं। इन सभी ने शोध एवं विकास में अरबों डॉलर का निवेश किया है।
स्विट्जरलैंड की रॉश और नोवार्टिस, अमेरिका की जेऐंडजे, फाइजर, ब्रिस्टल-मायर्स, मर्क और इलाई लिली, ब्रिटेन की ऐस्ट्राजेनेका और जीएसके, जर्मनी की बेयर, बोरिंगर और मर्क डी, जापान की ताकेदा, दाइची, एस्टेल्लास, ओत्सुका और एईसाई। हमें उनकी बराबरी के लिए क्या करना चाहिए? ये कंपनियां हमारी टॉप पांच फार्मा कंपनियों के कुल टर्नओवर से अधिक राशि तो अपने शोध एवं विकास पर व्यय करती हैं। हमारी कंपनियों को कम से कम 10 वर्षों तक शोध एवं निवेश व्यय बढ़ाना होगा।
आंतरिक शोध एवं विकास में निवेश को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। हम कंपनियों से वह करने के लिए कहने में भी हिचकिचाते हैं जो उन्हें अपनी बेहतरी के लिए खुद कहना चाहिए यानी शोध एवं विकास पर व्यय बढ़ाना। शोध एवं विकास पर व्यय करने वाली टॉप कंपनियों से यह कहा जाना चाहिए कि वे इस सेक्टर में निवेश बढ़ाएं। अगले 10 वर्षों तक शोध एवं विकास व्यय में इजाफे के मामले में आय कर पर कर छूट दी जानी चाहिए।
हमें ऐसी नियामकीय व्यवस्था बनानी चाहिए जो कंपनियों में इनोवेशन को बढ़ावा दे। हमारी एक राउंडटेबल बैठक में वक्ताओं ने नियामकीय ढांचे में सुधार की बात कही थी। नियमन का काम ऐसे अधिकारियों के हवाले है जिनको औषधि निर्माण में लगने वाले नए घटक के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
ऐसी ही वजहों से भारतीय औषधि निर्माताओं को पहले चरण के परीक्षण भारत के बजाय ऑस्ट्रेलिया में करने पड़ रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया में इसकी लागत 10 गुना तक अधिक होती है लेकिन वहां प्रक्रिया व्यवस्थित, पारदर्शी और सुनिश्चित है। अगर हम नियामकीय व्यवस्था में सुधार करें तो हमें औषधि निर्माण में प्रतिस्पर्धी बढ़त मिल सकती है।
हम अपने सकल घरेलू उत्पाद का करीब 0.4 फीसदी सार्वजनिक फंडिंग वाले शोध एवं विकास में खर्च करता है जो वैश्विक औसत का 0.5 फीसदी है। परंतु इस निवेश पर हमें बहुत कम प्रतिफल मिलता है। समस्या यह नहीं है कि हम कितना व्यय करते हैं बल्कि दिक्कत यह है कि हम कहां खर्च करते हैं। राष्ट्रीय शोध एवं विकास व्यय का आधा से अधिक हिस्सा सरकार अपनी स्वचालित प्रयोगशालाओं में व्यय करती है। सबसे अधिक व्यय रक्षा पर उसके बाद परमाणु ऊर्जा, CSIR और कृषि पर व्यय होता है। स्वास्थ्य शोध छठे स्थान पर है और शोध एवं विकास पर होने वाले सरकारी व्यय का छह फीसदी उस पर खर्च किया जाता है।
अमेरिका में स्वास्थ्य क्षेत्र का शोध रक्षा के ठीक बाद आता है और सकार शोध विकास व्यय का 27 फीसदी हिस्सा उस पर खर्च करती है। ब्रिटेन में यह 20 फीसदी है। मजबूत आंतरिक व्यय से ही इस क्षेत्र में बात बन सकती है। सरकारी शोध एवं विकास व्यय का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करने से इसलिए भी लाभ होगा क्योंकि फार्मा उद्योग में गहन शोध एवं विकास होता है।
इसके अलावा भी अवसर हैं। फार्मा उद्योग का कोई भी व्यक्ति आपको बता देगा कि वे आसानी से कई फार्मेसी पाठ्यक्रमों के युवा स्नातकों को नौकरी दे सकते हैं। लेकिन उन्हें आसानी से बढि़या शोध प्रतिभाएं नहीं मिलतीं। विशेष प्रतिभाएं अक्सर अमेरिका और ब्रिटेन की प्रयोगशालाओं में चली जाती हैं। यह बात उन्हें बेहतर फंडिंग वाले विश्वविद्यालयों से जोड़ती है जो इस दिशा में ढेर सारा शोध करते हैं।
तमाम ऐतिहासिक कारणों से हमारे अधिकांश सार्वजनिक शोध स्वायत्त सरकारी प्रयोगशालाओं में होता है। जबकि तमाम अन्य देश सरकारी विश्वविद्यालयो में शोध करते हैं। अगर हम उच्च शिक्षा में सार्वजनिक शोध पर बल दें तो हम बेहतर प्रतिभाएं तैयार कर पाएंगे।
इनोवेशन को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर आकांक्षा होनी आवश्यक है। चीन के अनुभव से भी हम सीख सकते हैं। 15 वर्ष पहले भारतीय फार्मा उद्योग इनोवेशन में चीन से आगे था लेकिन आज हम 10 वर्ष पीछे हैं। 2012 के आसपास चीन में नियामकीय बदलाव करके चिकित्सकीय परीक्षणों को आसान बना दिया गया, विभिन्न स्थानीय सरकारों के बीच की प्रतिद्वंद्विता ने कंपनियों को अपने शहर में शोध विकास बढ़ाने को प्रेरित किया।
वहां प्रतिभा खोज कार्यक्रम में हजारों प्रतिभाशाली युवाओं का चयन किया गया और चीन के बाजार और निर्यातोन्मुखी उद्योग ने पूरा परिदृश्य बदल दिया। इसके इर्दगिर्द फलता-फूलता वेंचर कैपिटल उद्योग तैयार हुआ। गत वर्ष इस उद्योग ने चीन में इस क्षेत्र के स्टार्टअप में 15 अरब डॉलर का निवेश किया। भारत में इसकी तुलना में बहुत कम प्रगति हुई। आगे की राह एक व्यापक राष्ट्रीय उद्देश्य से निकलेगी जिसके तहत भारत के फार्मा उद्योग को इनोवेशन में अग्रणी बनाने का प्रयास होना चाहिए।
नियामकीय ढांचे में बदलाव लाकर चिकित्सकीय परीक्षणों का मार्ग सहज किया जा सकता है और स्वास्थ्य से जुड़े शोध के क्षेत्र में सरकारी निवेश बढ़ाने से भी हालात में सुधार होगा। आज से 10 वर्ष बाद हमारे फार्मा उद्योग का बदला हुआ इनोवेशन भारतीय उद्योग को दिशा दिखा सकता है।
(नौशाद फोर्ब्स, फोर्ब्स मार्शल के को-चेयरमैन और सतीश रेड्डी, रेड्डीज लैबोरेटरीज के चेयरमैन हैं) बिजिनेस स्टैंडर्ड हिंदी से साभार
Leave a Reply