शिवसेना सुप्रीमो बाला साहब ठाकरे के उत्तराधिकारी बनने का ख्वाब देश के कई लोग देखते रहते हैं। संजय राऊत भी उनमें से एक हैं। भारत की राजनीति में बाला साहब ठाकरे को कांग्रेस की परिवारवादी सोच से उपजी निराशा के अंधकार में चमकते सूर्य की तरह देखा गया। गैर कांग्रेसवाद का प्रयोग भारतीय राजनीति के कई महारथियों ने किया लेकिन बालासाहब ठाकरे ने उसे अंजाम तक पहुंचाया। आज भाजपा की गुटबाजी और एकाधिकार वादी राजनीति ने हालात बदल दिए हैं। आज शिवसेना उसी कांग्रेस के साथ आ खड़ी हुई है जिसके जेहन में माफिया शब्द गहरे तक घर जमाए बैठा है। राजाओं, सामंतवादियों के बाद अंग्रेजों और फिर आजाद भारत में जमाखोरों, मिलावटियों को ब्लैकमेल करके राजनीति की इबारत लिखती रही कांग्रेस के नेता आज भी वही पुराना धंधा चमकाने का प्रयास कर रहे हैं। कांग्रेस के साथ सत्तासीन होने के बाद शिवसेना भी इस धंधे से रोजी कमाने की जुगत भिड़ा रही है। भारत का जल व्यापार पहले निजी हाथों में था। आजादी से पहले सिंधिया घराने ने जल व्यापार में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई थी। विदेशों तक फैला जल कारोबार सिंधिया घराने की आय का बड़ा स्रोत था। जिसकी मदद से सिंधिया घराने ने अपेक्षाकृत रूप से अच्छी राजनीति की परिपाटी विकसित की। इस राजनीति को भारत की आजादी से ग्रहण लग गया। जब श्रीमती इंदिरा गांधी सत्ता में आईं तो उन्होंने सिंधिया घऱाने की आय के इस बड़े स्रोत पर कब्जा जमाने की रणनीति पर काम किया। मुंबई के अंडरवर्ल्ड डॉन करीम लाला तब समुद्री कारोबार पर माफिया गतिविधियों की वजह से गहरा नियंत्रण रखते थे। हाजी मस्तान ने भी तस्करी के कारोबार से काफी दौलत बनाई थी। इंदिरा गांधी अच्छी तरह जानती थीं कि उन्हें यदि समुद्री कारोबार पर नियंत्रण करना है तो उन्हें इस धंधे की नस कहे जाने वाले माफिया डॉनों की मदद लेनी होगी। इंदिरा गांधी की इस मंशा को महाराष्ट्र की राज्य सरकारों और पुलिस कमिश्नरों ने पूरा किया।ये बात सही है कि मुंबई का पुलिस कमिश्नर कौन होगा ये अंडरवर्ल्ड ही तय करता था। जहाजरानी मंत्रालय के अधीन बाद में बने केन्द्रीय अंतर्देशीय जल परिवहन निगम को स्थापित करके समुद्री कारोबार के बड़े खिलाड़ियों को दस जनपथ ने धंधे से बाहर कर दिया। निजी कंपनियों के जहाज धड़ाधड़ डूबने लगे, उन पर अग्निकांड होने लगे। उन्हें लूटा जाने लगा और सुरक्षा कारणों की वजह से उन्हें सरकारीकरण की जरूरत महसूस हुई जिसे आगे जाकर अंजाम दिया गया। सोने से भरे जहाज पर विस्फोट और धंधे की बर्बादी की कहानियां देश में आज तक सुनी और सुनाई जाती हैं। तब ये कहा गया कि सरकार की सुरक्षा में समुद्री कारोबार बेहतर ढंग से काम करेगा। ये हुआ भी। भारत का समुद्री कारोबार बढ़ा भी उस पर माफिया का शिकंजा आटे में नमक की तरह बना भी रहा। जब दाऊद इब्राहिम ने करीम लाला के वर्चस्व को तोड़ा तब उसे सरकार की आड़ में धंधे पर काबिज हो चुके राजनेताओं से भी जूझना पड़ा। राजनीति और माफिया के इस गठजोड़ प्रेम और दुश्मनी की कई कहानियां हैं।बाद में राजनेताओं ने निगम की आड़ में निजी मुनाफा काटने का धंधा विकसित कर लिया। आज श्रीमती इंदिरा गांधी के करीम लाला से कथित मुलाकात की कहानी ने देश में भूचाल ला दिया है उसकी वजह कुछ और है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात में बंदरगाहों की आय बढ़ाकर राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने का सफल प्रयोग कर चुके हैं। भारत की सत्ता संभालने के बाद उन्होंने यही प्रयोग मुंबई में दुहरा दिया। इसकी वजह से जल परिवहन निगम की आड़ में मुनाफा उलीच रहे कारोबारियों को दस्त होने लगे। जो जहाजरानी निगम घाटे की घाटी पर लुढ़क रहा था वो मुनाफा देने लगा। इस धंधे के पुराने खिलाड़ी बाहर होने लगे और नए खिलाड़ियों का उदय होने लगा। धंधे पर इसी पकड़ को बचाने के लिए शिवसेना का झगड़ा भाजपा से हुआ और सत्ता की नई इबारत लिख दी गई। आज कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना सभी से जुड़े व्यापारी सत्ता का पाला बदल रहे हैं। उन्हें अपने साथ रोके रखने की कवायद बड़ी कठिन साबित हो रही है। कानून और व्यवस्था राज्य का विषय होता है। इसलिए उन कारोबारियों को चमकाने के लिए संजय राऊत ने करीम लाला और इंदिराजी की मुलाकात की कहानी सुनाई है। वे बताना चाहते हैं कि आज शिवसेना माफिया के सहारे वही खेल दुहरा सकती है जिसे इंदिराजी ने कभी जहाजों की रानी को डुबाने के लिए इस्तेमाल किया था।काग्रेस के कुछ राजनेता इसे इंदिराजी की तौहीन बता रहे हैं लेकिन सच तो ये है कि माफिया के सहारे सत्ता चलाने का खेल कांग्रेस हमेशा से खेलती रही है। मध्यप्रदेश में भी उसका एक सामंत यही खेल खेल रहा है। बड़े और सफल कारोबारियों को माफिया बताकर वह अपना सिक्का चलाना चाह रहा है। मुंबई में शिवसेना गठबंधन हो या मध्यप्रदेश में कांग्रेस सभी को ये जान लेना चाहिए कि वक्त बदल चुका है। रशिया का साम्यवाद इसी माफिया के सहारे सत्ता चलाने की वजह से सत्ता से बाहर धकेला गया था। देश में भी कारोबार को बढ़ाने वाली सत्ता को पसंद किया जाता है। धंधों की जड़ों में मठा डालकर उन पर कब्जा जमाने की हवस की उम्र बहुत छोटी होती है। ये तो गनीमत है कि भाजपा के बौड़म राजनेता मोदी सरकार की चाल से कदमताल नहीं कर पा रहे हैं। वे आज भी कांग्रेस की पिछलग्गू राजनीति से मुक्त नहीं हो पाए हैं।जरूरत किसी एक सशक्त नेता की है जो कारोबारियों को एकसूत्र में बांधकर मजबूती और संरक्षण दे सके। जिस दिन ये हो गया तो माफिया के सहारे सत्ता चलाने वाली राजनीति की विदाई सुनिश्चित हो जाएगी।
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