भोपाल,8 अप्रैल(प्रेस इन्फार्मेशन सेंटर)। आयुर्वेद की शास्त्रोक्त पद्धति से बनाई गईं औषधियां कोरोना को परास्त करने में पूरी तरह सक्षम हैं।इसके पहले भी वायरसों के हमलों से आयुर्वेद रक्षा करता रहा है। आधुनिक चिकित्सा के वैज्ञानिक अनुसंधानों के बीच आयुर्वेद की जो परंपरा भुला दी गई है उस पर अमल करके भारत को दुनिया का मार्गदर्शन करना चाहिए। राजधानी में भारतीय योग अनुसंधान केन्द्र आनंदनगर के संस्थापक आचार्य हुकुमचंद शनकुशल ने कोरोना के उपचार की जो दवाएं विकसित की हैं वे उनके माध्यम से लोगों को मुफ्त उपचार सेवाएं भी दे रहे हैं।
श्री शनकुशल ने बताया कि उन्होंने आयनिक पानी और अग्नि तत्व के माध्यम से कोरोना के उपचार की पूरी विधि विकसित की है। इस उपचार विधि में स्वर्णिम जल, विष्णुजल,नस्य, और धूनी मसाला व शर्बत बनाया है जो कोरोना संक्रमण को रोकने में कारगर है। उन्होंने अपने दावे की प्रमाणिकता को साबित करने के लिए आयुर्वेद में दिए गए उपायों का भी विवरण प्रस्तुत किया है। आयनिक जल का प्रयोगशाला में भी परीक्षण कराया गया है जिससे इसके सुरक्षित होने का विश्वास बढ़ेगा। इन दवाओं से उन्होंने आम मरीजों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सफलता भी पाई है।
योग और आयुर्वेद को पिछले पचास सालों से भी अधिक समय से वैज्ञानिक आधार पर परिभाषित करते रहे आचार्य हुकुमचंद शनकुशल ने बताया कि ये जग जाहिर तथ्य है कि पीने का पानी यदि शुद्ध हो तो कई बीमारियों से बचा जा सकता है। पानी हमारी कोशिकाओं का प्रमुख तत्व भी होता है। हमारा शरीर कई किस्म के न्यूरोन्स की गतिविधियों से ही सक्रिय रहता है। यही वजह है कि स्वर्णिम जल शरीर पर तुरंत असर करता है। इसे बनाने के लिए ज्वालामुखी के चार सौ फीट की गहराई से निकाले गए पानी का शोधन किया जाता है।इस पानी में सोना, मैग्नीशियम और एल्यूमीनियम जैसे तत्वों के लवण मौजूद हैं। गहन चुंबकीय क्षेत्र से गुजारे गए इस पानी को सोने और तांबे के बीच से गुजारा जाता है। यही वजह है कि ये आयनिक पानी हमारे शरीर पर तेज असर डालता है। सरकार यदि पहल करे तो आम जनता को ये जल बहुत सस्ती कीमत पर उपलब्ध कराया जा सकता है।
गौमूत्र से निर्मित विष्णुजल कोरोना जैसे वायरसों को निष्क्रिय करने में प्रभावी भूमिका निभाता है। शास्त्रोक्त विधि से इसे बनाने का विवरण कई ग्रंथों में पहले से मौजूद है। इसे बनाने के लिए आठ लीटर बछिया के मूत्र में आधा किलो सौंफ, आधा किलो धनिया मिलाकर 24 घंटे के लिए रख दिया जाता है। इसके बाद इसा अर्क उतार लिया जाता है। पांच लीटर इस अर्क में 250 ग्राम गंधक शोधित आंवला सार, 250 ग्राम चूना, 5 ग्राम लौंग, 5 ग्राम इलायची मिलाई जाती है। इसे नारंगी होने तक उबाला जाता है और फिर 24 घंटे बाद निथारकर छानकर रख लिया जाता है। इससे त्वचा को शुद्ध किया जाता है और शरीर पर भी छिड़ककर वायरस को निष्क्रिय कर दिया जाता है।
कोरोना जिस तरह से मस्तिष्क की चेतना प्रभावित करता है और फेंफड़ों में रुकावट लाता है उसे बेअसर करने के लिए वैदिक नस्य बनाई जाती है। इसमें अपामार्ग, अरीठा, आक(मदार), गोलोचन, और केसर डालकर पीसा जाता है। इसे बनाने के लिए 25ग्राम चावल का आटा, 2 ग्राम शुद्ध केसर, 10 ग्राम अपामार्ग का आटा, 70 मिलीग्राम सफेद अर्क का दूध मिलाकर 24 घंटे बाद घोंटा जाता है। 5 ग्राम अरीठे का झाग 2 मिलीलीटर मिलाकर तब तक घोंटा जाता है जब तक कि ये सूख न जाए। इसमें 1 ग्राम शुद्ध गोलोचन मिलाकर घोंट दिया जाता है। इस नस्य को दिन में 11 बजे से 4 बजे के बीच सूंघा जाता है। अंगूठा और उसके पास वाली उंगली से चुटकी भर नस्य लेकर जोर से सूंघा जाता है। सूर्य की ओर नासा छिद्र करके सांस ली जाती है तो छींकें आने लगती हैं। कफ निकलने के बाद छींकें बंद हो जाती है। इसके बाद उंगली में थोड़ा गाय का घी मिलाकर नाक का सूखापन दूर कर दिया जाता है। इसके उपयोग से नाक से पानी बहना, सर्दी जुकाम और बुखार से रक्षा होती है और मस्तिष्कीय चेतना बढ़ती है।
कोरोना में फेंफड़ों में फाईब्राईड विकसित हो जाते हैं और उनका स्पंज समाप्त होने लगता है।इससे फेंफड़ों में सांस रोक सकने की क्षमता समाप्त हो जाती है। इसका इलाज हवन प्रक्रिया से किया जाता है। हवन की जो समिधा बनाई जाती है उसमें अर्क(मदार) की लकड़़ी का उपयोग होता है। धूम लेने के लिए काले धतूरे के पत्ते, सत्यानाशी के बीज, बिल्ली की विष्टा, मोर पंख, गाय का सींग, सांप की केंचुली, नीम के पत्ते, वासा की छाल, अर्क के फूल, तुलसी पत्र, बहेड़ा पाऊडर, घी, शहद और गुग्गल मिलाकर धूनी दी जाती है। इससे फेंफड़े खराब नहीं हो पाते। अथर्व वेद की भूत विद्या में इस फार्मूले का विवरण दिया गया है। सन्निपात, भूत बाधा और नाड़ी चिकित्सा में ये विधि बहुत सफल साबित होती रही है। कोरोना वायरस को बेअसर करने में भी यही विधि रामबाण साबित होगी।
गले की नली में खराश करने वाला कोरोना वायरस लिवर और किडनी को भी क्षतिग्रस्त करता है। इसके निदान के लिए आंवला, बहेड़ा, पारिजात और गुड़हल के फूल का शरबत रोगी को पिलाया जाता है। इससे वायरस का असर भी समाप्त होता है और पीड़ित की चेतना भी लौटने लगती है।
श्री शनकुशल ने बताया कि पूरी चिकित्सा विधि अग्नि और आयनिक जल के प्रयोग पर केन्द्रित है। इसका असर अब तक वायरसों के आक्रमण से रक्षा के लिए होता रहा है। यजुर्वेद में भी इन विधियों का उल्लेख है। बड़े पैमाने पर ये कार्य सरकारी संरक्षण के बगैर संभव नहीं है। यदि कोरोना संक्रमितों को इस विधि से उपचार दिया जाए तो न केवल मरीजों को ठीक किया जा सकता है बल्कि देश के संसाधनों की बड़ी क्षति भी बचाई जा सकती है।
Leave a Reply