फतवों की बोली और संविधान से विरोधाभास


( डॉ अजय खेमरिया)

देश में लागू किशोर न्याय अधिनियम कहता है कि एक बालक 18 साल की आयु पूरा करने पर बालिग यानी वयस्क माना जायेगा।मताधिकार कानून भी यही परिभाषा देता है लेकिन उप्र के सहारनपुर स्थित देवबंद इस्लामी अध्ययन केंद्र कहता है कि 15 साल के बालक या बालिका को बालिग माना जाना चाहिये।हेग घोषणापत्र से बंधे भारत में बाल सरंक्षण और पुनर्वास के लिए किशोर न्याय अधिनियम को संसद ने पारित किया है लिहाजा इसके सभी उपबन्ध सभी नागरिकों पर लागू है।दत्तकग्रहण यानी बच्चों को गोद लेनें के लिए देश में एक विहित प्रक्रिया संस्थित है जो यह सुनिश्चित करती है कि गोद लिए जाने वाले हर बच्चे को अपने नए परिवार में वे सभी अधिकार हांसिल होगें जो उसे जैविक मातापिता से मिलते है यानी उत्तराधिकार से लेकर सम्पति तक।देवबंद की तालीमी दुनियां एक अलग फतवा जारी कर इस कानून को पलट रही है और यह निर्देश देती है कि गोद लिए गए किसी भी बालक को जैविक संतान की तरह किसी प्रकार के अधिकार नही मिल सकते है।यही नही यह फतवा कहता है कि ऐसा बालक परिवार के अन्य बच्चों के साथ 15 बर्ष की आयु के बाद कोई सुमेलन नही रखेगा।मसलन अगर किसी मुस्लिम दम्पति ने अपने दो पुत्रों के बाद किसी बेटी को विधिक प्रक्रिया के अनुरूप गोद लिया है तो वह बेटी अपने परिवार में पहले से मौजूद दो भाइयों के साथ बहन के रिश्ते में नही रह सकती है।यहां तक कि ऐसे बच्चे के साथ उसकी मां को भी पर्दा करना पड़ेगा।
हाल ही में देवबंद उलूम के इन फतवों के विरुद्ध एक लिखित शिकायत राष्ट्रीय बाल सरंक्षण आयोग को प्राप्त हुई जिसकी जांच के बाद आयोग के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगों ने एक पत्र उतरप्रदेश के मुख्य सचिव को भेजा है।इस पत्र में देवबंद के उन दस फतवों का उल्लेख है जो किशोर न्याय अधिनियम समेत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14,15,21 के अलावा आईटी एक्ट की धारा 69 के खुले उल्लंघन को रेखांकित करते हैं।आयोग के अध्यक्ष श्री कानूनगो इन फतवों को विधि के शासन के विरुद्ध भी निरूपित करते है।रोचक तथ्य यह है कि एक फतवा बालिकाओं की शिक्षा ऐसे स्कूलों में कराने को प्रतिबंधित करने की बात करता है जहां कक्षा 9 के बाद पढ़ाने का कार्य पुरुष शिक्षकों के द्वारा कराया जाता है।मुस्लिम बेटियों को सहशिक्षा देनें वाले स्कूलों में दाखिले को देवबंद के फतवे हराम घोषित कर रहे है।
देश में लागू शिक्षा का अधिकार कानून बच्चों के शारीरिक दंड को निषिद्ध करता है लेकिन देवबंद के फतवे में इसे शरिया के अनुरूप बताकर उचित निरूपित किया गया है।यानी मदरसे में शिक्षक अगर चाहें तो बच्चों के साथ मारपीट कर सकते है।
अगर किसी मुस्लिम परिवार की बेटियां किसी केंद्रीय विद्यालय या सहशिक्षा व्यवस्था वाले स्कूल में पढ़ती है तो क्या कक्षा 9 के बाद उन्हें इस स्कूल में पढ़ाया जा सकता है?इस विषय पर जारी देवबंद का फतवा स्पष्ट रूप से कहता है कि गैर इस्लामिक माहौल में जहां उस स्कूल की गणवेश पहनना अनिवार्य हो बेटियों को पढ़ाना हराम है और तत्काल किसी ऐसे स्कूल में उनका दाखिला कराया जाए जो इस्लामिक हो और शरिया के अनुसार वहाँ पुरुष शिक्षक न हो।
देवबंद इस बात को भी प्रतिबंधित करता है कि अगर किसी स्कूल में ज्ञानवर्धन के उद्देश्य से भी मुस्लिम बच्चों को मंदिर,चर्च या अन्य धार्मिक पूजा स्थलों की सैर कराई जाए।ऐसे ही तमाम फतवों से देवबंद की आधिकारिक बेबसाइट भरी पड़ी है।खासबात यह है कि इन सवालों को उठाने वाले उच्च शिक्षित मुस्लिम है।देवबंद भारत में मुस्लिम दर्शन की बहावी धारा का सबसे प्रभावशाली और व्यापक अध्ययन केंद्र है।इसकी स्थापना बुनियादी रूप से खलीफा की धार्मिक सम्प्रभुता को वैचारिक रुप से मजबूत करने के उद्देश्य से की गई थी।सवाल यह है कि भारत में जिसे स्कॉलरों की संस्था कहा जाता है वहां नागरिकों के लिए संविधान प्रदत्त अधिकारों एवं संसद द्वारा निर्मित कानूनों की अनुपालना के लिए प्रेरित करने के स्थान पर शरियत के अबलंबन की शिक्षा क्यों दी जा रही है।इन फतवों से आखिर किसका भला हो सकता है इस सवाल के जबाब में कोई मुस्लिम स्कॉलर सामने नही आना चाहता है उल्टे बाल सरंक्षण आयोग पर साम्प्रदायिक नजरिये से काम के आरोप लगाए जा रहे है।इस्लामिक स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेशन ऑफ इंडिया एसआईओ के राष्ट्रीय सचिव फवाज शाहीन ने एक बयान जारी कर इस मामले का बचाव करते हुए कहा है कि ”फतवे, निजी एवं सामाजिक जीवन से जुड़े विभिन्न मुद्दों के संदर्भ में केवल धार्मिक विद्वानों के निजी विचार होते हैं”।यहां बुनियादी सवाल यह है कि जब नागरिकता संशोधन कानून पर देश भर में विरोध के स्वर अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा बुलंद किये जा रहे थे तब संविधान को आगे रखा जा रहा था।नागरिक हितों को संवैधानिक सरंक्षण की दलील दी जा रहीं थी और देवबंद इसी संविधान द्वारा प्रदत्त समता और शिक्षा के अधिकार को छोड़कर शरिया की अनुपालना की वकालत कैसे कर सकता है।कैसे किशोर न्याय कानून से विपरीत गोद लिए जाने वाले बालकों के हकों के विरुद्ध धार्मिक आड़ लेकर क्रूरता और बाल शोषण की सलाह दे सकता है?फतवे अगर कानून नही है तो क्या इस बात की गारंटी है कि कोई भी इन्हें जीवन में अपनाता नही है।जिस व्यापकता के साथ देवबंद की आधिकारिक बेबसाइट पर कुलीनवर्गीय लोग इस विमर्श को आगे बढ़ा रहे है उससे स्पष्ट है कि भारत में संवैधानिक व्यवस्थाओं के प्रति एक बड़ा वर्ग सुविधाजनक अनुज्ञा की मानसिकता से जीना चाहता है।बेहतर हो देवबंद जैसे संस्थान जिनकी पहुँच भारत में करोड़ों मुसलमानों तक इस बात की शिक्षा का प्रसार करे कि देश के कानून ही सर्वोपरि है यह न केवल नागरिकों के हित में है अपितु उन मासूमों के रूप में अल्लाह की इबादत भी है जिसे खुदा का घर कहा गया है।दुनियां के घोषित इस्लामिक राष्ट्रों ने भी नवाचारों एवं नवोन्मेष के बल पर तकनीकी,प्रौधोगिकी औऱ आधुनिकता के सहारे खुद को बदला है लेकिन भारत में इस्लामिक कट्टरतावादी अभी भी करोड़ों बच्चों को आधुनिकता और शिक्षा की रोशनी से दूर रखना चाहते है।हजारों करोड़ के दान से चलने वाले देवबंद जैसे संस्थानों के कर्ताधर्ता खुद तो उन्नत जीवनशैली और संसाधनों के उपयोग में आगे है लेकिन करोड़ों बेटियों को शरीयत के नाम पर आगे बढ़ने से रोककर देश और कौम दोनों का नुकसान कर रहे है।
(सदस्य किशोर न्याय बोर्ड मप्र )

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