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इस विषय पर पिछले प्रथम भाग में, मैंने नए किसान कानूनों की पृष्ठभूमि और प्रावधान और प्रभाव के बारे में लिखा था … जिसकी लिंक है । इसी विषय पर मैं अपने आलेख के इस दूसरे भाग में बताना चाहता हूं कि वर्ष 1961 में पश्चिमी अफ्रीका स्थित सिएरा लियोने देश को ब्रिटेन से स्वतंत्रता मिल गयी। इस देश का शासक सियाका स्टीवेंस नामक व्यक्ति बन गया। उसने अंग्रेजों की दोहन वाली व्यवस्था को ही चालू रखा तथा किसानों को अपना उत्पाद सरकारी मार्केटिंग बोर्ड को बेचने के लिए मजबूर करने की नीति अपने नए स्वतंत्र देश मे जारी रखीं।
कुछ ही वर्षों में यह हालत हो गई कि वहां के किसानों को Palm Kernels (ताड़ की गरी), कोको (cocoa) और कॉफ़ी बीन्स की कीमत, विश्व में व्याप्त दर से आधी या उससे भी कम मिल रही थी। जब वर्ष 1985 में स्टीवंस को सत्ता छोड़ने के लिए मजबूर किया गया, तब किसानों को अपने उत्पाद की कीमत का केवल 10% ही मिल रहा था।
एक तरह से स्टीवेंस की नीति यह थी कि किसानों को जानबूझकर गरीब रखो; उनको निर्धनता के नाम पर कुछ लॉलीपॉप पकड़ा दो और सत्ता में बने रहो। इस लॉलीपॉप के बदले में ना तो उसने किसानों को कोई सुविधा दी , ना ही किसी इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास किया, ना ही कोई पब्लिक सर्विस उपलब्ध कराई। बल्कि उसने अपने आपको, अपने परिवार के सदस्यों को तथा चापलूसो को समृद्ध बनाया एवं विरोधियों से राजनीतिक समर्थन खरीदा। फलस्वरूप सियाका स्टीवेंस और उनकी पार्टी को भी भारत के गांधी परिवार एवम कांग्रेस की तर्ज पर वहां की जनता द्वारा नेपथ्य में धकेल दिया गया ।
जहां तक मुझे ज्ञात है ,भारत में मंडी परिषद भी इसी प्रकार से किसानों का शोषण कर रही थी। स्थिति यह थी कि बैरसिया का किसान अपने उत्पादों को नर्मदापुरम में नहीं बेच सकता था; ना ही मेरठ का किसान दिल्ली में। मेरठ से दिल्ली तक बेचने की बात छोड़िये; मेरठ का वह किसान अपने उत्पादों को उत्तर प्रदेश स्थित मुज्जफरनगर में भी नहीं बेच सकता था क्योंकि उसे अपना सारा उत्पाद सरकारी कृषि मंडी में बेचने के लिए विवश किया जाता था।
परिणाम यह हुआ कि किसानों को अगर अपने उत्पाद की कीमत किसी अन्य शहर या राज्य में बेहतर मिल रही है तो वह नहीं बेच सकता था। ना ही ग्राहक सीधे-सीधे उत्पाद किसानों से खरीद सकता था। मंडी परिषद के एकाधिकार का परिणाम यह निकला कि जो उत्पाद किसानों से दो-तीन रुपए किलो लिया जाता है, वही उत्पाद ग्राहकों को 40 से 50 रुपये किलो पड़ता है। बीच का अगर सात-आठ रुपए प्रति किलो ट्रांसपोर्ट, लेबर और कुछ अन्य खर्चों में भी मान लें, तब भी 30 रुपये बीच में कोई और खाकर धनी बन रहा था, वही चंदा देकर राजनीतिज्ञों को भी समृद्ध बना रहा था और उन्हें सत्ता में बैठने में मदद कर रहा था। इसी मंडी परिषद में काले धन को सफेद किया जा रहा था जिसका लाभ राजनीतिज्ञों तथा ब्यूरोक्रेट्स को मिल रहा था। पर देश की अर्थव्यवस्था पर बट्टा लग रहा था ।
नए किसान कानून बनने के बाद भी किसान अब भी अपना उत्पाद मंडी परिषद् बेचने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन अब उन्हें अपना उत्पाद कहीं भी बेचने की अतिरिक्त अनुमति एवम स्वतंत्रता है वो भी जहां उन्हें बेहतर दाम मिले वहां । और अगर मंडी परिषद अधिक कीमत दे रही है, तो वे वहां भी बेच देंगे। लेकिन अब किसानों को कोई मजबूर नहीं कर सकता कि वह मंडी परिषद को ही अपना माल बेचे।
मोदी सरकार का यह कदम बाजार में प्रतियोगिता को बढ़ावा देगा क्योकि उद्यमी तथा ग्राहक सीधे किसानों से उत्पाद खरीद सकते हैं।
इस प्रक्रिया से एक अन्य मार्केट का भी विकास होगा जिसे फ्यूचर ट्रेडिंग बोला जाता है। इसमें किसानों के द्वारा फसल बोते समय या फसल बोने के पहले ही उनकी पूरी फसल खरीद ली जाती है। फिर चाहे फसल काटने के समय दाम बाजार भाव से ऊपर हो या नीचे, वह फसल उस ग्राहक को लेना पड़ता है या ग्राहक को बेचना पड़ेगा।
दूसरे शब्दों में किसानों को अपने उत्पाद की कीमत वसूलने के लिए मंडी परिषद के बाहर ट्रैक्टर में माल भरकर 3 दिन प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। अधिकतर किसानों को फसल बोने के पहले ही माल की कीमत मिल सकती है।
हम यह प्रश्न क्यों नहीं पूछते कि किसानों के कल्याण के लिए नेहरू, इंदिरा, राजीव, मनमोहन, सोनिया ने जी जान लगा दिया; सारी नीतियां उनके लिए बनाई गई। तब भी वह निर्धन के निर्धन ही क्यों रहे …?
मेरे अध्ययन के बाद यह भी आंकड़े भी है कि यदि किसानों की सबसे बड़े हितैषी शरद पवार की पार्टी (Nationalist Congress Party) और अकाली दल है। तो इसके बावजूद किसानों की आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र, पूरे देश में कई वर्षों से नंबर 1 पोजीशन पर है। पंजाब टॉप के 5 या 6 प्रांतों में है।
ऐसा नहीं है कि राजनीतिज्ञों को यह तथ्य पता नहीं है कि मंडी परिषद में क्या हो रहा है और किस प्रकार से किसानों को निर्धन बनाए रखा जा रहा है। मैं लॉ प्रोफेसर होने के नाते पूरी जिम्मेदारी कहता हूं कि भारत को ,भारत के किसानों को जानबूझकर निर्धन बनाएं रखा गया है। भ्रष्ट अभिजात्य वर्ग कुछ लॉलीपॉप जनता को पकड़ा देता है, किसानों को मुद्दा उछाल देता है और उनके नाम पे नारे लगा देता है।
भारत मे कृषि की संसदीय स्थाई समिति जिसमे अध्यक्ष हुकुमदेव नारायण यादव थे तथा सभी राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि सांसद इस समिति के सदस्य थे। इस संसदीय समिति ने पूरे देश मे तीन वर्षों के पर्याप्त शौध और अध्ययन के बाद जनवरी 2019 में अपनी रिपोर्ट संसद के समक्ष प्रस्तुत की जिसका लब्बो लुआब कुछ यूं था कि
” मंडी परिषद राजनीति, भ्रष्टाचार, व्यापारियों और बिचौलिए के एकाधिकार का अखाड़ा हो गया है। देश भर में मंडी परिषद विभिन्न कारणों से किसानों के हित में काम नहीं कर रहा। उदहारण के लिए, मंडी परिषद बाजार में व्यापारियों की सीमित संख्या प्रतिस्पर्धा को कम करती है, अनुचित लाभ के लिए व्यापारियों की गुटबंदी (कार्टिलाइजेशन) को बढ़ावा देती है, बाजार शुल्क के नाम पर किसानो को अनुचित रूप से कम कीमत देती है। कुछ राज्यों में मंडी परिषद नियम किसानों के हित के लिए इतने नुकसानदेह हैं कि कृषि उपज की बिक्री मंडी क्षेत्र के बाहर होने के बावजूद भी बाजार शुल्क लगाया जाता है। मंडी परिषद नियम कृषि उत्पादों को विभिन्न स्थानों को बेचने में बांधा डालती है और प्रतिस्पर्धा को सीमित करती है। यदि हम किसानों को न्याय प्रदान करना चाहते हैं, तो मंडी परिषद नियमो में मूलभूत सुधार की तत्काल आवश्यकता है। किसानों के पारिश्रमिक का उचित मूल्य निर्धारण तब तक सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है, जब तक कृषि उपज की बिक्री के लिए उपलब्ध बाज़ारो को बढ़ाया ना जाए।
उपर्युक्त बातें इस रिपोर्ट में कहीं गयी ,आप संसदीय रिकार्ड से मिलान कर सकते हैं ।
इसी संदर्भ में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने स्पष्ट किया है की न्यूनतम समर्थन मूल्य कानून का अंग पहले भी नहीं था और एमएसपी कानून का अंग आज भी नहीं है। उन्होंने पूछा कि विपक्ष कई वर्षों तक सत्ता में रहा है और अगर MSP को कानून का हिस्सा बनाना था तब उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया?
मैं स्वयम किसान परिवार से हूं , गांव में परिवार के लोगो से तथा कई मित्रों से चर्चा के बाद मेरा व्यक्तिगत निष्कर्ष यह है कि आज भी जिन कृषि उत्पादों के लिए मिनिमम सपोर्ट प्राइज़ या न्यूनतम समर्थन मूल्य या MSP निर्धारित की जाती है वे सब के सब सरकारी MSP की दर पर नहीं खरीदे जाते। अगर MSP को कानून का हिस्सा बना देंगे तो इसका परिणाम यह होगा कि जितने भी उत्पादों की MSP सरकार निर्धारित करेगी, अगर उससे एक रुपए भी कम मिला तो यह कानून का उल्लंघन होगा। अतः किसी भी व्यापारी, उद्यमी तथा दुकानदार को MSP से कम दर पर खरीदे उत्पाद को बेचने के लिए जेल की सजा भी हो सकती है।
परिणामस्वरूप, अगर कृषि उत्पाद मांग से अधिक हुआ तो व्यापारी और उद्यमी कृषको से सीधे उत्पाद नहीं खरीदेगा। वही उत्पाद फिर किसान मंडी परिषद में बेचने के लिए बाध्य हो जाएंगे जहाँ पर उनका शोषण होगा। देखते, देखते कृषि आधारित निजी उद्यम और व्यापार ध्वस्त हो जाएंगे।
ऐसे कानून का एक अन्य दुष्परिणाम यह भी होगा। अगर सभी उत्पाद MSP की दर पर ही खरीदे जाने हैं तो हर व्यक्ति किसानी की तरफ जाना चाहेगा। हालत यह है कि भारत में अभी भी मांग से अधिक कृषि उत्पाद हो रहा है। आखिरकार कौन खरीदेगा मांग से अधिक उत्पाद? तो फिर प्याज ,टमाटर और सब्जियां या तो खेतों में या सड़कों पर फेंक कर नष्ट की जाएगी।
इसी प्रकार हमें इन उत्पादों को विश्व में बेचने में भी समस्या आएगी क्योंकि अन्य देश भारत पर आरोप लगा देंगे कि हम अपने कृषि उत्पादों पर सब्सिडी दे रहे हैं जिससे उनका सही मूल्य नहीं लग पा रहा है।
मैंने अध्ययन के बाद पता किया है कि भारत के 86 प्रतिशत किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम कृषि योग्य भूमि है। इनमें से अधिकतर उत्तर प्रदेश और बिहार में स्थित हैं। इस सुधार से छोटे किसानों को लाभ होगा क्योंकि उनकी फसल अब मंडी परिषद के दांव-पेंच से मुक्त हो गई है।
प्रधानमंत्री मोदी ने मंडी परिषद कानून में सुधार करके शरद पवार, चिदंबरम, बादल जैसे तथाकथित “किसानों” की कमर तोड़ दी है।
अंग्रेजों ने औपनिवेशिक शासन के दौरान किसानों को अपना सारा उत्पाद एक मार्केटिंग बोर्ड को बेचने के लिए विवश कर दिया। उसके पीछे औचित्य यह बताया कि मार्केटिंग बोर्ड किसानों को उचित दाम देंगे तथा कीमतों में उतार-चढ़ाव से उनकी रक्षा करेंगे। लेकिन वास्तविकता में यह बोर्ड किसानों से बाजार से कम दामों पर उत्पाद खरीदता था, बाजार में दुगने पर बेचता था ,या गोदाम के बाहर सड़ने,भीगने के लिए छोड़ देता था ।
अंग्रेजो की इसी नीति पर चलने से कृषि प्रधान भारत आज भारी प्राकृतिक सम्पदा और कृषि उत्पादन के बावजूद निर्धन है क्योकि किसान अपना उत्पाद किसी सरकारी संस्था को बेचने के लिए बाध्य है।
प्रधानमंत्री मोदी जी ने देश को बताने का प्रयास किया है कि किसान और जनता के बीच मे किस तरह कुछ राजनीतिक दल तथा परिवार, मंडियों/ दलालों के माध्यम से सिर्फ पूंजी और एकाधिकार द्वारा खुद अमीर और किसानों को गरीब बना रहे थे । एक फैक्ट्री का मालिक जब अपने उत्पाद की कीमत और कहां बेचना है यह खुद तय करता है तो किसान क्यों नही ? .. वास्तविक स्वतंत्रता देश को 2014 में और किसानों को 2020 में ही मिली है । आशा है भारत के वास्तविक किसान इस स्वतंत्रता के लिए प्रधानमंत्री का आभार अवश्य प्रदर्शित करेंगे ।// इति//
- डॉ विश्वास चौहान
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